Seeker of Truth

भगवान् के शीघ्र मिलनेमें भाव ही प्रधान साधन है

संसारमें क्रियाकी अपेक्षा भाव ही प्रधान है। छोटी-से-छोटी क्रिया भी भावकी प्रधानतासे मुक्तितक दे सकती है और उत्तम-से-उत्तम क्रिया भी निम्नश्रेणीका भाव होनेपर नरकमें ले जाती है। जैसे कोई मनुष्य जप, तप, ध्यान, स्तुति, प्रार्थना, पूजा, पाठ, यज्ञ और अनुष्ठान आदि दूसरोंके अनिष्ट या विनाशके लिये करता है तो उसके फलस्वरूप कर्ताको नरककी प्राप्ति होती है। उपर्युक्त अनुष्ठान आदि क्रिया यद्यपि बहुत ही उत्तम है; किंतु भाव तामसी होनेके कारण कर्ताकी अधोगति करनेवाली होती है। भगवान् कहते हैं—

जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा:।।
(गीता १४। १८)

‘तमोगुणके कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित तामस पुरुष अधोगतिको अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियोंको तथा नरकोंको प्राप्त होते हैं।’ जब यही उत्तम क्रिया स्त्री, धन, पुत्र आदिकी प्राप्तिके लिये अथवा रोगनिवृत्तिके लिये की जाती है, तब राजसी भाव होनेके कारण उससे मध्यम गति प्राप्त होती है। सारांश यह कि जिस-जिस भावनासे क्रिया की जाती है, उस-उसकी ही प्राप्ति होती है। उपर्युक्त उत्तम क्रिया ही जब कर्तव्य समझकर निष्काम प्रेमभावसे भगवदर्थ की जाती है, तब उसका फल अन्त:करणकी शुद्धि होकर भगवान् की प्राप्ति होती है। इस प्रकार एक ही क्रिया भावके कारण उत्तम, मध्यम और अधम फल देनेवाली होती है। एक निम्नश्रेणीकी क्रिया है; किंतु भाव यदि उच्चकोटिका है तो वह भी मुक्ति प्रदान करनेवाली हो जाती है। जैसे माता-पिता, गुरुजनोंके रूपमें बच्चोंका शिक्षण और पालन करना, उनके मल-मूत्रकी सफाई करना, डॉक्टरके रूपमें चीर-फाड़ करना, सड़क आदिकी सफाई करना, जलानेके लिये लकड़ियोंका बोझ ढोना, वस्तुओंका न्याययुक्त क्रय-विक्रय करना, भृत्य तथा सेवाका काम करना—यहाँतक कि गंदगी मिटानेके लिये टट्टी-पेशाब साफ करना—इत्यादि जो निम्नश्रेणीकी क्रियाएँ हैं, ये सब भी कर्तव्य समझकर निष्काम प्रेमभावसे की जायँ तो इनके फलस्वरूप अन्त:करणकी शुद्धि होकर परमात्माकी प्राप्तितक हो सकती है; और यही क्रियाएँ सकामभावसे की जायँ तो इनसे अर्थकी सिद्धि होती है।

कहा जाता है, भीलनी शबरी मार्गपर झाड़ू लगाया करती तथा कूड़ा-कर्कट, काँटे आदि साफ किया करती एवं जंगलसे लकड़ियाँ इकट्ठी करके ऋषि-मुनियोंके आश्रमोंके पास रख दिया करती थी। यह देखनेमें नीची श्रेणीका काम दीख पड़ता है; किंतु वह निष्कामभावसे कर्तव्य समझकर करती थी; इसलिये उसका भाव उत्तम होनेसे उसका अन्त:करण शुद्ध होकर उसे भगवत्प्राप्ति हो गयी।

पद्मपुराणमें कथा आती है—जब नरोत्तम ब्राह्मण तुलाधार वैश्यके यहाँ गया, उस समय तुलाधार ग्राहकोंको माल बेचनेमें लगा था। इस कारण उसने कहा कि ‘अभी मुझे अवकाश नहीं है। ग्राहकोंकी यह भीड़ एक पहर रात्रि बीतनेतक रहेगी, उसके बाद ही मुझे अवकाश मिल सकता है। यदि आप इतनी देर न रुक सकें तो आप सज्जन अद्रोहकके पास जाइये; आपके द्वारा जो बगुला मर गया और आपकी धोती आकाशमें सूखनी बंद हो गयी, इन सबका रहस्य आपको आगे मालूम हो जायगा।’ भगवान् ने, जो कि ब्राह्मणके रूपमें नरोत्तमके साथ-साथ चल रहे थे, कहा—‘चलो, हम सज्जन अद्रोहकके पास चलें।’ यों कह वे वहाँसे सज्जन अद्रोहकके पास जाने लगे; तब रास्तेमें नरोत्तमने उनसे पूछा कि ‘तुलाधारने मेरे द्वारा बगुलेके भस्म होनेकी बात कैसे जानी?’ भगवान् ने बतलाया कि यह क्रय-विक्रयमें सबके साथ सत्य तथा सम व्यवहार करता है, इसीसे इसे तीनों कालोंका ज्ञान है। इसी कारण उस तुलाधारके घरमें भगवान् ब्राह्मणके रूपमें निवास करते थे और अन्तमें वह तुलाधार वैश्य विमानमें बैठकर भगवान् के साथ परम धाममें चला गया।

यहाँ विचारना यह है कि तुलाधार वैश्यकी रस आदि क्रय-विक्रय रूप क्रिया तो देखनेमें निम्नश्रेणीकी है; परंतु स्वार्थत्याग, सचाई, ईमानदारी और समताके व्यवहारके कारण वही क्रिया इतनी उच्च हो गयी कि उसे परमपद प्राप्त करानेवाली सिद्ध हुई।

इससे यही बात सिद्ध होती है कि भाव ही प्रधान है, क्रिया नहीं। इसलिये हमें उचित है कि हम जब कभी कोई क्रिया करें, उसे उत्तम-से-उत्तम भावसे करें।

जब नीची-से-नीची क्रिया भी उत्तम-से-उत्तम गति प्राप्त करा सकती है, तब फिर जहाँ क्रिया भी उत्तम-से-उत्तम हो और भाव भी उत्तम-से-उत्तम हो, वहाँ तो कहना ही क्या है। इसी भावको समझनेके लिये निम्नलिखित एक कहानी है—

भगवान् का एक भक्त साधक था। वह एक पीपलके वृक्षके नीचे रहकर भजन-ध्यान, गीता-पाठ, साधु-सेवा, तप और उपवास आदि किया करता था। एक समय वहाँ देवर्षि नारदजी पधारे। साधकने उनकी बहुत सेवा-शुश्रूषा की। तदनन्तर जब नारदजी जाने लगे, तब उसने नारदजीसे पूछा, ‘भगवन्! आप कहाँ जा रहे हैं?’ नारदजीने बतलाया, ‘मैं भगवान् के पास वैकुण्ठमें जा रहा हूँ।’ उसने नारदजीके चरणोंमें सिर नवाया और हाथ जोड़कर उत्सुकतापूर्वक दीनभावसे प्रार्थना की कि ‘क्या आप मेरे लिये भी भगवान् से यह पूछ लेंगे कि मुझे उनके दर्शन कब होंगे?’ नारदजीने कहा—‘क्यों नहीं, जरूर पूछकर तुझे उत्तर दूँगा।’ इतना कह नारदजी वहाँसे चल दिये और बड़े प्रेमसे भगवान् के नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए वैकुण्ठधाम पहुँचे।

भगवान् ने पूछा—‘नारद! तुम कहाँसे आ रहे हो?’ नारदजीने कहा—‘एक वृक्षके नीचे आपका एक भक्त आपके भजन-ध्यान और तपस्यामें संलग्न है, अभी मैं वहींसे आ रहा हूँ। भगवन्! उसकी सेवा-पूजा, भजन-ध्यान और तपस्या प्रशंसाके योग्य है। प्रभो! उसने मेरे द्वारा आपसे यह पुछवाया है कि उसे आपके दर्शन कब होंगे।’ भगवान् बोले—‘नारद! यह बात तुम मत पूछो।’ नारदजीकी उत्सुकता और बढ़ी। उन्होंने कहा—‘क्यों नहीं भगवन्?’ भगवान् ने उत्तर दिया—‘नारद! वह जिस प्रकार भजन-ध्यान, सेवा-शुश्रूषा और तपस्या कर रहा है, उस प्रकार करते रहनेपर तो उसे मेरे दर्शन होनेमें बहुत विलम्ब होगा। इस प्रकार साधन करनेपर तो उसे उस पीपलके वृक्षके जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों बाद मेरे दर्शन होंगे।’ भगवान् की यह बात सुनकर नारदजी सहम गये, उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और वे बोले—‘भगवन्! वह तो बहुत ही तीव्रतासे सेवा-शुश्रूषा, जप-ध्यान, तपस्या आदि कर रहा है; फिर उसके लिये इतना विलम्ब क्यों?’ भगवान् ने कहा—‘नारद! तुम इसका रहस्य नहीं समझते; मैं जो कुछ कहता हूँ, वही उससे कह देना।’ तदनन्तर नारदजीने भगवान् से और भी भक्ति, प्रेम, ज्ञान, वैराग्य-सम्बन्धिनी चर्चा की।

फिर नारदजी वहाँसे लौटकर उसी पीपलके वृक्षके नीचे बैठे उस भक्तके पास पहुँचे। नारदजीको देखते ही भक्त उनके चरणोंमें गिर पड़ा और बड़ी व्यग्रतासे पूछने लगा—‘प्रभो! क्या मेरी भी चर्चा वहाँ चली थी?’ उसकी व्याकुलताभरी बात सुनकर नारदजी मुग्ध हो गये और बोले—‘तुम्हारा प्रसंग चला तो था, किंतु कहनेमें संकोच होता है।’ भक्तने कहा—‘भगवन्! संकोच किस बातका है? क्या भगवान् ने साफ इन्कार कर दिया? क्या इस जन्ममें मुझे भगवान् नहीं मिलेंगे? जो भी हो, आप मुझे बतलाइये तो सही। आप संकोच न करें, मुझे इससे कोई दु:ख नहीं होगा।’

उसके आग्रह करनेपर नारदजीने सारी बात ज्यों-की-त्यों बतला दी और कहा—‘अन्तमें भगवान् ने तुम्हारे लिये यही कहा है कि इस प्रकार साधन करते-करते इस पीपलके वृक्षके जितने पत्ते हैं, उतने वर्षों बाद मेरे दर्शन होंगे।’ इतना सुनते ही वह भक्त आश्चर्यचकित हो गया और करुणाभावपूर्वक गद्‍गद वाणीसे कहने लगा—‘क्या मुझ-जैसे अधमको भगवान् के दर्शन होंगे? क्या यह बात भगवान् ने अपने श्रीमुखसे कही है? अहा! जब कभी हो, मुझे भगवान् के दर्शन तो अवश्य ही होंगे!’ नारदजी बोले—‘होंगे तो सही, क्योंकि भगवान् ने स्वयं अपने मुखसे कहा है; किंतु होंगे बहुत ही विलम्बसे।’ यह सुनकर कि ‘भगवान् के दर्शन अवश्य होंगे’ उस भक्तके आनन्दका ठिकाना नहीं रहा। उसका भाव एकदम बदल गया। वह आनन्दविह्वल होकर प्रेमार्द्रभावसे भगवान् के नाम और गुणोंका कीर्तन करता हुआ उन्मत्तकी भाँति नाचने लगा। आनन्द और प्रेममें वह इतना निमग्न हो गया कि उसे अपने तनकी भी सुधि नहीं रही। फिर विलम्ब ही क्या था! भगवान् उसी क्षण वहाँ प्रकट हो गये।

भगवान् को देखकर नारदजी अवाक् रह गये। उन्होंने पूछा—‘भगवन्! आप तो कहते थे कि इस प्रकार साधन करते-करते, इस वृक्षके जितने पत्ते हैं, उतने वर्षोंमें मेरे दर्शन होंगे। परंतु वर्षोंकी बात तो दूर रही, अभी तो एक मुहूर्त भी नहीं बीत पाया है कि आप प्रकट हो गये।’ भगवान् बोले—‘नारद! वह बात दूसरी थी और यह बात ही दूसरी है। मैंने तुमसे कहा था न कि तुम इसके रहस्यको नहीं जानते।’ नारदजीने कहा—‘प्रभो! इसका क्या रहस्य है, वह मुझे बतलाइये।’ भगवान् बोले—‘नारद! उस समय तो इसके साधनमें क्रियाकी ही प्रधानता थी, किंतु अब इस समय तो इसमें क्रियाके साथ ही भावकी भी प्रधानता है। साधुओंकी सेवा-शुश्रूषा, व्रत-उपवास, तपस्या, गीता-पाठ, सत्पुरुषोंका संग, स्वाध्याय और भजन-ध्यान आदि साधनरूप मेरी भक्ति करना बहुत ही उत्तम क्रिया है। इन सब क्रियाओंके साथ जबतक अनन्य प्रेमभाव नहीं होता, तबतक उसके लिये विलम्ब होना उचित ही है। जब भक्त अपनेको भुलाकर अनन्य प्रेमभावमें मुग्ध होकर केवल मेरे भजन-कीर्तनमें ही निमग्न हो जाता है, तब मैं एक क्षण भी नहीं रुक सकता। इस समय इसका जो अपूर्व पवित्र प्रेमपूर्ण भाव है, उसकी ओर तो देखो; उस समय क्रिया उत्तम रहते हुए भी इसका ऐसा भाव नहीं था। इसीलिये मैंने यह कहा था कि इस प्रकारका साधन करनेपर तो उस वृक्षके जितने पत्ते हैं, उतने वर्षोंके बाद मेरे दर्शन होंगे।’ इस रहस्यको सुनकर नारदजी भी प्रेमविह्वल हो गये और भावावेशमें अपनी सारी सुध-बुध भूलकर भगवान् के नाम और गुणोंका कीर्तन करते हुए उद्दाम नृत्य करने लगे।

दोनों भक्तोंकी इस प्रेममयी स्थितिसे स्वयं भगवान् भी प्रेममग्न हो गये। उनकी भी वैसी ही स्थिति हो गयी। भगवान् की तो यह प्रतिज्ञा ही ठहरी—

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
(गीता ४। ११)

‘जो भक्त मुझे जिस प्रकार भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूँ।’

यों कुछ समयतक विचित्र प्रेमराज्यकी प्रगाढ़ स्थितिमें रहनेके अनन्तर तीनोंको जब बाह्य चेतना हुई, तब वे प्रेममें मुग्ध हुए परस्पर बातचीत करने लगे। तदनन्तर भगवान् उस भक्तके साथ विमानमें बैठकर परम धाममें पधार गये और नारदजी प्रेममें विभोर होकर भगवद्गुणानुवाद गाते हुए अपने गन्तव्य स्थानकी ओर चल दिये।

इस प्रसंगसे हमें यह शिक्षा लेनी चाहिये कि समस्त क्रियाओंमें भगवान् की भक्ति उत्तम है तथा उस भक्तिके साथ निष्काम और अनन्य प्रेमभावका समावेश होनेपर फिर भगवान् के मिलनमें एक क्षणका भी विलम्ब नहीं होता। इसलिये उपर्युक्त प्रकारसे निष्काम अनन्य प्रेमभावपूर्वक ही निरन्तर भजन-ध्यानादि उत्तम क्रिया करनी चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur