भगवद्भक्तोंका प्रभाव
भगवान् के भक्त भगवत्स्वरूप ही होते हैं। उनकी मन-बुद्धि लीलामय भगवान् में ओतप्रोत रहती है, और मन एवं बुद्धिद्वारा ही इन्द्रियादिका व्यापार परिचालित होता है। इसलिये भक्तोंके कार्य-कलाप और विचार-व्यापारको भी भगवान् की ही लीलाके तुल्य समझना चाहिये। जैसे भगवान् के धाम, लीला-क्षेत्र आदि तीर्थस्थल हैं, उसी प्रकार भक्तोंके निवासस्थान और कर्म-क्षेत्र भी तीर्थ ही बन जाते हैं। पूज्यपाद गोस्वामीजीके शब्दोंमें—
मुद मंगलमय संत समाजू।
जो जग जंगम तीरथराजू॥
जिस प्रकार ईश्वरके स्वरूपका ध्यान करके साधक मोक्षको प्राप्त होते हैं, उसी प्रकार युधिष्ठिर, प्रह्लाद, शुकदेव, भरत और हनुमान् आदि भक्तोंका ध्यान करनेसे और उनका चिन्तन करनेसे भी साधकका कल्याण हो सकता है।
भरत चरित करि नेमु तुलसी जो सादर सुनहिं।
सीय राम पद पेमु अवसि होइ भव रस बिरति॥
महापुरुषोंके चरित्र, लेखादि सबसे मनुष्योंका उद्धार होता रहता है। भक्तोंका जन्म ही ‘धर्मसंस्थापनार्थाय’ होता है। भगवान् तो कभी-कभी, जब पाप इतना बढ़ जाता है कि पापियोंका विनाश किये बिना काम नहीं चलता, तब अवतार धारण करके आते हैं; पर भक्तजन तो सर्वदा प्रत्येक युगमें प्राप्य रहते हैं। इसीसे किसी अंशमें उनकी भगवान् से भी अधिक महिमा बतायी गयी है। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं—
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा।
राम तें अधिक राम कर दासा॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा।
चंदन तरु हरि संत समीरा॥
कहाँतक कहा जाय, भगवान् स्वयं अपने भक्तोंके अधीन रहते हैं। भक्तराज अम्बरीषपर क्रोध करनेवाले महर्षि दुर्वासा सुदर्शनचक्रके डरसे भागते-भागते जब वैकुण्ठलोकमें श्रीहरिके पास पहुँचे, तब भगवान् ने उनसे कहा—
अहं भक्तपराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज।
साधुभिर्ग्रस्तहृदयो भक्तैर्भक्तजनप्रिय:॥
नाहमात्मानमाशासे मद्भक्तै: साधुभिर्विना।
श्रियं चात्यन्तिकीं ब्रह्मन् येषां गतिरहं परा॥
ये दारागारपुत्राप्तान् प्राणान् वित्तमिमं परम्।
हित्वा मां शरणं याता: कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे॥
मयि निर्बद्धहृदया: साधव: समदर्शना:।
वशीकुर्वन्ति मां भक्त्या सत्स्त्रिय: सत्पतिं यथा॥
साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं त्वहम्।
मदन्यत् ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि॥
(श्रीमद्भा० ९। ४। ६३—६६, ६८)
‘हे द्विज! मैं परतन्त्रके समान भक्तोंके अधीन हूँ। उन साधु भक्तोंने मेरे हृदयपर अधिकार कर लिया है। मैं भी उनका सर्वदा प्रिय हूँ। हे विप्रवर! जिनका मैं ही एकमात्र आश्रय हूँ, अपने उन साधुस्वभाव भक्तोंको छोड़कर तो मैं अपने आत्माकी और अपनी अर्द्धांगिनी विनाशरहिता लक्ष्मीकी भी परवा नहीं करता। जो अपने स्त्री, पुत्र, गृह, प्राण, धन और इहलोक तथा परलोकको छोड़कर मेरी ही शरणमें आ गये हैं, उन भक्तजनोंको मैं छोड़नेका विचार भी कैसे कर सकता हूँ? जैसे पतिव्रता स्त्रियाँ अपने सदाचारी पतिको वशमें कर लेती हैं, वैसे ही अपने हृदयको मुझमें प्रेम-बन्धनसे बाँध रखनेवाले वे समदर्शी साधु पुरुष भक्तिके द्वारा मुझे अपने वशमें कर लेते हैं। संत मेरे हृदय हैं और मैं संतोंका हृदय हूँ। वे मेरे सिवा और किसीको नहीं जानते और मैं उनके सिवा कुछ भी नहीं जानता।’
भगवान् प्रेमके कारण भक्तोंके पीछे-पीछे घूमा करते हैं। उनके सुख-दु:खमें अपना सुख-दु:ख मानते हैं। उनके लिये अपने आन-बान और स्वयं श्रीलक्ष्मीजी तककी चिन्ता नहीं करते। भक्तवर भीष्मकी प्रतिज्ञाकी रक्षा करनेके लिये अपनी शस्त्र न ग्रहण करनेकी प्रतिज्ञाको भंग कर देते हैं। और अर्जुनके साथ तो उन्होंने क्या-क्या नहीं किया! उनके सारथितक बने तथा जयद्रथका वध करानेके लिये दुर्योधनादिके साथ मायाका व्यवहार भी किया। भले ही उनको कोई बुरा कह ले; पर भक्तके प्राण-प्रणकी रक्षा होनी चाहिये। भक्तोंकी मान-मर्यादा और सुख-दु:खको अपना समझनेका तो उन्होंने मानो अटल व्रत ही ले रखा है।
हम भगतनके भगत हमारे।
सुन अरजुन परतिग्या मेरी, यह व्रत टरत न टारे॥
ऐसे महामहिम, भाग्यवान् और भगवत्स्वरूप भक्तोंके स्मरण-ध्यानमात्रसे ही पाप-राशि भस्म हो जाय, मुक्ति दासीकी तरह पीछे-पीछे घूमे और प्रभुके चरणोंमें अचल मति, रति और गति प्राप्त हो जाय तो कौन-सा आश्चर्य है। भगवान् की तरह महापुरुषोंके ध्यानसे भी कल्याण हो सकता है। उनके स्वरूपका ध्यान करनेसे उनके भाव, गुण और चरित्र हृदयमें आ जाते हैं, उनका स्वरूप चित्तमें अंकित हो जाता है और जैसे प्रकाशके आते ही अन्धकार मिट जाता है, वैसे ही भक्तोंके चरित्र-गुणादिकी स्मृति अन्त:करणमें आते ही समस्त कलुषको नष्ट कर देती है।
इसलिये अपना कल्याण चाहनेवाले मुमुक्षु पुरुषोंको चाहिये कि महापुरुषोंके संग और उनकी सेवा करनेकी अथक चेष्टा करें। भगवत्प्राप्ति और उनके चरणोंमें अनपायिनी रति लाभ करनेका सरस और सरल साधन केवल एक यही है। अपने भक्तिसूत्रोंमें मायासे तरनेके साधनोंका उल्लेख करते हुए देवर्षि नारदजी कहते हैं—
कस्तरति कस्तरति मायाम्? य: संगांस्त्यजति यो महानुभावं सेवते निर्ममो भवति। (नारदभक्तिसूत्र, ४६)
अर्थात् ‘मायासे कौन तरता है, कौन तरता है? जो आसक्तिका त्याग करता है, जो महापुरुषोंका सेवन करता है और जो ममतारहित होता है।’
आसक्ति तथा कामनासे मुक्ति और अहंता-ममताका त्याग बड़ा ही कठिन है; पर संतोंकी सेवा करना प्रतीकोपासनाकी तरह सबके लिये साध्य है, बल्कि उससे भी सरल और संभाव्य तथा अनुभवग्राह्य है, क्योंकि चेतन न होनेके कारण प्रतिमाके प्रति प्रतीति और अनुराग होना कुछ कठिन भी हो सकता है, पर अपने बीच बोलते और उठते-बैठते तथा संतत स्नेहकी वर्षा करते हुए भगवत्तुल्य संतोंकी सेवा बड़ी स्वाभाविक रीतिसे हो सकती है।
संतोंके संगमात्रसे ही, उनके दर्शनसे ही उद्धार हो जाता है। संत-संगकी शास्त्रोंमें जगह-जगह महिमा गायी हुई है—
मति कीरति गति भूति भलाई।
जब जेहिं जतन जहाँ जेहिं पाई॥
सो जानब सतसंग प्रभाऊ।
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ॥
वास्तवमें कल्याण-साधनका सत्संगसे बढ़कर और कोई सुलभ, सहज और श्रेष्ठ साधन है ही नहीं। पर बिना श्रद्धाके कुछ विलम्ब हो सकता है। अज्ञात रूपसे लाभ तो होता ही रहेगा; पर साधनमें तीव्रता और मन:प्रसादकी अनुभूति बहुत कालतक भी नहीं हो सकती है। किन्तु श्रद्धा और विश्वासके साथ सत्संग करनेसे तत्काल फल मिलता है।
मज्जन फल पेखिअ ततकाला।
काक होहिं पिक बकउ मराला॥
एक स्वच्छ काँचकी शीशीमें जल भरकर यदि धूपमें रख दिया जाय तो पानी गरम तो अवश्य हो जायगा पर जल्दी नहीं। काफी देर लगेगी। पर यदि शीशीपर काला रंग चढ़ा दिया जाय तो वही जल बहुत थोड़े ही समयमें गरम हो जायगा। काले रंगमें रविरश्मियोंको आकर्षित करनेकी विशेष क्षमता होती है। संत पुरुष भगवत्प्रेमरूपी ताप और भगवज्ज्योतिरूपी प्रकाशके सूर्य हैं। अश्रद्धालुओंका अन्त:करण उनसे शीघ्र प्रभावित नहीं हो पाता। पर जिन्होंने श्रद्धाका ऐसा पक्का काला रंग, जिसपर दूसरा कोई रंग नहीं चढ़ता, लगा लिया है, वे उस दिव्य ज्योति और दिव्य तापसे शीघ्र ही लाभ उठाकर परम नि:श्रेयसको प्राप्त कर लेते हैं।
इसलिये सत्संगकी चेष्टाके साथ-साथ अपनी श्रद्धा बढ़ानेका भी प्रयत्न करना चाहिये। श्रद्धा उत्पन्न करनेके वास्तविक उपायको तो भगवान् ही जानें। वे ही जिसके ऊपर दया करके अपने भक्तोंके प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर दें उसीको सच्ची श्रद्धा प्राप्त हो सकती है। अत: सबसे प्रथम हमको भगवान् से यही प्रार्थना करनी चाहिये कि उनमें तथा उनके प्रिय भक्तोंके चरणोंमें श्रद्धा-प्रेम बढ़ावें। फिर भक्तोंके गुण-प्रभावकी बातें सुनने-सुनानेसे एवं श्रद्धावान् पुरुषोंके संग, दर्शन तथा एकान्तमें उनके साथ श्रद्धाविषयक आलोचना-प्रत्यालोचना करनेसे भी श्रद्धाकी वृद्धि हो सकती है। सच्चे श्रद्धावानोंकी लीला आदिके दर्शनसे भी श्रद्धा जाग सकती और बढ़ सकती है। श्रीचैतन्य महाप्रभुके दर्शन और उनके मुँहसे निकले हुए हरिनामको सुननेमात्रसे विधर्मीतक श्रीकृष्ण-प्रेममें मग्न हो जाते थे।
अन्तमें महात्माओंकी पहचानके विषयमें भी कुछ कह देना आवश्यक जान पड़ता है। गीताके बारहवें अध्यायके १३ वें श्लोकसे २० वें तकके लक्षण जिसमें घटते हों, वही महापुरुष भक्त है। इनमें बहुत-से लक्षण स्वसंवेद्य हैं। दूसरा मनुष्य महापुरुषको पहचान सके, ऐसे लक्षण शास्त्रोंमें बहुत कम लिखे हैं। यहाँ कुछ मुख्य-मुख्य बातोंके बतानेकी चेष्टा की जाती है।
भगवद्भक्तोंका सबसे प्रमुख लक्षण है उनकी हेतुरहित दयालुता। वे सबके हितमें लगे रहते हैं। ज्ञान और भक्ति दोनों मार्गोंके संतोंमें यह बात पायी जाती है। ‘सर्वभूतहिते रता:’ (१२।४) तथा ‘मैत्र: करुण एव च’ (१२।१३) कहकर गीता क्रमश: प्रमाण देती है। दूसरा लक्षण है प्रेम। दयाके साथ प्रेमका संयोग होनेपर सुहृदता आती है। संतजन सबके साथ समान रूपसे प्रेम करते हैं।
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥
तीसरी बात है महापुरुषोंका तेज, उनकी प्रभावशीलता। जैसे अन्धकारमें लालटेनका प्रकाश होता है, उसी तरह संतोंका भी प्रकाश विकीर्ण होता रहता है। पर लालटेन जड ज्योति है, महापुरुष चिन्मय ज्योति हैं। उनके दर्शनसे ज्ञानकी वृद्धि होती है। महात्माओंके संगसे हमारे छोटे-छोटे दोष भी दीखने लगते हैं। हमारे आचरणोंका सुधार होता है। हमारेमें गुण आते हैं और अवगुणों एवं दुराचारोंका नाश होकर हृदय निर्मल बन जाता है। फिर बारीक दोष भी दीखने लगते हैं और चेष्टा करनेसे समूल नष्ट हो जाते हैं। भक्तोंके सामने कोई बुरा व्यवहार नहीं कर सकता। उनके दर्शनसे स्वाभाविक ही ईश्वरकी स्मृति हो जाती है।
विशेष श्रद्धा और विश्वासवाले मनुष्यको किसी भगवद्भक्तसे साक्षात्कार होनेपर ऐसा मालूम होता है मानो उस महात्माके द्वारा ईश्वरभक्ति, समता, दया, शान्ति, प्रेम, आनन्द, ज्ञान तथा अन्य समस्त सद्गुण उसमें प्रवेश करते जा रहे हैं। आगसे सूखी घासकी तरह हृदयके दुर्गुण भस्म होते हुए दिखायी पड़ते हैं और उस महात्माकी आँखोंमें दया और प्रेमका सिन्धु लहराता हुआ दिखायी पड़ता है।
निस्सन्देह महात्माओंकी जहाँतक दृष्टि जाती है, वहाँतक पृथ्वी-आकाश, चर-अचर सब कुछ पवित्र हो जाते हैं।