भगवान् की शरणसे परमपदकी प्राप्ति
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
(गीता १८। ६२)
भगवान् कहते हैं—‘हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही अनन्य शरणको* प्राप्त हो। उस परमात्माकी कृपासे ही तू परम शान्तिको और सनातन परमधामको प्राप्त होगा।’
* लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्तिको त्यागकर, शरीर और संसारमें अहंता-ममतासे रहित होकर केवल एक परमात्माको ही परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भावसे अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरन्तर भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरूपका चिन्तन करते रहना एवं भगवान् का भजन, स्मरण रखते हुए ही उनके आज्ञानुसार कर्तव्यकर्मोंका नि:स्वार्थभावसे केवल परमेश्वरके लिये ही आचरण करना यह ‘सब प्रकारसे परमात्माके अनन्य शरण’ होना है।
सब प्रकारसे भगवान् के शरण होनेके लिये बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और शरीर—इन सबको सम्पूर्णरूपसे भगवान् के अर्पण कर देनेकी आवश्यकता है। परन्तु यह अर्पण केवल मुखसे कह देनेमात्रसे नहीं हो जाता। इसलिये इसके अर्पणका क्या स्वरूप है, इसको समझानेकी कुछ चेष्टा की जाती है।
बुद्धिका अर्पण
भगवान् ‘हैं’ इस बातका बुद्धिमें प्रत्यक्षकी भाँति नित्य-निरन्तर निश्चय रहना, संशय, भ्रम और अभिमानसे सम्पूर्णतया रहित होकर भगवान् में परम श्रद्धा करना, बड़ी-से-बड़ी विपत्ति पड़नेपर भी भगवान् की आज्ञासे तनिक भी न हटना यानी प्रतिकूल भाव न होना तथा पवित्र हुई बुद्धिके द्वारा गुण और प्रभावसहित भगवान् के स्वरूप और तत्त्वको जानकर उस तत्त्व और स्वरूपमें बुद्धिका अविचलभावसे नित्य-निरन्तर स्थित रहना—यह बुद्धिका भगवान् में अर्पण करना है।
मनका अर्पण
प्रभुकी अनुकूलतामें अनुकूलता, उनके इच्छानुसार ही इच्छा और उनकी प्रसन्नतामें ही प्रसन्न होना, प्रभुके मिलनेकी मनमें उत्कट इच्छा होना, केवल प्रभुके नाम, रूप, गुण, प्रभाव, रहस्य और लीला आदिका ही मनसे नित्य-निरन्तर चिन्तन करना, मन प्रभुमें रहे और प्रभु मनमें वास करें—मन प्रभुमें रमे और प्रभु मनमें रमण करें। यह रमण अत्यन्त प्रेमपूर्ण हो और वह प्रेम भी ऐसा हो कि जिसमें एक क्षणका भी प्रभुका विस्मरण जलके वियोगमें मछलीकी व्याकुलतासे भी बढ़कर मनमें व्याकुलता उत्पन्न कर दे। यह भगवान् में मनका अर्पण करना है।
इन्द्रियोंका अर्पण
कठपुतली जैसे सूत्रधारके इशारेपर नाचती है—उसकी सारी क्रिया स्वाभाविक ही सूत्रधारकी इच्छाके अनुकूल ही होती है, इसी प्रकार अपनी सारी इन्द्रियोंको भगवान् के हाथोंमें सौंपकर उनकी इच्छा, आज्ञा, प्रेरणा और संकेतके अनुसार कार्य होना और इन्द्रियोंद्वारा जो कुछ भी क्रिया हो उसे मानो प्रभु ही करवा रहे हैं ऐसे समझते रहना—अपनी इन्द्रियोंको प्रभुके अर्पण करना है।
इस प्रकार जब सारी इन्द्रियाँ प्रभुके अर्पण हो जायँगी तब वाणीके द्वारा जो कुछ भी उच्चारण होगा, सब भगवान् के सर्वथा अनुकूल ही होगा। अर्थात् उसकी वाणी भगवान् के नाम-गुणोंके कीर्तन, भगवान् के रहस्य, प्रेम, प्रभाव और तत्त्वादिके कथन; सत्य, विनम्र, मधुर और सबके लिये कल्याणकारी भाषणके अतिरिक्त किसीको जरा भी हानि पहुँचानेवाले, दोषयुक्त या व्यर्थ वचन बोलेगी ही नहीं। उसके हाथोंके द्वारा भगवान् की सेवा, पूजा और इस लोक और परलोकमें सबका यथार्थ हित हो, ऐसी ही क्रिया होगी। इसी प्रकार उसके नेत्र, कर्ण, चरण आदि इन्द्रियोंके द्वारा भी लोकोपकार आदि क्रियाएँ भगवान् के अनुकूल ही होंगी। और उन क्रियाओंके होनेके समय अत्यन्त प्रसन्नता, शान्ति, उत्साह और प्रेम-विह्वलता रहेगी। भगवत्प्रेम और आनन्दकी अधिकतासे कभी-कभी रोमांच और अश्रुपात भी होंगे।
शरीरका अर्पण
प्रभुके चरणोंमें प्रणाम करना, यह शरीर प्रभुकी सेवा और उनके कार्यके लिये ही है ऐसा समझकर प्रभुकी सेवामें और उनके कार्यमें शरीरको लगा देना, खाना-पीना, उठना-बैठना, सोना-जागना सब कुछ प्रभुके कार्यके लिये ही होना यह शरीरका अर्पण है। जैसे शेषनागजी अपने शरीरकी शय्या बनाकर निरन्तर उसे भगवान् की सेवामें लगाये रहते हैं; जैसे राजा शिबिने अपना शरीर कबूतरकी रक्षाके लिये लगा दिया, जैसे मयूरध्वज राजाके पुत्रने अपने शरीरको प्रभुके कार्यमें अर्पण कर दिया, वैसे ही प्रभुकी इच्छा, आज्ञा, प्रेरणा और संकेतके अनुसार लोकसेवाके रूपमें या अन्य किसी रूपमें शरीरको प्रभुके कार्यमें लगा देना ही शरीरका प्रभुके अर्पण करना है।
बुद्धि, मन, इन्द्रियाँ और शरीरको प्रभुके अर्पण करनेके बाद कैसी स्थिति होती है, इसको समझनेके लिये एक पतिव्रता स्त्रीके उदाहरणपर विचार कीजिये।
समझ लीजिये एक पतिव्रता देवी थी, उसकी सारी क्रियाएँ इसी भावसे होती थीं कि मेरे पति मुझपर प्रसन्न रहें। यही उसका मुख्य ध्येय था। पातिव्रत-धर्म भी यही है। उसके पतिको भी इस बातका अनुभव था कि मेरी स्त्री पतिव्रता है। एक बार पतिने अपनी स्त्रीके मनके अत्यन्त विरुद्ध क्रिया करके उसकी परीक्षा लेनी चाही। परीक्षा सन्देहवश ही होती हो सो बात नहीं है, ऊपर उठाने और उत्साह बढ़ानेके लिये भी परीक्षाएँ हुआ करती हैं।
एक समय पतिदेवके भोजन कर चुकनेपर वह पतिव्रता देवी भोजन करने बैठी। उसने अभी दो-चार कौर ही खाये थे कि इतनेमें पतिने आकर उसकी थालीमें एक अंजलि बालू डाल दी और वह हँसने लगा। स्त्री भी हँसने लगी। पतिने पूछा—‘तू क्यों हँसती है?’ स्त्रीने कहा—‘आप हँसते हैं, इसीलिये मैं भी हँसती हूँ। मेरी प्रसन्नताका कारण आपकी प्रसन्नता ही है।’ पतिने कहा—‘मैं तो तेरे मनमें विकार उत्पन्न करनेके लिये हँसता था किन्तु विकार तो उत्पन्न नहीं हुआ।’ स्त्री बोली—‘मुझे इस बातका पता नहीं था कि आप मुझमें विकार देखना चाहते हैं। विकारका होना तो स्वाभाविक ही है; किन्तु आप मुझमें विकार नहीं देखते, यह आपकी ही दया है।’ इस कथनपर पतिको यह निश्चय हो गया कि उसकी स्त्री पतिव्रता है।
जो पुरुष सब प्रकारसे अपने-आपको भगवान् के अर्पण कर देता है, उसकी भी सारी क्रियाएँ पतिव्रता स्त्रीकी भाँति स्वामीके अनुकूल होने लगती हैं। वह अपने इच्छानुसार कोई कार्य कर रहा है परन्तु ज्यों ही उसे पता लगता है कि स्वामीकी इच्छा इससे पृथक् है, उसी क्षण उसकी इच्छा बदल जाती है और वह स्वामीके इच्छानुकूल कार्य करने लगता है। चाहे वह कार्य उसके बलिदानका ही क्यों न हो! वह बड़े हर्षके साथ उसे करता है। स्वामीके पूर्णतया शरण होनेपर तो स्वामीके इशारेमात्रसे ही उनके हृदयका भाव समझमें आने लगता है। फिर तो वह प्रेमपूर्वक आनन्दके साथ उसीके अनुसार कार्य करने लगता है।
दैवयोगसे अपने मनके अत्यन्त विपरीत भारी संकट आ पड़नेपर भी वह उस संकटको—अपने दयामय स्वामीके दयापूर्ण विधानको पुरस्कार समझकर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार करता है।
यह सारा संसार उस नटवरका क्रीडास्थल है, प्रभु स्वयं इसमें बड़ी ही निपुणताके साथ नाट्य कर रहे हैं, उनके समान चतुर खिलाड़ी दूसरा कोई भी नहीं है, यह जो कुछ हो रहा है सब उन्हींका खेल है। उनके सिवा कोई भी ऐसा अद्भुत खेल नहीं कर सकता। इस प्रकार इस संसारकी सम्पूर्ण क्रियाओंको भगवान् की लीला समझकर वह शरणागत भक्त क्षण-क्षणमें प्रसन्न होता रहता है और पग-पगपर प्रभुकी दयाका दर्शन करता रहता है।
यही भगवान् की अनन्य शरण है और यही अनन्य भक्ति है। इस प्रकार भगवान् के शरण होनेसे मनुष्य भगवान् के यथार्थ तत्त्व, रहस्य, गुण, महिमा और प्रभावको जानकर अनायास ही परमपदको प्राप्त हो जाता है।