Seeker of Truth

भगवान् अवतार कब लेते हैं?

वर्तमानके भीषण समयमें अनेक प्रकारके अत्याचारोंको फैलते देखकर धार्मिक जगत् में एक प्रकारकी हलचल-सी हो रही है। इस प्रकार पापोंका प्रसार देखकर सहज ही सहृदय मनुष्यके हृदयमें एक प्रश्न उठ जाता है।

प्रश्न—भगवान् अवतार कब लेते हैं? वर्तमानमें इतने अत्याचारोंके होते हुए भी भगवान् प्रकट क्यों नहीं होते? क्या गीतामें की हुई प्रतिज्ञा ठीक नहीं है?

उत्तर—गीतामें भगवान् ने जो प्रतिज्ञा की है वह निश्चय ही ठीक है। अभी अवतार लेनेका समय नहीं आया। नहीं तो भगवान् अवश्य ही अवतार ले लेते। भगवान् स्वयं कहते हैं—

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
(गीता ४। ७-८)

‘हे भारत! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने रूपको रचता हूँ अर्थात् साकाररूपसे लोगोंके सम्मुख प्रकट होता हूँ। साधु-पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पापकर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।’

जब-जब पूर्वकालमें भगवान् ने अवतार लिया है उस समयकी परिस्थितिका आप जरा-सा विचार करें तो पता लग सकता है कि उस समय कितना पापपूर्ण और भीषण समय था। सत्ययुगमें हिरण्यकशिपुके राज्यमें ऐसी राजाज्ञा थी कि जो धर्माचरण और हरिकी भक्ति करे उसे फाँसी दे दो, हरिका नाम भी कोई न लेने पावे। इस प्रकारकी राजाज्ञा राजाके स्वपुत्र प्रह्लादने न मानी तो उसे भी घोर दण्ड दिया गया। एक दिन हिरण्यकशिपुने प्रह्लादको गोदमें बैठाकर पूछा—बेटा! तूने क्या पढ़ा है, जरा मुझे सुना। प्रह्लादने कहा—पिताजी! मैंने जो पढ़ा है वह सुनिये—

श्रवणं कीर्तनं विष्णो: स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम्॥
(श्रीमद्भा० ७।५।२३)

‘भगवान् विष्णुके नाम और गुणोंका श्रवण एवं कीर्तन करना, भगवान् के गुण, प्रभाव, लीला और स्वरूपका स्मरण करना, भगवान् के चरणोंकी सेवा करना, भगवान् के विग्रहका पूजन करना और उनको नमस्कार करना, दास-भावसे आज्ञाका पालन करना, सखा-भावसे प्रेम करना और सर्वस्वसहित अपने-आपको समर्पण करना।’ ऐसी बात सुनकर हिरण्यकशिपु चौंक पड़ा और उसने पूछा—यह बात तुझे किसने सिखायी? मेरे राज्यमें मेरे परम शत्रु विष्णुकी भक्तिका उपदेश देकर मेरे हाथसे कौन मृत्युमुखमें जाना चाहता है? प्रह्लाद बोला—

शास्ता विष्णुरशेषस्य जगतो यो हृदि स्थित:।
तमृते परमात्मानं तात क: केन शास्यते॥
(विष्णुपुराण १।१७।२०)

‘हे पिताजी! हृदयमें स्थित भगवान् विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत् के उपदेशक हैं। हे तात! उन परमात्माको छोड़कर और कौन किसको कुछ सिखा सकता है।’

न केवलं मद्‍धृदयं स विष्णु-
राक्रम्य लोकानखिलानवस्थित:।
स मां त्वदादींश्च पितस्समस्तान्
समस्तचेष्टासु युनक्ति सर्वग:॥
(विष्णुपुराण १।१७।२६)

‘पिताजी! वे विष्णुभगवान् केवल मेरे ही हृदयमें नहीं बल्कि सम्पूर्ण लोकोंमें स्थित हैं। वे सर्वगामी तो मुझको, आप सबको और समस्त प्राणियोंको अपनी-अपनी चेष्टाओंमें प्रवृत्त करते हैं।’

ऐसी बातें सुनकर तो राक्षसराजका क्रोध अत्यन्त भड़क गया और वह भक्त प्रह्लादको भयानक त्रास देने लगा। हरिनाम लेनेवाले प्रह्लादको विष पिलाया गया, पर्वतसे गिराया गया, सर्पोंसे डसाया गया, आगमें जलाया गया इत्यादि अनेक प्रकारसे राक्षसोंने जबरदस्ती जोर-जुल्म ढहाये, किन्तु उसका कुछ भी अनिष्ट न कर सके—

जाको राखै साइयाँ, मारि सकै नहिं कोय।
बार न बाँका करि सकै, जो जग बैरी होय॥
कहा करै बैरी प्रबल, जो सहाय रघुबीर।
दस हजार गजबल घटॺो, घटॺो न दस गज चीर॥

प्रबल शत्रु सामने हो तो भी सारे संसारका वार खाली चला जाता है, उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता। भक्तपर अत्यन्त अत्याचार होनेपर अन्तमें खम्भेमेंसे प्रह्लादके प्यारे परम प्रभुको प्रकट होना ही पड़ा।

प्रेम बदौं पहलादहिको जिन पाहनतें परमेसुर काढ़ो।

यद्यपि उस समय लोग तो धर्मका पालन करना चाहते थे परन्तु धर्मकार्योंमें अनेक प्रकारसे बलात् बाधाएँ डाली जाती थीं। वर्तमान समयमें लोग स्वत: ही धर्मका त्याग कर रहे हैं। यदि कोई धर्मपालन करे तो उसमें जबरन् बाधा नहीं दी जाती है।

त्रेतामें देखिये—सुबाहु और मारीच यज्ञोंको ध्वंस कर देते थे। मुनियोंको खा जाते थे। इतना ही नहीं, अनेक राक्षस घोर अत्याचार करने लगे थे। आजकल जहाँ-तहाँ पशुओंकी हड्डियोंके ढेर देखे जाते हैं। परन्तु रामायणको देखनेसे मालूम होता है कि उस समय तो फलमूलाहारी तपस्वी ऋषि-मुनियोंके मांस-मज्जाको राक्षसोंने भक्षण करके उनकी हड्डियोंका ढेर लगा दिया था।

अस्थि समूह देखि रघुराया।
पूछी मुनिन्ह लागि अति दाया॥
जानतहूँ पूछिअ कस स्वामी।
सबदरसी तुम्ह अंतरजामी॥
निसिचर निकर सकल मुनि खाए।
सुनि रघुबीर नयन जल छाए॥
निसिचर हीन करउँ महि भुज उठाइ पन कीन्ह।
सकल मुनिन्ह के आश्रमन्हि जाइ जाइ सुख दीन्ह॥
(रामचरितमानस, अरण्यकाण्ड)

तब उस समय मनुष्यके रूपमें श्रीरामचन्द्रका अवतार हुआ। वैसा घोर समय अब नहीं है। जब-जब धर्मकी हानि और पापकी वृद्धि होती है, तब-तब भगवान् प्रकट होते हैं। (सत्य, न्याय आदि सब धर्मके ही नाम हैं।) धर्म परमेश्वरका स्वरूप है। भगवान् स्वयं कहते हैं—

ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥
(गीता १४।२७)

‘हे अर्जुन! उस अविनाशी परब्रह्मका और अमृतका तथा नित्यधर्मका और अखण्ड एकरस आनन्दका मैं ही आश्रय हूँ अर्थात् उपर्युक्त ब्रह्म, अमृत, अव्यय और शाश्वतधर्म तथा ऐकान्तिक सुख, यह सब मेरे ही नाम-रूप हैं, इसलिये इनका मैं परम आश्रय हूँ।’

लोककी स्थिति धर्मकी भित्तिपर ही ठहरी हुई है—

धर्मेण धार्यते पृथ्वी धर्मेण तपते रवि:।
धर्मेण वाति वायुश्च सर्वं धर्मे प्रतिष्ठितम्॥

‘धर्मसे ही पृथ्वी ठहरी हुई है, धर्मसे ही सूर्य तप रहा है, धर्मसे ही वायु चल रहा है—सारा संसार धर्मसे ही प्रतिष्ठित है अर्थात् सबका आधार धर्म ही है।’

वेद भी अनादि है—इसका यह अर्थ नहीं कि वेदकी पुस्तकें अनादि हैं; परन्तु उसकी शिक्षा यानी उपदेश अनादि है। जैसे ‘सत्यं वद’ ‘धर्मं चर’—‘सत्य बोलो’, ‘धर्माचरण करो’ इत्यादि यह शिक्षा अनादि, सर्वव्यापक और सर्वमान्य है।

अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह, शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान इत्यादि श्रुति-स्मृति प्रतिपादित विधिवाक्य धर्म हैं। धर्मका त्याग करके अनीति करनेवाला अन्तमें नष्ट हो ही जाता है। कंस, रावणादि अनीतिके कारण अन्तमें नष्ट हो गये।

वर्तमान काल अवतार लेने लायक है या नहीं, इसका निर्णय तो प्रभु ही कर सकते हैं। यह बुद्धिसे अतीत विषय है तथापि मनुष्य अपनी-अपनी बुद्धिके अनुसार कुछ अनुमान लगा ही लिया करते हैं सो मेरी साधारण बुद्धिके अनुसार तो यह समझमें आता है कि वर्तमान कालमें पापोंकी वृद्धि और धर्मका क्षय स्वाभाविक होते हुए भी ऐसा घोर समय अभी नहीं आया है कि जिसके कारण भगवान् को अवतार लेना पड़े। इस समय कलियुगके कारण पापाचार बढ़ रहा है तो भी मनुष्य प्रयत्न करनेसे भगवान् को उनकी कृपासे प्राप्त कर सकता है।

भगवान् के दो स्वरूप हैं—निर्गुण और सगुण। उनका वह निर्गुण स्वरूप बुद्धि और इन्द्रियोंसे अतीत है। सगुण स्वरूप बुद्धि और नेत्रोंका भी विषय है, उसे हम देख सकते हैं। सगुणके भी दो भेद हैं—साकार और निराकार। जो सच्चिदानन्दस्वरूपसे सर्वत्र व्यापक है वह सगुण निराकार स्वरूप है। जिस प्रकार सर्वत्र फैले हुए बिजलीके तारमें बिजलीका प्रवाह सदा सर्वव्यापक रहता है वैसे ही भगवान् न दीखनेपर भी सदा सर्वत्र विराजमान हैं। इसे सूक्ष्मदर्शी पुरुष अपनी तीक्ष्ण निर्मल बुद्धि द्वारा अनुभव करते हैं—

दृश्यते त्वग्रॺया बुद्‍ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभि:।
(कठ० १।३।१२)

‘यह आत्मा सूक्ष्मदर्शी पुरुषोंद्वारा अपनी तीव्र और सूक्ष्म बुद्धिसे ही देखा जाता है।’

परंतु सगुण साकारको तो हम अपने नेत्रोंके सामने प्रकट भी देख सकते हैं।

निर्गुणकी उपासनासे गुणातीत ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। यों तो गुणातीतका वर्णन नित्य, ज्ञान, अनन्त आदि शब्दोंसे किया गया है पर वास्तवमें उसका स्वरूप वाणीद्वारा नहीं बताया जा सकता, वह तो अचिन्त्य और अनिर्वचनीय है। अन्तमें वेद भी ‘नेति-नेति’ कहकर ही बतलाता है। वह अनुमान प्रमाणसे भी नहीं जाना जा सकता, केवल अनुभवरूप ही है। क्योंकि समस्त प्रमाण उस ब्रह्मके सकाशसे ही सिद्ध होते हैं। श्रुति कहती है—

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥
यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्।
तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥
(केन० १।४-५)

इत्यादि।

‘जिसे वाणी प्रकाशित नहीं कर सकती, किंतु जिसके सकाशसे वाणी प्रकाशित होती है, उसे ही तू ब्रह्म जान; यह नाम-रूपात्मक दृश्य जिसकी अविवेकी लोग उपासना करते हैं वह ब्रह्म नहीं है। जिसे मन मनन नहीं कर सकता, किंतु जिसके द्वारा मनको मनन किया हुआ बतलाते हैं, उसे ही तू ब्रह्म जान; यह नाम-रूपात्मक दृश्य जिसकी अविवेकी लोग उपासना करते हैं, वह ब्रह्म नहीं है।’

अतएव वह ब्रह्म स्वत:सिद्ध है। ब्रह्म ही जब शुद्ध सत्त्वविशिष्ट होता है, तभी वह बुद्धिद्वारा समझनेमें आ सकता है और साकाररूपसे प्रकट होनेपर नेत्रोंद्वारा भी देखा जा सकता है। भगवान् अपना साकाररूपसे प्रकट होना इस प्रकार बतलाते हैं—

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
(गीता ४।६)

‘हे अर्जुन! मेरा जन्म प्राकृत मनुष्योंके सदृश नहीं है। मैं अजन्मा और अविनाशीस्वरूप होते हुए भी, सम्पूर्ण प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।’

ऐसा कहनेपर भी जो सगुण भगवान् के तत्त्वको नहीं जानते अर्थात् भगवान् कृष्णको ईश्वर नहीं मानते उनके लिये भगवान् कहते हैं—

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥
(गीता ९।११)

‘मेरे परम भावको न जाननेवाले मूढ़लोग मनुष्यका शरीर धारण करनेवाले मुझ सम्पूर्ण भूतोंके महान् ईश्वरको तुच्छ समझते हैं, अर्थात् अपनी योगमायासे संसारके उद्धारके लिये मनुष्यरूपमें विचरते हुए मुझ परमेश्वरको साधारण मनुष्य मानते हैं।’

इसलिये भगवान् के साकारतत्त्वको भी जानना चाहिये। जो भगवान् के साकारतत्त्वको जानता है उसके लिये भगवान् कहते हैं—

जन्म कर्म च मे दिव्यमेवं यो वेत्ति तत्त्वत:।
त्यक्त्वा देहं पुनर्जन्म नैति मामेति सोऽर्जुन॥
(गीता ४।९)

‘हे अर्जुन! मेरे जन्म और कर्म दिव्य अर्थात् निर्मल और अलौकिक हैं—इस प्रकार जो मनुष्य तत्त्वसे जान लेता है, वह शरीरको त्यागकर फिर जन्म ग्रहण नहीं करता; किंतु मुझे ही प्राप्त होता है।’

प्रश्न—यहाँ तत्त्वसे जानना क्या है?

उत्तर—भगवान् का जन्म असाधारण है, स्वतन्त्र है, वे मायाके स्वामी बनकर आते हैं—

प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
(गीता ४।६)

‘अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ।’

प्रभुका शरीर अनामय है अर्थात् सारे रोग और विकारोंसे रहित दिव्य है। हमारा जन्म सुख-दु:ख भोगनेके लिये हुआ करता है; परन्तु प्रभु साधुओंकी रक्षा, दुष्टोंका नाश और धर्मकी स्थापना करनेके लिये प्रकट होते हैं।

वे अपनी दिव्य विभूतियोंके सहित योगमायासे अवतरित होते हैं। भक्तिके द्वारा देखे और जाने जाते हैं। अब भी भक्तिद्वारा भगवान् प्रकट हो सकते हैं। भगवान् ने कहा भी है—

भक्त्या त्वनन्यया शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन।
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन प्रवेष्टुं च परंतप॥
(गीता ११।५४)

‘परंतु हे परंतप अर्जुन! अनन्य भक्तिके द्वारा इस प्रकार चतुर्भुजरूपवाला मैं प्रत्यक्ष देखनेके लिये, तत्त्वसे जाननेके लिये तथा प्रवेश करनेके लिये अर्थात् एकीभावसे प्राप्त होनेके लिये भी शक्य हूँ।’

भक्तिके द्वारा सब कुछ हो सकता है। साकार भगवान् नेत्रोंसे देखे जाते हैं, सगुण निराकार बुद्धिद्वारा समझे जाते हैं और निर्गुण निराकार अनुभवसे प्राप्त किये जाते हैं। ज्ञानरूप नेत्रोंवाले ज्ञानीजन ही भगवान् को तत्त्वसे जान सकते हैं। कृष्णावतारके समय उनका साक्षात् दर्शन बहुतोंने किया था परंतु उन्हें तत्त्वसे जाननेवाले थोड़े ही थे। भगवान् जन्मते-मरते हुए-से प्रतीत होते हैं पर वास्तवमें वह उनका अवतरण और तिरोभाव है, जन्मना-मरना नहीं है। जैसे अग्नि सर्वत्र व्याप्त है पर चेष्टा करनेसे चाहे जहाँ प्रज्वलित हो जाती है और अन्तमें विलीन हो जाती है, परंतु न दीखनेपर भी वहाँ वस्तुत: अग्निका अभाव नहीं होता। उसी प्रकार भगवान् भी सर्वत्र व्याप्त होते हुए प्रकट और अन्तर्धान हो जाते हैं। भगवान् की शारीरिक धातु चिन्मय और दिव्य है, प्राकृतिक नहीं है। देखनेमें नरवपु धारणकर नरलीला करते हुए प्राकृतिककी-ज्यों दीख पड़ते हैं।

सर्वशक्तिमान् पूर्णब्रह्म, परमेश्वर वास्तवमें जन्म और मृत्युसे सर्वथा अतीत हैं। उनका जन्म जीवोंकी भाँति नहीं है; वे अपने भक्तोंपर अनुग्रह करके अपनी दिव्य लीलाओंके द्वारा उनके मनको अपनी ओर आकर्षित करनेके लिये दर्शन, स्पर्श और भाषणादिके द्वारा उनको सुख पहुँचानेके लिये, संसारमें अपनी दिव्य कीर्ति फैलाकर उसके श्रवण, कीर्तन और स्मरणद्वारा लोगोंके पापोंका नाश करनेके लिये तथा जगत् में पापाचारियोंका विनाश करके धर्मकी स्थापना करनेके लिये जन्म-धारणकी केवल लीलामात्र करते हैं। उनका वह जन्म निर्दोष और अलौकिक है, जगत् का कल्याण करनेके लिये ही भगवान् इस प्रकार मनुष्यादिके रूपमें लोगोंके सामने प्रकट होते हैं; उनका वह विग्रह प्राकृत उपादानोंसे बना हुआ नहीं होता—वह दिव्य, चिन्मय, प्रकाशमान, शुद्ध और अलौकिक होता है; इनके जन्ममें गुण और कर्म-संस्कार हेतु नहीं होते; वे मायाके वशमें होकर जन्म धारण नहीं करते; किंतु अपनी प्रकृतिके अधिष्ठाता होकर योगमायासे मनुष्यादिके रूपमें केवल लोगोंपर दया करके ही प्रकट होते हैं—इस बातको भलीभाँति समझ लेना अर्थात् इसमें किंचिन्मात्र भी असम्भावना और विपरीत भावना न रखकर पूर्ण विश्वास करना और साकाररूपमें प्रकट भगवान् को साधारण मनुष्य न समझकर सर्वशक्तिमान्, सर्वेश्वर, सर्वान्तर्यामी, साक्षात् सच्चिदानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा समझना भगवान् के जन्मको तत्त्वसे दिव्य समझना है। इस अध्यायके छठे श्लोकमें यही बात समझायी गयी है। सातवें अध्यायके २४ वें और २५ वें श्लोकोंमें और नवें अध्यायके ११ वें तथा १२ वें श्लोकोंमें इस तत्त्वको न समझकर भगवान् को साधारण मनुष्य समझनेवालोंकी निन्दा की गयी है एवं दसवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें इस तत्त्वको समझनेवालेकी प्रशंसा की गयी है।

जो पुरुष इस प्रकार भगवान् के जन्मकी दिव्यताको तत्त्वसे समझ लेता है, उसके लिये भगवान् का एक क्षणका वियोग भी असह्य हो जाता है। भगवान् में परम श्रद्धा और अनन्यप्रेम होनेके कारण उसके द्वारा भगवान् का अनन्यचिन्तन होता रहता है।

प्रश्न-इनके कर्मोंमें क्या दिव्यता है?

उत्तर-भगवान् के कर्म अहंकार और स्वार्थके बिना केवल लोकहितके लिये ही होते हैं। भगवान् स्वयं कहते हैं—

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
(गीता ३।२२)

‘हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है, तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ।’

किन्तु—

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
(गीता ४।१४)

‘कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है; इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते—इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता।’

भगवान् के सारे कर्म लीलामय होते हैं। उनके कर्मोंसे लोगोंको नीति, धर्म और प्रेमका उपदेश मिलता रहता है, भगवान् सृष्टि-रचना और अवतार-लीलादि जितने भी कर्म करते हैं, उनमें उनका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं है; केवल लोगोंपर अनुग्रह करनेके लिये ही वे मनुष्यादि अवतारोंमें नाना प्रकारके कर्म करते हैं (३।२२-२३)। भगवान् अपनी प्रकृतिद्वारा समस्त कर्म करते हुए भी उन कर्मोंके प्रति कर्तृत्वभाव न रहनेके कारण वास्तवमें न तो कुछ करते हैं और न उनके बन्धनमें पड़ते हैं; भगवान् की उन कर्मोंके फलमें किंचिन्मात्र भी स्पृहा नहीं होती (४। १३-१४)। भगवान् के द्वारा जो कुछ भी चेष्टा होती है, लोकहितार्थ ही होती है (४। ८)। उनके प्रत्येक कर्ममें लोगोंका हित भरा रहता है। वे अनन्तकोटि ब्रह्माण्डोंके स्वामी होते हुए भी सर्वसाधारणके साथ अभिमानरहित दया और प्रेमपूर्ण समताका व्यवहार करते हैं (९। २९); जो कोई मनुष्य जिस प्रकार उनको भजता है, वे स्वयं उसे उसी प्रकार भजते हैं (४। ११); अपने अनन्य भक्तोंका योगक्षेम भगवान् स्वयं चलाते हैं (९। २२), उनको दिव्य ज्ञान प्रदान करते हैं (१०। १०-११) और भक्तिरूपी नौकापर बैठे हुए भक्तोंका संसार-समुद्रसे शीघ्र ही उद्धार करनेके लिये स्वयं उनके कर्णधार बन जाते हैं (१२। ७)। इस प्रकार भगवान् के समस्त कर्म आसक्ति, अहंकार और कामनादि दोषोंसे सर्वथा रहित निर्मल और शुद्ध तथा केवल लोगोंका कल्याण करने एवं नीति, धर्म, शुद्ध प्रेम और न्याय आदिका जगत् में प्रचार करनेके लिये ही होते हैं; इन सब कर्मोंको करते हुए भी भगवान् का वास्तवमें उन कर्मोंसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है, वे उनसे सर्वथा अतीत और अकर्ता हैं—इस बातको भलीभाँति समझ लेना, इसमें किंचिन्मात्र भी असम्भावना या विपरीत भावना न रहकर पूर्ण विश्वास हो जाना ही भगवान् के कर्मोंको तत्त्वसे दिव्य समझना है। इस प्रकार जान लेनेपर उस जाननेवालेके कर्म भी शुद्ध और अलौकिक हो जाते हैं—अर्थात् फिर वह भी सबके साथ दया, समता, धर्म, नीति, विनय और निष्काम प्रेमभावका बर्ताव करता है। जिनका भगवान् में प्रेम और श्रद्धा है वे भगवान् की प्रत्येक लीलामय क्रियाओंसे शिक्षा ग्रहण किया करते हैं और प्रेममें मुग्ध हुआ करते हैं। उनको आदर्श मानकर उनका अनुकरण करनेकी चेष्टा किया करते हैं, इस प्रकार भगवान् के लीलामय कर्मोंसे शिक्षा ग्रहण करके जो उनका अनुकरण करते हैं वे भी कर्मोंसे लिपायमान न होकर परमेश्वरको प्राप्त हो जाते हैं और उनके कर्म भी दिव्य हो जाते हैं।

यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा:॥
(गीता ४।१९)

‘जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निके द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुषको ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।’

फलकामना, आसक्ति और कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर केवल लोकहितार्थ ही जो कर्मोंका करना है यही वास्तवमें भगवान् के कर्मोंको दिव्य समझना है। जिनके कर्म ऐसे नहीं होते, जो भगवान् का अनुकरण नहीं करते, उन्होंने भगवान् के कर्मोंकी दिव्यताको वास्तवमें नहीं समझा; क्योंकि जो भगवान् के कर्मोंकी दिव्यताका तत्त्व समझ लेते हैं उनके भी कर्म फिर दिव्य हो जाते हैं।

पहले भी मोक्षकी इच्छावाले साधकोंने ऐसा समझकर ही कर्मोंका आचरण किया था, उसी प्रकार आसक्ति, फलेच्छा और अभिमान छोड़कर कर्म करनेके लिये भगवान् अर्जुनको आज्ञा देते हुए कर्मोंका तत्त्व इस प्रकार समझाते हैं—

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता:।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्॥
कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मण:।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गति:॥
कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्॥
(गीता ४। १६—१८)

‘कर्म क्या है? और अकर्म क्या है?—इस प्रकार इसका निर्णय करनेमें बुद्धिमान् पुरुष भी मोहित हो जाते हैं। इसलिये वह कर्मतत्त्व मैं तुझे भलीभाँति समझाकर कहूँगा, जिसे जानकर तू अशुभसे अर्थात् कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा। कर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये और अकर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये तथा विकर्मका स्वरूप भी जानना चाहिये; क्योंकि कर्मकी गति गहन है। जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है और वह योगी समस्त कर्मोंको करनेवाला है।’

प्रश्न-कर्ममें अकर्म देखना क्या है? तथा इस प्रकार देखनेवाला मनुष्योंमें बुद्धिमान्, योगी और समस्त कर्म करनेवाला कैसे है?

उत्तर-लोकप्रसिद्धिमें मन, बुद्धि, इन्द्रिय और शरीरके व्यापारमात्रका नाम कर्म है; उनमेंसे जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म हैं उनको कर्म कहते हैं और शास्त्रनिषिद्ध पापकर्मोंको विकर्म कहते हैं। शास्त्रनिषिद्ध पापकर्म सर्वथा त्याज्य हैं, इसलिये उनकी चर्चा यहाँ नहीं की गयी। अत: यहाँ, जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म हैं, उनमें अकर्म देखना क्या है—इस बातपर विचार करना है। यज्ञ, दान, तप तथा वर्णाश्रमके अनुसार जीविका और शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी जितने भी शास्त्रविहित कर्म हैं—उन सबमें आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अहंकारका त्याग कर देनेसे वे इस लोक या परलोकमें सुख-दु:खादि फल भुगतानेके और पुनर्जन्मके हेतु नहीं बनते बल्कि मनुष्यके पूर्वकृत समस्त शुभाशुभ कर्मोंका नाश करके उसे संसार-बन्धनसे मुक्त करनेवाले होते हैं—इस रहस्यको समझ लेना ही कर्ममें अकर्म देखना है। इस प्रकार कर्ममें अकर्म देखनेवाला मनुष्य आसक्ति, फलेच्छा और ममताके त्यागपूर्वक ही कर्तव्यकर्मोंका यथायोग्य आचरण करता है। अत: वह कर्म करता हुआ भी उनसे लिप्त नहीं होता, इसलिये वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है; उसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है, इसलिये वह योगी है; और उसे कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता—वह कृतकृत्य हो जाता है, इसलिये वह समस्त कर्मोंको करनेवाला है।

प्रश्न-अकर्ममें कर्म देखना क्या है? तथा इस प्रकार देखनेवाला मनुष्योंमें बुद्धिमान्, योगी और समस्त कर्म करनेवाला कैसे है?

उत्तर-लोकप्रसिद्धिमें मन, वाणी और शरीरके व्यापारको त्याग देनेका ही नाम अकर्म है; यह त्यागरूप अकर्म भी आसक्ति, फलेच्छा, ममता और अहंकारपूर्वक किया जानेपर पुनर्जन्मका हेतु बन जाता है। इतना ही नहीं, कर्तव्य-कर्मोंकी अवहेलनासे या दम्भाचारके लिये किया जानेपर तो यह विकर्म (पाप) के रूपमें बदल जाता है—इस रहस्यको समझ लेना ही अकर्ममें कर्म देखना है। इस रहस्यको समझनेवाला मनुष्य किसी भी वर्णाश्रमोचित कर्मका त्याग न तो शारीरिक कष्टके भयसे करता है, न राग-द्वेष अथवा मोहवश और न मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा या अन्य किसी फलकी प्राप्तिके लिये ही करता है। इसलिये वह न तो कभी अपने कर्तव्यसे गिरता है और न किसी प्रकारके त्यागमें ममता, आसक्ति, फलेच्छा या अहंकारका सम्बन्ध जोड़कर पुनर्जन्मका ही भागी बनता है, इसीलिये वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है। उसका परम पुरुष परमेश्वरसे संयोग हो जाता है, इसलिये वह योगी है और उसके लिये कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहता, इसलिये वह समस्त कर्म करनेवाला है।

प्रश्न-कर्मसे क्रियमाण, विकर्मसे विविध प्रकारके संचित कर्म और अकर्मसे प्रारब्ध कर्म लेकर कर्ममें अकर्म देखनेका यदि यह अर्थ किया जाय कि क्रियमाण कर्म करते समय यह देखे कि भविष्यमें यही कर्म प्रारब्ध कर्म (अकर्म) बनकर फलभोगके रूपमें उपस्थित होंगे और अकर्ममें कर्म देखनेका यह अर्थ किया जाय कि प्रारब्धरूप फलभोगके समय उन दु:खादि भोगोंको अपने पूर्वकृत क्रियमाण कर्मोंका ही फल समझे और इस प्रकार समझकर पापकर्मोंका त्याग करके शास्त्रविहित कर्मोंको करता रहे, तो क्या आपत्ति है? क्योंकि संचित, क्रियमाण और प्रारब्ध कर्मोंके ये ही तीन भेद प्रसिद्ध हैं?

उत्तर—ठीक है, ऐसा मानना बहुत लाभप्रद है और बड़ी बुद्धिमानी है; किंतु ऐसा अर्थ मान लेनेसे ‘कवयोऽप्यत्र मोहिता:’, ‘गहनाकर्मणो गति:’, ‘यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्’, ‘स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्’, ‘तमाहु: पण्डितं बुधा:’, ‘नैव किंचित्करोति स:’ आदि वचनोंकी संगति नहीं बैठती। अतएव यह अर्थ लाभप्रद होनेपर भी प्रकरणविरुद्ध है।

प्रश्न—कर्ममें अकर्म और अकर्ममें कर्म देखनेवाला साधक भी मुक्त हो जाता है या सिद्ध पुरुष ही इस प्रकार देख सकता है?

उत्तर—मुक्त पुरुषके जो स्वाभाविक लक्षण होते हैं, वे ही साधकके लिये साध्य होते हैं। अतएव मुक्त पुरुष तो स्वभावसे ही इस तत्त्वको जानता है और साधक उनके उपदेशद्वारा जानकर उस प्रकार साधन करनेसे मुक्त हो जाता है। इसीलिये भगवान् ने कहा है कि ‘मैं तुझे कर्म-तत्त्व बतलाऊँगा, जिसे जानकर तू कर्मबन्धनसे छूट जायगा।’

उपर्युक्त प्रकारसे कर्मयोगके तत्त्वको जाननेवाला ही मनुष्योंमें बुद्धिमान् है, योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंका करनेवाला है इसलिये वह इस कर्मरहस्यको समझकर संसारबन्धनसे मुक्त हो जाता है।

इस प्रकारसे कर्मोंका तत्त्व समझकर फल, कामना, आसक्ति और अहंकारको छोड़कर समस्त कर्मोंका करना ही भगवान् के कर्मोंकी दिव्यताको समझना है।

ऊपर बतलाये हुए भगवान् के जन्म और कर्मोंकी दिव्यताके तत्त्वको जाननेवाला पुरुष सारे कर्म और दु:खोंसे छूटकर परमात्माको प्राप्त हो जाता है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur