Seeker of Truth

भगवत्कृपा

(पद-पदपर दर्शन करनेका प्रकार)

किसी भाईका प्रश्न है कि भगवत्कृपा सहैतुक होती है या निर्हैतुक? मनुष्यको सभी अवस्थाओंमें भगवान् की दयाका दर्शन किस प्रकार करना चाहिये?

इसके उत्तरमें मेरा निवेदन है कि भगवत्कृपाके महत्त्वको वाणीद्वारा पूर्णरूपसे वर्णन करना असम्भव है। क्योंकि भगवान् की दयाका महत्त्व अपार है और वाणीद्वारा जो कुछ कहा जाता है वह स्वल्प ही है; भगवान् की कृपाके रहस्यको जो कोई महापुरुष यत्किंचित् भी समझते हैं, वे भी जितना समझते हैं उतना वाणीद्वारा बता नहीं सकते। भगवान् की कृपा सब जीवोंपर सदा-सर्वदा अपार है। लोगोंका इस विषयमें जितना अनुमान है उससे भी भगवान् की कृपा बहुत अधिक है, इस विषयमें ‘भगवान् की दया’ शीर्षक एक लेख ‘कल्याण’ में पहले छप चुका है१।

१-यह लेख ‘कल्याण’ वर्ष ५, अंक १२ में छपा था तथा तत्त्वचिन्तामणि भाग २ (लेख नं० १७) में भी संगृहीत है।

विषय एक होनेके कारण कुछ पुनरुक्तियाँ आ सकती हैं, तथापि दोनों लेखोंको मिलाकर पढ़नेसे भगवान् की दयाका महत्त्व समझनेमें अधिक सहायता मिल सकती है।

वास्तवमें भगवान् की दया सभी प्राणियोंपर बिना किसी कारणके समभावसे सदा ही स्वाभाविक है, अत: उसे निर्हैतुक ही कहना चाहिये। परन्तु जो मनुष्य भगवान् की दयापर जितना अधिक विश्वास करता है, अपनेपर जितनी अधिक दया मानता है, वह उनकी दयाका तत्त्व उतना ही अधिक समझता है तथा उसे उतना ही अधिक प्रत्यक्ष लाभ मिलता है; इसलिये उसको सहैतुक भी कहा जा सकता है किन्तु भगवान् का इसमें अपना कोई हेतु नहीं है।

भगवान् तो सर्वथा पूर्णकाम, सर्वशक्तिमान्, महान् ईश्वर हैं। उनमें किसी प्रकारकी कामना या इच्छाकी कल्पना ही कैसे हो सकती है, जिससे उनकी दयामें किसी प्रकारके स्वार्थरूप हेतुको स्थान मिल सके। वे तो स्वभावसे ही—बिना कारण परम दयालु हैं, सबके सुहृद् हैं; उनकी सब क्रिया सम्पूर्ण जीवोंके हितके लिये ही होती है; वास्तवमें अकर्ता होते हुए भी वे दयावश जीवोंके हितकी चेष्टा करते हैं। अजन्मा होते हुए भी साधु पुरुषोंका उद्धार, धर्मका प्रचार और दुष्टोंका संहार२ करनेके लिये एवं संसारमें अपनी पुनीत लीलाका विस्तार करके लोगोंमें प्रेम और श्रद्धाका संचार करनेके लिये समय-समयपर अवतार धारण करते हैं; निर्गुण, निराकार और निर्विकार होते हुए भी अपने भक्तोंके प्रेमके अधीन होकर सगुण और साकाररूपसे दर्शन देनेके लिये बाध्य होते हैं; सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान् एवं सर्वथा स्वतन्त्र होते हुए भी प्रेममें पिघलकर भक्तके अधीन हो जाते हैं; इन सबमें उनकी निर्हैतुकी परम दया ही कारण है।

२-यहाँ ‘संहार’ रूपसे भी भगवान् कल्याण ही करते हैं। कहा भी है—

लालने ताडने मातुर्नाकारुण्यं यथार्भके।

तद्वदेव महेशस्य नियन्तुर्गुणदोषयो:॥

‘जिस प्रकार बच्चेको प्यार करने और ताड़ना देने, दोनोंमें माताकी दया ही है, उसी प्रकार जीवोंके गुण-दोषोंका नियन्त्रण करनेवाले भगवान् की सब प्रकारसे उनपर कृपा ही है।’

जो भगवान् को प्राप्त हुए भगवद्भक्त हैं, जो भगवान् की दयाके महत्त्वको समझ गये हैं, जिनमें उस दयामय परमेश्वरकी दयाका अंश व्याप्त हो गया है, उन महापुरुषोंका भी अन्य जीवोंसे किसी प्रकारका स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता। उनकी समस्त क्रियाएँ केवल लोकहितके लिये, किसी प्रकारके स्वार्थरूप हेतुके बिना ही होती हैं; तब फिर भगवान् की दया हेतुरहित हो, इसमें तो कहना ही क्या है! महापुरुषोंका किसी भी जीवके साथ किसी प्रकारका स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता, इस विषयमें भगवान् स्वयं कहते हैं—

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥
(गीता ३। १८)

‘उस महापुरुषका इस विश्वमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मोंके न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता।’ तो भी उसके द्वारा केवल लोकहितार्थ कर्म किये जाते हैं।

इसी तरह अपने विषयमें भी भगवान् कहते हैं—

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
(गीता ३। २२)

‘हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ।’

तुलसीदासजीने भी कहा है—

हेतु रहित जग जुग उपकारी।
तुम्ह तुम्हार सेवक असुरारी॥
स्वारथ मीत सकल जग माहीं।
सपनेहुँ प्रभु परमारथ नाहीं॥

इस वर्णनसे यह पाया जाता है कि महापुरुषोंका और भगवान् का कोई कर्तव्य और प्रयोजन न रहते हुए भी लोगोंको उन्मार्गसे बचानेके लिये एवं नीति, धर्म और ईश्वरभक्तिरूप सन्मार्गमें लगानेके लिये केवल लोकहितार्थ उनके द्वारा सब क्रियाएँ हुआ करती हैं; इसमें उनकी अपार दया ही कारण है।

भगवान् के परम दयालु और सर्वशक्तिमान् होते हुए भी, समदर्शी और नि:स्पृह होनेके कारण उनके द्वारा अपने-आप कोई क्रिया नहीं की जाती। श्रद्धा-प्रेमपूर्वक शरणागत होनेसे भक्तके हितके लिये ही, उनमें क्रियाका प्रादुर्भाव होता है और उनकी दयाका विकास होता है!

यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि यदि इस प्रकार भगवान् की समान भावसे सब जीवोंपर अपार दया है, तब फिर सभी जीवोंका कल्याण क्यों नहीं हो जाता? विवेचन करनेसे इसका यही उत्तर मिलता है कि उनकी दयाके तत्त्वको न जाननेके कारण लोग उस दयासे विशेष लाभ नहीं उठा सकते। जैसे जगत्तारिणी भागीरथी गंगाका प्रवाह लोकहितार्थ निरन्तर बहता रहता है, तथापि जो गंगाके प्रभावको नहीं जानते, जो श्रद्धा-भक्तिकी कमी होनेके कारण स्नान-पानादि नहीं करते, वे उससे विशेष लाभ नहीं उठा सकते; इसी तरह भगवान् की दयाका प्रवाह अहर्निश गंगाके प्रवाहसे भी बढ़कर सर्वत्र बह रहा है, तो भी मनुष्य उसका प्रभाव न जाननेके कारण एवं श्रद्धा-भक्तिकी कमी होनेके कारण, भगवान् की शरण लेकर उनकी दयासे विशेष लाभ नहीं उठा सकते।

समान भावसे भगवान् की दयाका साधारण लाभ तो सब जीवोंको मिलता ही है; परन्तु जो उसकी दयाका पात्र बन जाता है, वह उससे विशेष लाभ उठा सकता है। सूर्यकी धूप और रोशनी सर्वत्र समान भावसे सबको प्राप्त होती है, अत: समान भावसे उसका लाभ सबको मिलता है किन्तु सूर्यमुखी काँचपर उसकी शक्तिका विशेष प्रादुर्भाव होता है, उसमें तुरंत अग्नि प्रकट हो जाती है। सूर्यमुखी काँचकी भाँति जिसका अन्त:करण शुद्ध होता है, जिसके अन्त:करणमें भगवान् पर विशेष श्रद्धा और प्रेम होता है वह उनकी दयासे विशेष लाभ उठा सकता है।

मनुष्यके संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण, तीनों प्रकारके कर्मोंसे ही भगवान् की दयाका सम्बन्ध है—पूर्वकृत पुण्यकर्मोंका संचय भगवान् की दयासे ही हुआ है तथा उन संचित कर्मोंके अनुसार ही प्रारब्धभोगका विधान भगवान् दयापूर्वक जीवोंके हितके लिये ही करते हैं। अत: भगवान् की दयाके रहस्यको समझनेवाला प्रारब्ध-भोगके समय हर एक अवस्थामें भगवान् की दयाका दर्शन किया करता है। क्रियमाण शुभ कर्म भी भगवान् की दयासे ही बनते हैं, उनकी दयासे ही मनुष्य सन्मार्गमें अग्रसर हो सकता है। अत: सभी कर्मोंसे भगवान् की दयाका नित्य सम्बन्ध है।

श्रद्धा-भक्तिपूर्वक विचार करनेसे क्षण-क्षणमें, पद-पदपर, हर एक अवस्थामें मनुष्यको भगवान् की दयाके दर्शन होते रहते हैं। सब जीवोंको जल, वायु, प्रकाश आदि तत्त्वोंसे सुखभोग मिल रहा है, उनके जीवनका निर्वाह हो रहा है, खान-पान आदि कार्य चल रहे हैं, इन सबमें ईश्वरकी समान दया व्याप्त है।

मनुष्यके शुभ और अशुभ कर्मोंके अनुसार फलभोगकी व्यवस्था कर देनेमें भगवान् की दयाका ही हाथ है।

थोड़ा-सा जप, ध्यान और सत्संग करनेसे मनुष्यके जन्म-जन्मान्तरके पापोंका नाश होनेका जो भगवान् ने कानून बनाया है, इसमें तो भगवान् की अपार दया भरी हुई है।

भगवान् के शरण होकर प्रेम और करुणाभावसे प्रार्थना करनेपर प्रत्यक्ष प्रकट हो जाना, भक्तके हर प्रकारके दु:खों और संकटोंको दूर करना, सब प्रकारसे शरणागतकी रक्षा करना, हर एक प्रकारके पापकर्मसे उसे बचाना, यह उनकी विशेष दयाका प्रदर्शन है। बिना इच्छा और प्रार्थनाके भी भक्त प्रह्लादकी भाँति दृढ़ विश्वास रखकर भक्ति करनेवाले भक्तके हितके लिये स्वयं प्रकट होकर उसे दर्शन देना और सम्पूर्ण संकटोंसे उसकी रक्षा करना, यह भगवान् की दयाका अतिशय विशेष प्रदर्शन है।

महात्मा और शास्त्रोंके द्वारा या स्वत: लोगोंके अन्त:करणमें प्रेरणा करके अथवा स्वयं अवतार लेकर लोगोंको बुरे कर्मोंसे हटाकर अच्छे कर्मोंमें लगा देना, यह भी भगवान् की विशेष दयाका प्रदर्शन है।

स्त्री, पुत्र, धन और मकान आदि सांसारिक पदार्थोंकी प्राप्ति और उनका विनाश होनेमें एवं शरीरका स्वास्थ्य ठीक रहने और न रहनेमें, रोग और संकटादिकी प्राप्ति और उनके विनाशमें तथा सुख-सम्पत्ति और दु:खोंकी प्राप्तिमें भी—हर एक अवस्थामें मनुष्यको भगवान् की दयाका दर्शन करनेका अभ्यास करना चाहिये।

स्त्री, पुत्र, धन और मकान आदि सांसारिक पदार्थोंकी वृद्धिमें समझना चाहिये कि भगवान् ने पूर्वकृत पुण्यकर्मोंके फलस्वरूप ये सब पदार्थ दूसरोंको सुख पहुँचानेके लिये, श्रेष्ठ कर्म करनेके लिये, भगवान् में प्रेम बढ़ानेके लिये और हर प्रकारसे ईश्वरभक्तिमें इनका प्रयोग करनेके लिये ही दिये हैं। ऐसा समझकर उन सांसारिक पदार्थोंसे जो केवल शरीरनिर्वाहमात्र ही अपना सम्बन्ध रखता है और उन सबको ईश्वरके ही काममें लगा देता है, वही ईश्वरकी दयाका रहस्य ठीक समझता है; जो उन पदार्थोंको भोगोंमें खर्च करता है, वह भगवान् की दयाके तत्त्वको नहीं समझता।

इन सब सांसारिक भोग-पदार्थोंके नाशके समय समझना चाहिये कि इन सबमें मेरी भोगबुद्धि और आसक्ति होनेके कारण ये ईश्वरभक्तिमें बाधक थे! अत: परम दयालु भगवान् ने दयावश अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये इन सबको हटाया है, इसमें भगवान् की परम दया है। जिस प्रकार संसारमें देखा जाता है कि पतंगे या दूसरे इसी प्रकारके जन्तु रोशनीको देखकर उसपर आसक्त हो जाते हैं, मोहवश उसमें उछल-उछलकर पड़ते और भस्म हो जाते हैं; उनकी ऐसी बुरी दशा देखकर, दयालु मनुष्य उस रोशनीको वहाँसे हटा देता या बुझा देता है; इस कार्यमें उस मनुष्यकी उन पतंगोंपर महान् दया है, यद्यपि वे पतंग इस बातको नहीं समझते; उनकी समझमें तो उस रोशनीको हटानेवाला अत्यन्त निर्दयी और महान् शत्रु है; पर यह उनका अज्ञान है, उनकी भूल है; इसी तरह हमारे भोले भाई जो ईश्वरकी दयाका रहस्य नहीं जानते, वे भी इन सब सांसारिक पदार्थोंका अभाव होते देखकर नाना प्रकारसे ईश्वरको दोष दिया करते हैं; परन्तु भगवान् तो परम दयालु हैं, इसलिये वे उनके अपराधकी ओर नहीं देखते। तथा मुझपर परम दया करके भगवान् ने पूर्वकृत पापकर्मोंसे उऋण करनेके लिये, भविष्यमें पापोंसे बचानेके लिये और समस्त भोगसामग्रीको प्रत्यक्ष क्षणभंगुर दिखाकर उनमें वैराग्य उत्पन्न करनेके लिये इन सबका वियोग किया है—ऐसा समझकर जो सांसारिक भोग-पदार्थोंके वियोगमें भी भगवान् की दयाका दर्शन करके सदा प्रसन्न रहता है, वही उनकी दयाके रहस्यको ठीक समझता है।

ऐसे ही जब शरीर आरोग्य रहे तो समझना चाहिये कि भगवान् को सर्वव्यापी समझकर सबमें भगवान् का दर्शन करते हुए दूसरोंकी सेवा करनेके लिये, श्रेष्ठ पुरुषोंका संग करके भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यको समझनेके लिये और उनके भजन-ध्यानका निरन्तर अभ्यास करनेके लिये भगवान् दया करके मुझे नीरोग रखते हैं। ऐसा समझकर इस क्षणभंगुर शरीरको जो परम दयालु परमात्माके काममें उपर्युक्त उद्देश्यानुसार लगा देता है, वही उनकी दयाके रहस्यको ठीक समझता है।

शरीर रोगग्रस्त होनेसे समझना चाहिये कि पूर्वकृत पापकर्मोंसे उऋण करनेके लिये, भविष्यमें पापोंसे बचानेके लिये, शरीरमें वैराग्य उत्पन्न करनेके लिये और रोगादिमें तपबुद्धि करके उसका लाभ देनेके लिये एवं बार-बार अपनी स्मृति दिलानेके लिये, भगवान् ने परम दया करके पुरस्काररूप यह अवस्था दी है। यह समझकर जो रोगादिकी प्राप्तिमें भी किसी प्रकारकी चिन्ता नहीं करके आनन्दपूर्वक अपने मनको निरन्तर भगवान् के चिन्तनमें लगा देता है, तथा भगवान् के उपर्युक्त उद्देश्योंको समझ-समझकर सदा हर्षित रहता है, वही भगवान् की दयाके रहस्यको ठीक समझता है।

इसी तरह सुखी और दु:खी, महात्मा और पापी जीवोंके साथ मिलन और विछोह होनेके समय एवं उनसे किसी प्रकारका भी सम्बन्ध होते समय, सदा भगवान् की दयाका दर्शन करना चाहिये।

अच्छे पुरुषोंसे भेंट हो तो समझना चाहिये कि इनके गुणों और आचरणोंका अनुकरण करवानेके लिये, इनके उपदेशोंको काममें लाकर भगवान् में प्रेम बढ़ानेके लिये, भगवान् ने परम दया करके इनसे भेंट करायी है।

उनके साथ वियोग होनेपर समझना चाहिये कि ऐसे पुरुषोंका संग सदा रहना दुर्लभ है, इस महत्त्वको समझानेके लिये, पुन: उनसे मिलनेकी उत्कट इच्छा उत्पन्न करनेके लिये और उनमें प्रेम बढ़ानेके लिये भगवान् दया करके ही उनसे वियोग कराते हैं।

दुष्ट, दुराचारी पुरुषोंसे भेंट होनेपर समझना चाहिये कि दुराचारोंसे होनेवाली हानियोंको प्रत्यक्ष दिखाकर, दुर्गुण और दुराचारमें विरक्ति उत्पन्न करनेके लिये भगवान् ऐसे मनुष्योंसे भेंट कराते हैं।

उनके वियोगमें समझना चाहिये कि कुसंगके दोषोंसे बचानेके लिये ही भगवान् अपनी दयासे ऐसे दुराचारी मनुष्योंसे वियोग कराते हैं।

दु:खी मनुष्यों और जीवोंसे भेंट होनेपर समझना चाहिये कि अन्त:करणमें करुणाभावकी वृद्धि करनेके लिये, उनकी सेवा करनेका मौका देनेके लिये और संसारमें वैराग्य उत्पन्न करनेके लिये दयामय भगवान् दया करके ही ऐसे जीवोंसे भेंट कराते हैं।

सुखी मनुष्योंसे और जीवोंसे भेंट होनेपर समझना चाहिये कि इन सबको सुखी देखकर प्रसन्न होनेकी शिक्षा देनेके लिये, भगवान् ने दया करके इनसे भेंट करायी है।

इन सबके वियोगमें समझना चाहिये कि जनसमुदायकी आसक्तिको दूर करके, संसारमें परम वैराग्य उत्पन्न करनेके लिये और एकान्तमें रहकर भजन-ध्यानका दृढ़ अभ्यास करनेके लिये भगवान् ने दयापूर्वक ऐसा मौका दिया है।

इसी तरह अन्य सब घटनाओंमें सदा-सर्वदा, सभी अवस्थाओंमें, भगवान् की दयाका दर्शन करना चाहिये। ऐसा अभ्यास करके मनुष्य, सब जीवोंपर जो भगवान् की अपार दयाका प्रवाह बह रहा है, उसके रहस्यको समझकर, उससे विशेष लाभ उठा सकता है।

दयामय परमेश्वरकी सब जीवोंपर इतनी दया है कि सम्पूर्ण रूपसे तो मनुष्य उसे समझ ही नहीं सकता; मनुष्य अपनी बुद्धिसे अपने ऊपर जितनी अधिक-से-अधिक दया समझता है, उतना समझना भी बहुत ही है; मनुष्य ईश्वरकृपाकी यथार्थरूपसे तो कल्पना भी नहीं कर सकता।

लोग भगवान् को दयासागर कहते हैं; किन्तु विचार करनेपर मालूम होता है कि यह उपमा भी पर्याप्त नहीं है, यह तो उसकी अपार दयाका किंचित् परिचयमात्र है। समुद्र परिमित—सीमाबद्ध है और भगवान् की दया असीम और अपार है, तथापि संसारमें समुद्रसे बड़ी वस्तु प्रत्यक्ष न होनेके कारण लोग उसीकी उपमा देकर भगवान् की दयाके महत्त्वको समझानेकी चेष्टा किया करते हैं।

इस प्रकार सब जीवोंपर भगवान् की अपार दया होते हुए भी उसके रहस्यको न समझनेके कारण मनुष्य उससे विशेष लाभ नहीं उठा सकते और अपनी मूर्खताके कारण निरन्तर दु:खोंमें मग्न रहते हैं।

भगवान् की दयाका महत्त्व अपार है; उससे जो मनुष्य जितना लाभ उठाना चाहेगा, उतना ही उठा सकता है। भगवान् की दयाको एवं उसके रहस्य और तत्त्वको बिना समझे वह दया समान भावसे साधारण फल देती है; उसे जो जितना अधिक समझता है उसे वह उतना ही अधिक फल देती है और समझकर उसीके अनुसार क्रिया करनेसे अत्यधिक फल देती है।

भगवान् की दयाका ऐसा प्रभाव है कि उसका रहस्य और तत्त्व जाननेवालेसे वह पारसमणिकी भाँति स्वयं क्रिया करवा लेती है अर्थात् जैसे किसी दरिद्री मनुष्यके घरमें पारस पड़ा हो पर उसे उसका ज्ञान न हो, वह उसे साधारण पत्थर ही समझ रहा हो, तो वह मनुष्य उससे विशेष लाभ नहीं उठा सकता, केवल पत्थर-जैसा ही काम ले सकता है। किन्तु ऐसा करते-करते यदि अकस्मात् उस पारसका लोहेसे सम्बन्ध हो जाय तो वह उसे विशेष लाभ भी दे देता है; एवं ऐसा अद्भुत चमत्कार देखकर या किसी दूसरे गुणज्ञ पुरुषके समझानेसे, वह उस पारसको ठीक पारस समझ लेता है, उस पारसके गुण और प्रभावका उसे भलीभाँति ज्ञान हो जाता है, तब ऐसा ज्ञान उस मनुष्यसे विशेष क्रिया करवाकर, उसे पूर्ण फलका भागी बना देता है। इसी तरह जब किसी विशेष घटनासे या किसी महापुरुषके संगसे, भगवान् की दयाके रहस्य, तत्त्व और प्रभावका मनुष्यको कुछ ज्ञान हो जाता है तो वह ज्ञान उससे स्वयं क्रिया करवाकर उसे पूर्ण फलका भागी बना देता है।

जो मनुष्य इस रहस्यको समझ जाता है कि भगवान् परम दयालु तथा सबके सुहृद् हैं, उसे तुरंत ही परम शान्ति मिल जाती है। भगवान् ने स्वयं कहा है—

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति॥
(गीता ५। २९)

‘हे अर्जुन! मेरा भक्त मुझे सम्पूर्ण भूतप्राणियोंका सुहृद् अर्थात् स्वार्थरहित दयालु और प्रेमी तत्त्वत: जानकर शान्तिको प्राप्त होता है।’

क्यों न हो। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि जब किसी साधारण राजाधिराज या सेठ-साहूकारके विषयमें हमारा यह विश्वास हो जाता है कि अमुक राजा या सेठ बड़ा दयालु और शक्तिशाली है, वह सबपर दया करता है एवं मुझसे मिलना चाहता है और प्रेम करना चाहता है तो हमें कितना आनन्द होता है कितना आश्वासन मिलता है, कितनी शान्ति मिलती है एवं किस प्रकार उससे मिलकर उसकी दयासे लाभ उठानेकी चेष्टा होती है। फिर सर्वशक्तिमान्, असंख्य कोटि ब्रह्माण्डोंके मालिक भगवान् के विषयमें जिसको यह विश्वास हो जाय कि भगवान् परमदयालु, सबके सुहृद् हैं, वे मुझसे प्रेम करना चाहते हैं, मुझपर उनकी अपार दया है, मिलनेकी इच्छावालोंसे वे स्वयं मिलना चाहते हैं, पर वह श्रद्धालु भक्त भगवान् की उस दयासे परम लाभ उठानेकी चेष्टा करे और उसे परम शान्ति प्राप्त हो, इसमें तो आश्चर्य ही क्या है। इस प्रकार भगवान् की दयाके रहस्यको समझनेवाला स्वयं भी परम दयालु और सबका सुहृद् बन जाता है, उसे स्वयं भगवान् मिल जाते हैं, वह भगवान् का अतिशय प्यारा बन जाता है, भगवान् की और उसकी एकता हो जाती है।

उस परम दयालु, सबके सुहृद्, सर्वशक्तिमान् परमेश्वरकी अपार दया हमलोगोंपर स्वाभाविक है। क्षण-क्षणमें उसकी दयाका स्वाभाविक लाभ हमको मिल रहा है, वे स्वयं अवतार लेकर अपनी दयाका प्रत्यक्ष दर्शन करा गये हैं; इसलिये उसकी ओर लक्ष्य करके भगवान् की दयाके रहस्य, प्रभाव और तत्त्वको समझनेके लिये हमें तत्पर हो जाना चाहिये। क्योंकि यह मनुष्य-शरीर भगवान् की निर्हैतुकी दयासे ही प्राप्त हुआ है, इसीमें यह जीव भगवान् की दयाको समझकर उनका परम प्रेमपात्र बन सकता है। क्षण-क्षणमें आयु नष्ट हो रही है, फिर ऐसा मौका मिलना असम्भव है। गया हुआ समय वापस नहीं मिल सकता, अत: ऐसे अमूल्य मनुष्य-जीवनको विषय-भोगोंके भोगनेमें, मोह-मायामें, आलस्य और प्रमादमें व्यर्थ नहीं खोना चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur