Seeker of Truth

भगवदाश्रयसे लोक-परलोकका कल्याण

लौकिक-पारलौकिक समस्त दु:खोंके नाश एवं समस्त लौकिक-पारमार्थिक सम्पत्तिकी सम्प्राप्तिका सर्वोत्तम साधन है—भगवान् का अनन्य आश्रय लेकर सच्चे मनसे उनका भजन करना और लौकिक-पारलौकिक समस्त सुखोंके नाश एवं समस्त लौकिक-पारमार्थिक सम्पत्तिके सर्वनाशका साधन है—भोगोंका अनन्य आश्रय लेकर मनसे भगवान् को भुला देना। आज हम भगवान् को भूल गये हैं और हमारा जीवन केवल भोगोंका आश्रयी बन गया है। इसीसे इतने दु:ख, संताप और विनाशके पहाड़ हमपर लगातार टूट रहे हैं। जो लोग क्रियाशील और विविध-कर्मसमर्थ हैं, उनको भगवान् की प्रसन्नताके लिये भगवान् का स्मरण करते हुए समयानुकूल स्वधर्मोचित कर्मोंके द्वारा भगवान् की पूजा करनी चाहिये और जो अल्पसमर्थ या असमर्थ हैं, उन्हें आर्त तथा दीनभावसे भगवत्प्रीतिके द्वारा धर्मके अभ्युदय और विश्व-शान्तिके लिये अनन्यभावसे भगवान् को पुकारना चाहिये।

हमारी अनन्य पुकार कभी व्यर्थ नहीं जायगी। हममें होना चाहिये द्रौपदीका-सा विश्वास, होनी चाहिये गजराजकी-सी निष्ठा और सबसे बढ़कर हममें होनी चाहिये प्रह्लादकी-सी आस्तिकता, जिसके वचनको सत्य करनेके लिये भगवान् नृसिंहरूपसे खम्भेमेंसे प्रकट हुए—‘सत्यं विधातुं निजभृत्यभाषितम्।’ (भागवत ७।८।१८)

विपत्ति, कष्ट, असहाय स्थिति, अमंगल और अन्याय तभीतक हमारे सामने हैं, जबतक हम भगवान् को विश्वासपूर्वक नहीं पुकारते। एक महाशयने यह घटना सुनायी थी। एक घरमें गुंडोंने पतिको पकड़ लिया और दो गुंडे उसकी स्त्रीको नंगी करके उसपर बलात्कार करनेको तैयार हुए। दोनों पति-पत्नी निरुपाय थे—असहाय थे। पत्नीने आर्त होकर—रोकर भगवान् को पुकारा। उसे द्रौपदीकी याद आ गयी। बस, तत्काल ही वे दोनों गुंडे आपसमें लड़ गये। एकने दूसरेको छूरा मार दिया। उसके गिरते ही पति-पत्नीको छोड़कर शेष गुंडे भाग गये और इस बीचमें पत्नीको कंधेपर उठाकर पतिको बचकर भाग निकलनेका अवसर मिल गया।

भारतकी सती देवियाँ आज द्रौपदीकी भाँति भगवान् को पुकारें तो भगवान् कहीं गये नहीं हैं। वे तुरंत किसी भी रूपमें प्रकट होकर सती देवियोंके सारे दु:ख हर लें और उसी क्षणसे उनको दु:ख पहुँचानेवालोंके विनाशकी भी गारंटी मिल जाय।

दुष्ट दु:शासनके हाथोंमें पड़ी हुई असहाया द्रौपदीने आर्त होकर मन-ही-मन भगवान् श्रीकृष्णका स्मरण करके कहा था—

गोविन्द! द्वारकावासिन्! कृष्ण! गोपीजनप्रिय॥
कौरवै: परिभूतां मां किं न जानासि केशव।
हे नाथ! हे रमानाथ! व्रजनाथार्तिनाशन।
कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन॥
कृष्ण! कृष्ण! महायोगिन्! विश्वात्मन्! विश्वभावन।
प्रपन्नां पाहि गोविन्द कुरुमध्येऽवसीदतीम्॥
(महा०, सभा० ६८।४१—४४)

‘हे गोविन्द! द्वारकावासी सच्चिदानन्द प्रेमधन! गोपीजनवल्लभ! सर्वशक्तिमान् प्रभो! कौरव मुझे अपमानित कर रहे हैं। क्या यह आपको मालूम नहीं है? हे नाथ! हे रमानाथ! हे व्रजनाथ! हे आर्तिनाशन जनार्दन! मैं कौरवोंके समुद्रमें डूबी जा रही हूँ। आप मेरा उद्धार कीजिये। हे कृष्ण! हे कृष्ण! हे महायोगी! हे विश्वात्मा और विश्वके जीवनदाता गोविन्द! मैं कौरवोंसे घिरकर संकटमें पड़ गयी हूँ। आपके शरण हूँ। आप मेरी रक्षा कीजिये।’

द्रौपदीकी आर्त पुकार सुनकर भक्तवत्सल प्रभु उसी क्षण द्वारकासे दौड़े आये और द्रौपदीको वस्त्र दान कर उसकी लाज बचायी। पर दुष्ट दु:शासनने द्रौपदीके जिन केशोंको खींचा था, वे खुले ही रहे दु:शासनको दण्ड मिलनेके दिनतक। द्रौपदीके खुले केश थे। पाण्डवोंके साथ वह वनमें रहती थी। भगवान् श्रीकृष्ण पाण्डवोंसे मिलने गये। वहाँ द्रौपदीने एकान्तमें रोकर भगवान् श्रीकृष्णसे कहा—‘मैं पाण्डवोंकी पत्नी, धृष्टद्युम्नकी बहिन और तुम्हारी सखी होकर भी कौरवोंकी सभामें घसीटी जाऊँ! यह कितने दु:खकी बात है। भीमसेन और अर्जुन बड़े बलवान् होनेपर भी मेरी रक्षा नहीं कर सके! धिक्कार है इनके बल-पौरुषको! इनके जीते-जी दुर्योधन क्षणभरके लिये भी कैसे जीवित है? श्रीकृष्ण! दुष्ट दु:शासनने भरी सभामें मुझ सतीकी चोटी पकड़कर घसीटा और ये पाण्डव टुकुर-टुकुर देखते रहे!’ इतना कहकर द्रौपदी रोने लगी। उसकी साँस लंबी-लंबी चलने लगी और उसने गद्‍गद होकर आवेशसे कहा—‘श्रीकृष्ण! ये पति-पुत्र, पिता-भ्राता मेरे कोई नहीं हैं; पर क्या तुम भी मेरे नहीं रहे? श्रीकृष्ण! तुम मेरे सम्बन्धी हो, मैं अग्निकुण्डसे उत्पन्न पवित्र रमणी हूँ; तुम्हारे साथ मेरा पवित्र प्रेम है और तुमपर मेरा अधिकार है एवं तुम मेरी रक्षा करनेमें समर्थ भी हो। इसलिये तुम्हें मेरी रक्षा करनी ही होगी।’ तब श्रीकृष्णने रोती हुई द्रौपदीको आश्वासन देकर कहा—

रोदिष्यन्ति स्त्रियो ह्येवं येषां क्रुद्धासि भामिनि।
बीभत्सुशरसंच्छन्नाञ्छोणितौघपरिप्लुतान् ॥
निहतान् वल्लभान् वीक्ष्य शयानान् वसुधातले।
यत् समर्थं पाण्डवानां तत् करिष्यामि मा शुच:॥
सत्यं ते प्रतिजानामि राज्ञां राज्ञी भविष्यसि।
पतेद् द्यौर्हिमवाञ्छीर्येत् पृथिवी शकलीभवेत्॥
शुष्येत्तोयनिधि: कृष्णे न मे मोघं वचो भवेत्।
(महा०, वन० १२।१२८—१३१)

‘कल्याणी! तुम जिनपर क्रोधित हुई हो, उनकी स्त्रियाँ भी थोड़े ही दिनोंमें अर्जुनके भयानक बाणोंसे कटकर खूनसे लथपथ हो जमीनपर पड़े हुए अपने पतियोंको देखकर तुम्हारी ही भाँति रुदन करेंगी। मैं वही काम करूँगा, जो पाण्डवोंके अनुकूल होगा। तुम शोक मत करो। मैं तुमसे प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम राज-रानी बनोगी। चाहे आकाश फट पड़े, हिमालय टुकड़े-टुकड़े हो जाय, पृथ्वी चूर-चूर हो जाय और समुद्र सूख जाय, परन्तु द्रौपदी! मेरी बात कभी असत्य नहीं हो सकती।’

ये द्रौपदीके दु:खोंका नाश करनेवाले भगवान् आज कहीं चले नहीं गये हैं। द्रौपदीके सदृश विश्वासपूर्ण हृदयसे उन्हें पुकारनेवालोंकी कमी हो गयी है। यदि दु:खसागरसे सहज ही पार उतरना है तो विश्वास करके अनन्यभावसे भगवान् को पुकारना चाहिये। भारतके हिंदुओंकी यह श्रद्धा जिस दिनसे घटने लगी, जबसे उनकी यह प्रार्थनाकी ध्वनि क्षीण हो गयी, तभीसे उनपर दु:ख आने लगे और तभीसे वे सन्मार्ग और सुखके सुपथसे भ्रष्ट हो गये! अब फिर श्रद्धा-विश्वासके साथ भगवान् को पुकारिये। देखिये, आपके इहलौकिक दु:ख दूर होते हैं या नहीं और देखिये, आपको भगवान् की अमृतमयी अनुकम्पासे भगवान् के दुर्लभ चरणारविन्दकी प्राप्ति सहज ही होती है या नहीं!


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur