भगवन्नामका मूल्य
‘गोस्वामी तुलसीदासजीने अपने मानसमें भगवन्नाम-महिमाका उल्लेख करते हुए यहाँतक कहा है कि कलियुगमें केवल भगवान् के नामका ही आधार है। गणिका और अजामिल-सदृश बड़े-से-बड़े पापी केवल नामके प्रभावसे सहजमें ही मुक्त हो गये। श्रीहनुमान् जीने इसी नामके प्रभावसे भगवान् श्रीरामको अपने वशमें कर रखा है। नामको जीभपर रखनेमात्रसे बाहर और भीतर प्रकाश छा जाता है। नामकी महिमा इतनी अधिक है कि स्वयं भगवान् भी उसका वर्णन करनेमें असमर्थ हैं—‘राम न सकहिं नाम गुन गाई।’ यहाँतक कि भगवान् शिव इस नामकी शक्तिसे ही काशीमें समस्त जीवोंको मुक्ति प्रदान किया करते हैं। इसी प्रकार श्रीमद्भागवत, महाभारत आदि अन्य शास्त्र भी नाम-महिमासे भरे पड़े हैं; परंतु क्या कारण है कि इसके अनुसार नामका प्रत्यक्ष परिणाम देखनेमें नहीं आता?’
इस प्रकारके तर्क उपस्थित करते हुए कई महानुभाव प्रश्न किया करते हैं। इन सबका उत्तर यह है कि प्रत्यक्ष फल न दीखनेका कारण भगवान् के नाममें श्रद्धाकी कमी है। वस्तुत: भगवन्नामकी जो महिमा शास्त्रोंने गायी है, वह उससे कहीं अधिक है। नाम-महिमाकी कोई सीमा ही नहीं है। शास्त्रकथित महिमा तो नामसे लाभ प्राप्त किये हुए महात्माओंके उद्गारमात्र हैं। जिस प्रकार ईश्वर और सत्संगकी जितनी महिमा कही जाय, उतनी ही थोड़ी है, उसी प्रकार नामकी महिमाका जितना वर्णन हो, उतना ही थोड़ा है। असलमें भगवन्नामके तत्त्व, रहस्य, गुण, प्रभाव आदि न जाननेके कारण ही उसके प्रति श्रद्धामें कमी है। श्रद्धाके अभावसे तथा कहीं-कहीं तो श्रद्धासे सर्वथा विपरीत अश्रद्धाके कारण मनुष्यको यथार्थ लाभसे वंचित रहना पड़ता है। नामकी तो अमित महिमा है। संसारके किसी भी पदार्थके साथ भगवन्नामकी तुलना नहीं हो सकती। यहाँके जड एवं नाशवान् पदार्थोंको लेकर भगवान् के नामको तौलने बैठना तो अपनी अज्ञताका ही परिचय देना है।
भगवन्नामके प्रभावपर एक दृष्टान्त
एक बहुत उच्चकोटिके भगवद्भक्त नामनिष्ठ महात्मा थे। उनके समीप उनका एक शिष्य रहता था। एक समयकी बात है कि वे महात्मा कहीं बाहर गये हुए थे; उसी समय उनकी कुटियापर एक व्यक्ति आया और उसने पूछा—‘महात्माजी कहाँ हैं?’ शिष्यने कहा—‘स्वामीजी महाराज तो किसी विशेष कार्यवश बाहर पधारे हैं। आपको कोई काम हो तो कहिये।’ आगन्तुकने कहा—‘मेरा लड़का अत्यधिक बीमार है, उसे कैसे आरोग्य लाभ हो? महात्माजीकी अनुपस्थितिमें आप ही कोई उपाय बतानेकी कृपा करें।’
शिष्यने उत्तर दिया—‘एक बहुत सरल उपाय है—‘राम’ नामको तीन बार लिख लें और उसे धोकर पिला दें; बस, इसीसे आराम हो जायगा।’
आगन्तुक अपने घर चला गया। दूसरे दिन वह व्यक्ति बड़ी प्रसन्न मुद्रासे महात्माजीकी कुटियापर आया। उस समय महात्माजी वहाँ उपस्थित थे। उनके चरणोंमें साष्टांग प्रणिपात करके उसने विनम्र शब्दोंमें हाथ जोड़कर निवेदन किया—‘स्वामीजी महाराज! आपके शिष्य तो सिद्ध पुरुष हैं। कलकी बात है, मैं यहाँ आया था; उस समय आप कहीं बाहर पधारे हुए थे, केवल ये आपके शिष्य थे। आपकी अनुपस्थितिमें इन्हींसे मैंने अपने प्रिय पुत्रकी रोग-निवृत्तिके लिये उपाय पूछा। तब इन्होंने बतलाया कि तीन बार ‘राम’ नाम लिख लो और उसे धोकर पिला दो। मैंने घर जाकर ठीक उसी प्रकार किया और महान् आश्चर्य एवं हर्षकी बात है कि इस प्रयोगके करते ही लड़का तुरंत उठ बैठा, मानो उसे कोई रोग था ही नहीं।’
यह सुनकर महात्मा अपने शिष्यपर बड़े रुष्ट हुए और उसके हितके लिये क्रोधका नाट्य करते हुए बोले—‘अरे मूर्ख! इस साधारण-सी बीमारीके लिये तूने राम-नामका तीन बार प्रयोग करवाया। तू नामकी महिमा तनिक भी नहीं जानता। अरे, एक बार ही नामका उच्चारण करनेसे अनन्त कोटि पापोंका और भवरोगका नाश हो जाता है और मनुष्य अनामय परमपदको प्राप्त हो जाता है। तू इस आश्रममें रहने योग्य नहीं। अत: जहाँ तेरी इच्छा हो, चला जा।’ इसपर शिष्यकी आँखोंमें आँसू आ गये और उसने अपने गुरुदेवसे बहुत अनुनय-विनय की। संत तो नवनीत-हृदय होते ही हैं, ऊपरसे भी पिघल गये और उसके अपराधको क्षमा कर दिया।
इसके पश्चात् महात्माजीने चम-चम करता हुआ एक सुन्दर चमकीला पत्थर कहींसे निकाला और उसे शिष्यके हाथमें देकर कहा—‘तू शहरमें जाकर इसकी कीमत करा ला। सावधान! इसे किसी कीमतपर भी बेचना नहीं है, केवल कीमत भर अँकवानी है। कौन क्या कीमत आँकता है, इसे लिखकर लौट आना।’
शिष्य उसे लेकर बाजार चल दिया। सबसे पहले एक साग बेचनेवाली मालिन मिली। उसने उसे पत्थर निकालकर दिखलाया और पूछा—‘तू इसकी अधिक-से-अधिक क्या कीमत दे सकती है?’ साग बेचनेवालीने पत्थरकी चमक और सुन्दरता देखकर सोचा ‘यह बड़ा अच्छा पत्थर है। बच्चोंके खेलनेके लिये बड़ी सुन्दर वस्तु है।’ वह बोली—‘इसकी कीमतमें सेर-डेढ़-सेर मूली, आलू या जो साग तुम्हें पसंद हो, ले सकते हो।’ ‘बेचना नहीं है’ कहकर शिष्य आगे बढ़ा तो एक बनियेसे भेंट हुई। उसने पूछा—‘सेठजी! इस पत्थरका मूल्य आप क्या दे सकते हैं?’ बनियेने विचार किया, पत्थर तो बड़ा सुन्दर तथा चमकीला है और खूब वजनदार भी है। अत: सोना-चाँदी तौलनेमें इसका अच्छा उपयोग हो सकता है। उसने कहा—‘एक रुपया दे सकता हूँ।’ उसे इनकार करके शिष्य आगे चला तो एक सुनारकी दूकानपर पहुँचा। सुनारने देखकर विचार किया कि यह तो बड़े कामकी चीज है। इसे तोड़कर बहुत-से पुखराज बनाये जा सकते हैं। अत: उसने कहा—‘अधिक-से-अधिक एक हजार रुपयेतक मैं दे सकता हूँ।’
‘बेचना नहीं है’ कहकर शिष्य बड़े उत्साहसे अग्रसर हुआ और एक जौहरीकी दूकानपर पहुँचा। पहले गुरुदेवके पाससे चला था, तब तो उसे किसी जौहरीके पास जानेका साहस ही नहीं था; पर ज्यों-ज्यों उस पत्थरके मूल्यमें वृद्धि होती गयी, त्यों-ही-त्यों उसका साहस भी बढ़ता गया। अब उसकी दृष्टि भी बदल गयी। उसकी मान्यता, जो एक साधारण चमकीले पत्थरकी थी, नष्ट हो गयी। जौहरीको दिखलाकर उसकी कीमत पूछी। जौहरीने विचार किया तो उसने उसे हीरा समझा और वह उसके मूल्यमें एक लाख रुपये देनेको तैयार हो गया। परंतु बेचना तो था नहीं। अत: शिष्य उसे भी वही उत्तर देकर उच्चकोटिके जौहरियोंके पास पहुँचा। सबने मिलकर उसकी जाँच की और पाँच करोड़ रुपये उसकी कीमत आँकी। तत्पश्चात् वह शिष्य राजाके पास गया। राजा साहबने शिष्यको बड़े आदरसे बिठलाया और मुख्य-मुख्य सभी बड़े जौहरियोंको बुलाकर उस रत्नका मूल्य आँकनेके लिये कहा। सबने विचार-विमर्शके अनन्तर आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा—‘महाराज! हमने तो ऐसा रत्न कभी देखा ही नहीं। इसलिये इसकी कीमत आँकना हमलोगोंकी बुद्धिसे परेकी बात है। हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि यदि आप अपना सम्पूर्ण राज्य भी दे दें तो वह भी इसके मूल्यमें पर्याप्त नहीं।’
महाराजने शिष्यसे पूछा—‘ऐसा अनुपम रत्न तुम्हें कैसे मिला?’ शिष्यने उत्तर देते हुए कहा—‘इसे मेरे गुरुदेवने मुझे देकर केवल मूल्य अँकवानेके लिये ही भेजा है, पर बेचनेकी आज्ञा नहीं दी है।’ राजा साहबने बड़े विनम्र शब्दोंमें कहा—‘इसका मूल्य मेरे राज्यसे भी अधिक है। यदि तुम्हारे गुरुजी इसे बेचना चाहें तो इसके बदलेमें मैं अपना सारा राज्य सहर्ष दे सकता हूँ। तुम पूज्य स्वामीजीसे पूछ लेना।’ स्वामीजी उच्चकोटिके महात्मा हैं, इस बातको सभी जानते थे। अत: सबने बड़े आदर-सत्कारके साथ उस शिष्यको वहाँसे विदा किया।
शिष्यने महात्माजीके पास लौटकर सारी कहानी उन्हें सुना दी और अन्तमें कहा ‘गुरुदेव! मेरी तुच्छ सम्मति तो यह है कि जब राजा साहब इसके मूल्यमें अपना सारा राज्य ही दे रहे हैं, तब तो इसे बेच ही डालना चाहिये।’ महात्माजी बोले—‘इसके मूल्यमें राज्य भी कोई वस्तु नहीं। अभीतक इसके अनुरूप इसकी कीमत नहीं आँकी गयी।’ शिष्यने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा—‘राज्यसे बढ़कर और कीमत हो ही क्या सकती है?’ महात्माजीने कहा—‘यहाँ कोई लोहेकी बनी वस्तु मिल सकेगी क्या?’ शिष्यने उत्तर दिया—‘जी हाँ, आश्रममें कुछ यात्री आये हुए हैं; उनके पास तवा, चिमटा, सँडसी आदि लोहेके पर्याप्त बर्तन हैं। आज्ञा हो तो उनमेंसे कुछ ले आऊँ?’ महात्माजीने कहा—‘हाँ, ले आओ।’
शिष्य कई लौह-निर्मित वस्तुएँ ले आया। महात्माजीने ज्यों ही उनसे पत्थरका स्पर्श कराया, त्यों ही वे सारे लौह-पात्र देखते-ही-देखते शुद्ध सोनेके बन गये। यह देखकर शिष्यको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने चकित होकर पूछा—‘यह तो बड़ी विलक्षण वस्तु है; यह क्या है, गुरुदेव?’ महात्माजीने उत्तर दिया—‘यह वह स्पर्शमणि (पारस पत्थर) है, जिसके स्पर्शमात्रसे ही लोहा सोना बन जाया करता है। भला, अब तू ही बता कि इसकी कीमत कितनी होनी चाहिये।’ शिष्य बोला—‘संसारमें अधिक-से-अधिक कीमत सोनेकी ठहरायी जाती है और वह कीमत इससे उत्पन्न होती है फिर इसका मूल्य कैसे आँका जाय।’
महात्माजी—‘भगवन्नामका मूल्य तो इससे भी बढ़कर है, क्योंकि यह पारस तो जड पदार्थ है; इससे केवल जड पदार्थोंकी ही प्राप्ति हो सकती है, सच्चिदानन्द परमात्माकी नहीं। अत: किसी भी सांसारिक पदार्थके साथ भगवान् के नामकी तुलना करना सर्वथा अनुचित है। इनकी तुलना करनेवाला पारसको लगभग डेढ़ किलो मूली, आलूके शाकमें बेचनेकी मूर्खता करनेवालेसे कम मूर्ख नहीं। जिस प्रकार पारसको न पहचाननेवाला व्यक्ति उससे तुच्छ पदार्थ लेकर सदा कंगाल बना रहता है, उसी प्रकार राम-नामके महत्त्वको न जाननेवाला भी प्रेम और भक्तिकी दृष्टिसे सदैव दरिद्र ही रहता है। तू भगवन्नामके प्रभाव और तत्त्व-रहस्यको नहीं जानता, इसीलिये एक साधारणसे रोगके लिये तूने राम-नामका तीन बार प्रयोग करवाया। जिस नामके प्रभावसे भयंकर भवरोग मिट जाता है, उसे मामूली रोगनाशके लिये उपयोगमें लाना सर्वथा अज्ञता है। तेरी इस अज्ञताको मिटानेके लिये ही तुझे पारस देकर भेजा था।’ यह सुनकर शिष्य भगवन्नामका प्रभाव समझ गया और अपनी भूलके लिये बार-बार क्षमा-याचना करने लगा।
इस कहानीसे हमलोगोंको यह शिक्षा मिलती है कि पारसके प्रभावसे अनभिज्ञ व्यक्तिको यदि पारस मिल जाय तो वह उसे अज्ञतावश दो-चार रुपयेमें ही बेच सकता है। यदि वे महात्मा शिष्यको ठीक मूल्यपर पारस बेचनेको कह देते तो वह अधिक-से-अधिक पाँच-सात सेर आलू या एक-दो रुपयेमें अवश्य बेच आता और इसे ही वह अधिक मूल्य समझता। इसी प्रकार जो मनुष्य भगवन्नामके प्रभावको नहीं जानते, वे उसे स्त्री, पुत्र, धन आदिके बदलेमें बेच डालते हैं।
भगवन्नामका रहस्य
इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि भगवान् के नाममें पापोंको नाश करनेकी बड़ी भारी शक्ति है। ‘नाम अखिल अघ पुंज नसावन’ यह उक्ति सर्वथा सत्य है; परंतु लोग इसका रहस्य नहीं जाननेके कारण इसका दुरुपयोग कर बैठते हैं। वे सोचते हैं कि नाममें पाप-नाशकी महान् शक्ति है ही; अभी पाप कर लें, फिर नाम लेकर उसे धो डालेंगे। यह सोचकर वे अधिकाधिक पाप-पंकमें फँसते ही चले जाते हैं। वे यह नहीं विचारते कि यदि वास्तवमें उनकी यह मान्यता ठीक हो, तब तो नामका जप पापोंका विनाशक नहीं, प्रत्युत वृद्धि करनेवाला ही सिद्ध हुआ। क्योंकि फिर तो सभी लोग नामका आश्रय लेकर मनचाहा पाप करने लगेंगे और इससे वर्तमान कालकी अपेक्षा भविष्यमें पापोंकी संख्या बहुत अधिक बढ़ जायगी। जिस प्रकार पुलिसकी पोशाक पहनकर चोरी करनेवाला अन्य चोरकी अपेक्षा अधिक दण्डनीय होता है, उसी प्रकार भगवन्नामकी ओट लेकर पाप करनेवाला व्यक्ति अधिक दण्डका पात्र हो जाता है; क्योंकि उसके पाप वज्रलेप हो जाते हैं, बिना भोगे उनका विनाश नहीं होता। नामकी आड़ लेकर पाप करना तो नामके दस अपराधोंमेंसे एक नामापराध है। नामके दस अपराध ये हैं—
सन्निन्दासति नामवैभवकथा श्रीशेशयोर्भेदधी-
रश्रद्धा श्रुतिशास्त्रदैशिकगिरां नाम्न्यर्थवादभ्रम:।
नामास्तीति निषिद्धवृत्तिविहितत्यागो हि धर्मान्तरै:
साम्यं नाम्नि जपे शिवस्य च हरेर्नामापराधा दश॥
१—सत्पुरुष—ईश्वरके भजन-ध्यान करनेवालोंकी निन्दा, २—अश्रद्धालुओंमें नामकी महिमा कहना, ३—विष्णु और शिवके नाम-रूपमें भेद-बुद्धि, ४-५-६— वेद-शास्त्र और गुरुके द्वारा कहे हुए नाम-माहात्म्यमें अविश्वास, ७—हरिनाममें अर्थवादका भ्रम अर्थात् केवल स्तुतिमात्र है ऐसी मान्यता, ८-९—नामके बलपर विहितका त्याग और निषिद्धका आचरण और १०—अन्य धर्मोंसे नामकी तुलना यानी शास्त्रविहित कर्मोंसे नामकी तुलना—ये सब भगवान् शिव और विष्णुके नाम-जपमें नामके दस अपराध हैं।’
इन दस अपराधोंसे अपनेको न बचाते हुए जो नामका जप करते हैं, वे नामके रहस्यको ही नहीं समझते।
तथा वाणीके द्वारा नाम जपनेकी अपेक्षा मनसे जपना सौगुना अधिक फलदायक है और वह मानसिक जप भी श्रद्धा-प्रेमसे किया जाय तो उसका अनन्त फल है; तथा वही गुप्त और निष्कामभावसे किया जाय तो शीघ्र ही परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला है। अत: इस रहस्यको भलीभाँति समझकर भगवन्नामका आश्रय लेना चाहिये।
भगवन्नामका तत्त्व
असलमें नाम और नामीमें कोई भेद नहीं है। वे भिन्न होते हुए भी सर्वथा अभिन्न हैं। गीतामें भगवान् कहते हैं—‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ (१०। २५)। ‘सब यज्ञोंमें जपयज्ञ मैं हूँ’—अर्थात् अन्य समस्त यज्ञ तो मेरी प्राप्तिके साधन हैं, पर जपयज्ञ (नाम-जप) तो स्वयं मैं ही हूँ। जो इस तत्त्वको हृदयंगम कर लेता है—ठीक-ठीक समझ लेता है, वह नामको कभी भूल नहीं सकता।
भगवन्नामके गुण
जो नित्य-निरन्तर भगवान् के नामका जप करता रहता है, वह सद्गुणोंका समुद्र बन जाता है। जिस प्रकार सागरमें अनन्त जल-राशि होती है, उसी प्रकार उसमें अनन्त सद्गुण आ जाते हैं। इससे सिद्ध होता है कि नाम बीजकी तरह है। जैसे बीजके बो देनेपर उसमेंसे फूटकर अंकुर उत्पन्न होता है एवं वही पुष्पित और पल्लवित होकर विशाल वृक्ष बन जाता है, वैसे ही नाम जपनेवालेमें अनायास ही सारे सद्गुणोंका प्रादुर्भाव हो जाता है।
इसके लिये मनुष्यको भगवन्नामके गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यको समझना चाहिये। इस प्रकार समझनेसे ही उसकी नाममें परम श्रद्धा होती है और श्रद्धासहित किया हुआ जप ही तत्काल पूर्ण फल देता है। अत: भगवान् के नाममें अतिशय श्रद्धा उत्पन्न हो, इसके लिये हमलोगोंको सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये। सत्पुरुषोंका संग न मिलनेपर हमें सत्-शास्त्रोंका—जिनमें भगवान् और उनके नामके तत्त्व, रहस्य, गुण, प्रभाव, श्रद्धा और प्रेमकी बातें बतायी गयी हों—अनुशीलन करना चाहिये। इस प्रकार करनेसे भगवन्नाममें श्रद्धा-प्रेम उत्पन्न हो जाता है और किये हुए जपका फल भी, जिसका शास्त्रोंमें वर्णन है, तत्काल प्रत्यक्ष देखनेमें आ सकता है।