Seeker of Truth

भगवच्चिन्तनका प्रभाव

भगवत्कृपा वास्तवमें अनुभव करनेकी वस्तु है, कहनेसे तो उसका तिरस्कार होता है; क्योंकि चाहे हम अपनी समझसे कितना ही बढ़ा-चढ़ाकर कहें, भगवत्कृपाके सहस्रांशका भी वर्णन नहीं कर सकते। जिसके पास जो वस्तु है, वह उसे ही देगा; जो वस्तु उसके पास है ही नहीं, वह उसे कैसे दे सकता है—यह नियम है। भगवान् कृपामय हैं—‘प्रभु-मूरति कृपामई है।’ अतएव वे सर्वदा, सर्वथा सब जीवोंको कृपाका ही दान करते हैं। तनिक-सा विचार करनेपर भगवान् की इस कृपाको हम पग-पगपर अनुभव कर सकते हैं। भगवान् ने हमको मनुष्य बनाया, पशु नहीं, पक्षी नहीं, चींटी नहीं, वृक्ष नहीं, पत्थर नहीं—इसमें उनकी कितनी कृपा भरी हुई है! अनन्त जन्मोंके पश्चात् चौरासी लाख योनियोंमें भटकते-भटकते यह अत्यन्त दुर्लभ मानव-शरीर भगवत्कृपासे ही प्राप्त हुआ है—

आकर चारि लच्छ चौरासी।
जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी॥
फिरत सदा माया कर प्रेरा।
काल कर्म सुभाव गुन घेरा॥
कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥

इस प्रकार भगवान् की अहैतुकी कृपासे हमें अधिकार-विशेष मनुष्ययोनि—कर्मयोनि प्राप्त हुई है (अन्य सब तो भोग-योनियाँ हैं, उनमें जीव केवल अपने प्रारब्धकर्मोंका फल भोगता है; नवीन कर्म करनेके लिये वह स्वतन्त्र नहीं है); हम मोक्षके द्वारपर खड़े कर दिये गये हैं। अब, मुक्तिको प्राप्त करें या द्वारसे वापस लौट आयें, यह हमपर निर्भर करता है। हमें खजांचीके ऊपर चेक मिल गया और रुपये लाने हम खजांचीके पास जा रहे हैं। रास्तेमें हम चेकका दुरुपयोग करें, उसको फाड़ डालें, जला डालें तो हमारी कितनी मूर्खता है। चेकको गवाँ बैठे, फिर रुपये कहाँ? ठीक इसी प्रकार यदि हम मानव-देहरूपी चेकको प्राप्तकर प्रमादवश अहंकार, कामना, क्रोध, द्वेष आदिके परायण हो भगवान् को प्राप्त न करें तो हमें भगवान् के आज्ञानुसार शूकर-कूकर आदि नीच योनियोंमें भटकना पड़ेगा तथा अन्तमें घोर नरकोंमें जाना पड़ेगा—

अहङ्कारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता:।
मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयका:॥
तानहं द्विषत: क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥*
(गीता १६। १८—२०)

* ‘वे अहंकार, बल, घमण्ड, कामना और क्रोधादिके परायण और दूसरोंकी निन्दा करनेवाले पुरुष अपने और दूसरोंके शरीरमें स्थित मुझ अन्तर्यामीसे द्वेष करनेवाले होते हैं। उन द्वेष करनेवाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमोंको मैं संसारमें बार-बार आसुरी योनियोंमें ही डालता हूँ। हे अर्जुन ! वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर जन्म-जन्ममें आसुरी योनिको प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गतिको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकोंमें पड़ते हैं।’

अन्तिम श्लोकमें भगवान् ने कहा—‘माम् अप्राप्य’—‘मुझको न पाकर।’ इसपर यह प्रश्न होता है कि जब उपर्युक्त असुरस्वभाववाले पुरुषोंको भगवत्प्राप्तिकी बात ही क्या, ऊँची गति भी नहीं मिलती, केवल आसुरी योनि ही प्राप्त होती है, तब भगवान् ने ‘माम् अप्राप्य’ यह कैसे कहा? ध्यानपूर्वक सोचनेसे इन वचनोंमें बहुत रहस्य दिखायी पड़ता है। भगवान् यहाँ खुले शब्दोंमें यह घोषणा कर रहे हैं कि मानवयोनिमें जीवको भगवत्प्राप्तिका जन्मसिद्ध अधिकार है। ऐसे अधिकारको प्राप्त करके भी यदि मनुष्य भगवान् को प्राप्त नहीं करते तो यह कितने दु:खकी बात है। वास्तवमें भगवान् जीवकी इस दयनीय दशापर यहाँ तरस खा रहे हैं। इस प्रकार भगवद्वचनोंसे यह सिद्ध हो जाता है कि भगवत्प्राप्तिके हम सच्चे पात्र हैं, अधिकारी हैं। यदि इतने दिनतक हम उससे वंचित रहे तो यह हमारे प्रमादका फल है, हमारी मूर्खताका नतीजा है। भगवान् की तो हमपर पूर्ण दया है, उनका वरदहस्त हमारे मस्तकपर रखा हुआ है तथा वे दर्शन देनेके लिये तैयार हैं; पर हमारे प्रमादके कारण विलम्ब हो रहा है। अतएव आवश्यकता इस बातकी है कि हम अपने इस प्रमादको छोड़ें और अपने जन्मसिद्ध अधिकारको प्राप्त कर सदाके लिये सर्वथा निश्चिन्त हो जायँ।

राजपुत्रका राज्यपर जन्मसे स्वभावसिद्ध अधिकार है। बच्चा नाबालिग है। गवर्नमेंट कोर्ट ऑफ वार्ड्स (Court of Wards) नियुक्त कर राज्यकी व्यवस्था करती है। बच्चेको योग्य बनाकर सब अधिकार उसको सौंप देती है। परमात्माकी प्राप्ति हमारे बापका राज्य है। अतएव उसपर हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। परमात्मा हमें योग्य बनाते हैं, सारा ‘योगक्षेम’ स्वयं वहन करते हैं। अत: हमारे उद्धारमें चिन्ता ही क्या है।

लौकिक जीवनमें हम देखते हैं कि यदि राजकुमार, जिसको अधिकार प्राप्त होनेवाला है, योग्य न निकले और मार-पीट, आग लगाना, चोरी-जारी आदि कुकर्म करने लगे तो सरकार उसके अधिकारको छीनकर उसे कारागृहमें डाल देती है अथवा आवश्यकता पड़नेपर निर्वासित भी कर देती है। राजकुमारको इस प्रकार अधिकारसे वंचित करने एवं दण्ड देनेसे सरकारको अप्रसन्नता ही होती है, पर मर्यादाके लिये सब करना पड़ता है। ठीक इसी प्रकार जब हम मोहमें फँसकर छल, कपट, अनाचार, व्यभिचार, अत्याचार, हिंसा आदि पापकर्मोंमें प्रवृत्त होते हैं तो भगवान् को बाध्य होकर हमें दण्ड देना पड़ता है (वास्तवमें भगवान् का दण्ड-विधान भी कृपासे परिपूर्ण होता है। वे यदि मारते भी हैं तो तारनेके लिये) परन्तु भगवान् बड़ा पश्चात्ताप करते हैं कि इसको परमपद-प्राप्तिके लिये मैंने सारे साधन दिये; किन्तु यह भजन-ध्यान, सेवा-त्याग आदि सत्कर्मोंको छोड़कर विषय-भोगोंमें आसक्त रहा, जिससे भगवत्प्राप्तिरूप अपने अधिकारको खोकर नाना भाँतिकी घोर यातनाओंको भोग रहा है।

वर्षामें देखा होगा दीपक जलाते ही हजारों पतंगे चारों ओरसे उड़-उड़कर दीपककी लौपर गिरते हैं और अपने शरीरका उसमें हवन कर देते हैं। यदि कोई मनुष्य इस प्रकार उनको जलते देखकर दया करके दीपक बुझा देता है तो पतंगे दीपक बुतानेवालेकी दयाके तत्त्वको तो समझते नहीं; अत: वे मन-ही-मन उसपर बड़ा क्रोध करते हैं। बोलनेकी शक्ति उनमें है नहीं; यदि हो तो उनके क्रोधको, उनके दु:खको हम प्रत्यक्ष देख सकते हैं, पर उनको दु:ख होता अवश्य है। इसी प्रकार जब हम पतंगोंकी भाँति अंधे हो विषय-भोगोंमें फँसकर अपना सर्वनाश करने लगते हैं तो भगवान् हमपर बड़ी कृपा करके, हमारे परम हितके लिये उन भोगोंको हमसे छीन लेते हैं। पर भगवान् की कृपाको न समझकर हम बड़े दु:खी होते हैं और कभी-कभी तो क्रोधमें आकर भगवान् को भला-बुरा भी कह बैठते हैं। दीपक बुतानेवालेकी अपेक्षा भगवान् की हमपर अनन्तगुणा अधिक दया है, कृपा है—हम इस बातको नहीं समझते; इसीसे भोगोंके नाश होनेपर तथा मनके प्रतिकूल अवसरोंपर दु:खी हो जाते हैं। अतएव प्रतिकूल एवं अनुकूल सभी परिस्थितियोंमें भगवान् की अपार कृपाका दर्शन करते हुए शोक, चिन्ता, भय आदि नहीं करना चाहिये।

संसार क्या है? एक नाट्यशाला। सभी प्राणी इस नाट्यशालाके पात्र हैं। भगवान् इस नाट्यशालाके स्वामी हैं। गम्भीर दृष्टिसे सोचें तो भगवान् स्वामी भी हैं और नाटकके पात्र भी। सब प्राणियोंके रूपमें वे ही तो हमारे साथ खेल रहे हैं। भगवान् श्रीकृष्णने ग्वाल-बालोंके साथ क्रीड़ाएँ कीं, भगवान् रामने वानर-भालुओंके साथ लीलाएँ कीं। फिर हम तो मनुष्य हैं। अतएव सब प्राणियोंके रूपमें अपने स्वामीको देख सबके साथ शुद्ध प्रेमका व्यवहार करना चाहिये। भगवत्कृपाको समझनेका यह सीधा उपाय है।

स्टेज (मंच)-पर आकर अपना अभिनय दिखानेके लिये सभी पात्रोंको अवसर दिया जाता है। प्रत्येकका समय निश्चित होता है। अपने निश्चित समयमें वह जैसा भला-बुरा अभिनय करता है, उसीसे उसकी सफलता एवं असफलताका निर्णय होता है। हमें भी अपना अभिनय दिखानेके लिये समय मिला है। निश्चित समय समाप्त होते ही हमें स्टेजसे हट जाना पड़ेगा। अतएव समय बड़ा मूल्यवान् है। वह हाथसे निकल गया तो न मालूम फिर कब मिलेगा। लाखों-करोड़ों जीव मौका माँग रहे हैं। न जाने कब हमारा नंबर आवेगा। निश्चित समय निकल जानेपर लाख रुपया देनेपर भी पाँच मिनट नहीं मिलेगा। एक सेकेंड भी समय बढ़नेकी गुंजाइश नहीं है। इसलिये जल्दी-से-जल्दी कार्यकी सिद्धि कर लेनी चाहिये। हमें नाट्यशालाके स्वामी उस परमात्माको प्रसन्न करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। स्वामी बड़े दयालु हैं, हमपर बड़ी कृपा करते हैं। वे सब भूलोंको क्षमा कर देते हैं। पर हमें छूटका आसरा कभी भी नहीं लेना चाहिये। स्वामीको अपने कार्यसे प्रसन्न करनेके लिये, उसके संकेतपर नाचनेके लिये कठपुतली बन जाना चाहिये। अपने स्वामीके संकेतको हम समझते रहें, स्वामीकी इच्छाके अनुकूल बन जायँ। यही यथार्थ शरण है, वास्तविक भक्ति है।

भगवान् ने श्रीगीताजीके दसवें अध्यायमें आठवें श्लोकसे लेकर ग्यारहवें श्लोकतक प्रभावसहित भक्तियोगका वर्णन किया है। वहाँ नवम श्लोकमें जो भक्तिका स्वरूप बतलाया है, उसका पालन करना ही सच्चे रूपसे भगवान् की शरण होना है। भगवान् ने बतलाया—

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
(गीता १०। ९)

‘निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें निरन्तर रमण करते हैं।’

इस श्लोकमें भगवान् ने पहला पद प्रयुक्त किया—‘मच्चित्ता:’—निरन्तर मुझमें चित्त लगानेवाले। इसका भाव यह कि भक्तोंको चाहिये कि नित्य-निरन्तर अपने स्वामी श्रीभगवान् का चिन्तन करते हुए बाजीगरके झमूरेकी भाँति सब काम करें। झमूरा सब काम करता है—चलता है, फिरता है, उछलता है, कूदता है; पर उसका मन निरन्तर अपने स्वामी बाजीगरकी ओर लगा रहता है। साथ ही उसको यह पूर्णरूपसे ज्ञात है कि जो कुछ हो रहा है, सब बाजीगरका खेल है। अतएव किसी घटनाविशेषसे वह बिलकुल ही प्रभावित नहीं होता। इसी प्रकार भक्तको चाहिये कि वह अपनेको मदारी श्रीभगवान् के हाथका झमूरा समझे और जगत् के जितने भी व्यापार हैं, सब उस मदारीके खेल हैं—ऐसा मानकर किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितिसे मनमें हर्ष या उद्वेगको स्थान न दे। अपनी तन, मन, धन आदि प्रत्येक वस्तुको, जिसपर वह अपना अधिकार समझता है, जिसकी उसको ममता है, भगवान् के अर्पण कर दे।

भगवान् में अपने चित्तको किस प्रकार लगावे—इसका वास्तवमें कोई उदाहरण मिलता ही नहीं। यों समझानेके लिये एक अंशमें चकोर पक्षीका उदाहरण दिया जा सकता है। चकोर अपने प्रेमास्पद चन्द्रमाको हर समय देखता रहता है। इसी प्रकार हम अपने इष्टको मानसिक नेत्रोंसे हर समय देखते रहें। चित्तवृत्तियोंकी धारा बँध जाय—प्रभुसे लेकर हमारेतक। कोई दूसरा पक्षी उड़ा और चकोर तथा चन्द्रमाके बीचकी धारामें व्यवधान आ गया। चकोर इस व्यवधानको स्वीकार कर लेता है, वह मरता नहीं। परन्तु हमें तो व्यवधान स्वीकार न करके मरना ही स्वीकार कर लेना चाहिये। एक क्षणका भी व्यवधान हो, एक क्षणके लिये भी दूसरी बातका स्मरण हो तो तुरंत प्राण छटपटाने लगें और वे शरीरसे निकल जायँ। हम जान-बूझकर न मरें, जान-बूझकर मरना तो पाप है; पर प्राण स्वत: शरीरसे निकल जायँ। सच्चा प्रेम तो यही है। यदि इतनी तत्परता न हो कि व्यवधान पड़नेपर प्राण न रहें, तो भी वे उसे अपना लेते हैं। किन्तु इस प्रकारकी छूट लेनेवालेकी अपेक्षा न लेनेवाला गौरवका पात्र है। यह अभिमान नहीं करना चाहिये कि हम छूट नहीं लेते, नहीं तो प्रभुको उस अभिमानको दूर करनेके लिये कोई दूसरी परिस्थिति उत्पन्न करनी पड़ेगी, जिससे बाध्य होकर हमें क्षमा माँगनी पड़ेगी। अतएव ‘मच्चित्ता:’ का यही भाव है कि जहाँतक हो अपनी ओरसे व्यवधान पड़ने ही न दे और यदि पड़ ही जाय तो मछलीकी भाँति प्राण तड़पने लगें। यदि ऐसा हो जायगा तो फिर प्रभु व्यवधान पड़ने ही न देंगे, क्योंकि यह उनकी प्रतिज्ञा है—

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥
(गीता ९। २२)

‘जो अनन्य प्रेमी भक्तजन मुझ परमेश्वरको निरन्तर चिन्तन करते हुए निष्कामभावसे भजते हैं, उन नित्य-निरन्तर मेरा चिन्तन करनेवाले पुरुषोंका योगक्षेम मैं स्वयं प्राप्त कर देता हूँ।’

भगवान् ने कहा—‘योगक्षेमम् अहं वहामि’—योग (अप्राप्तकी प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्तकी रक्षा) मैं स्वयं वहन करता हूँ। इस प्रकार भगवान् की प्राप्तिके लिये जो-जो आवश्यक वस्तु या साधन हमें प्राप्त हैं, सब प्रकारके विघ्न-बाधाओंसे बचाकर उनकी रक्षा करना और जिस वस्तु या साधनकी कमी है, उसकी पूर्ति करके स्वयं अपनी प्राप्ति करा देना—इसकी जिम्मेवारी भगवान् ने अपने ऊपर ली। अब भला, हमारे उद्धारमें क्या संदेह एवं विलम्ब हो सकता है। बस, आवश्यकता है केवल नित्य-निरन्तर अनन्यभावसे चिन्तन करनेकी।

भगवान् ने आगे कहा ‘मद्गतप्राणा:’—मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले। हमलोगोंके प्राण शरीरगत हैं। शरीर गया, प्राण गये। पर उपर्युक्त प्रकारके भक्तोंके प्राणोंके आश्रय भगवान् हैं; जैसे मछलीके प्राणोंका आश्रय जल है। वे भक्त भगवान् के लिये ही जीते हैं। समस्त इन्द्रियोंसे खाने, पीने, सोने आदिकी जो भी चेष्टाएँ होती हैं, सब भगवान् के लिये होती हैं। उन सबमें उनका अपना कोई प्रयोजन नहीं रहता। फिर आगे कहा—‘बोधयन्त: परस्परम्’, ‘कथयन्तश्च मां नित्यम्’—मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभाव और तत्त्वको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए। वास्तवमें समय इस प्रकार ही बीतना चाहिये। अब उपर्युक्त प्रकारसे भजन करनेवालोंकी गतिका वर्णन करते हैं—‘तुष्यन्ति च रमन्ति च’—निरन्तर संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं। पतिव्रता स्त्री जिस प्रकार केवलमात्र अपने पतिमें ही रमण करती है, दूसरा पुरुष उसकी दृष्टिमें रहता ही नहीं, उसी प्रकार भक्त नित्य भगवान् में ही रमण करता है अर्थात् प्रेमपूर्वक भगवान् का ही निरन्तर भजन करता है। वह भगवान् के सिवा दूसरी वस्तुको नहीं चाहता। उसके नेत्र जहाँ भी जाते हैं, वहीं वह भगवान् को ही देखता है। जैसे गोपियोंको सर्वत्र श्रीकृष्ण ही दिखायी पड़ते थे—‘जित देखौं तित स्याममई है’, उसी प्रकार भक्तको सम्पूर्ण भूतोंमें वासुदेव ही व्यापक दिखायी पड़ते हैं और सम्पूर्ण भूत वासुदेवके अन्तर्गत। वह ‘एकत्वमास्थित:’ भजता है अर्थात् भगवान् के सिवा और कुछ उसकी दृष्टिमें रह ही नहीं जाता। इस प्रकार उसमें न तो कोई कामना रहती है और न किसी प्रकारका भय ही। वह तो सर्वथा प्रेममें विचरण करता है। सारांश यह कि भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और नामरूपका कानोंसे श्रवण करना, वाणीसे कथन करना तथा मनसे मनन करना ही भक्तका भगवान् में रमण करना है।

साधकको चाहिये कि वह अपने साधनमें इतना तत्पर हो जाय कि एक क्षणका भी व्यवधान मृत्युके समान बन जाय। ऊँची श्रेणीके भक्त किसी प्रकारकी छूट नहीं चाहते, चाहे प्राण चले जायँ, मुक्ति न मिले, भगवत्प्राप्ति न हो। वे मुक्तिके लिये भजन नहीं करते, भजनके लिये ही भजन करते हैं। अत: एक क्षणके लिये भी चिन्तन छूटना उनके लिये असह्य हो जाता है। वे भगवान् से माँगते हैं तो यही कि हे प्रभो! एक क्षणका भी व्यवधान न पड़े। हमारी ऐसी अवस्था बन जाय कि एक क्षणका व्यवधान भी हम सहन न कर सकें। ऐसे प्रेमी भक्त ही मुक्तिको ठुकरा सकते हैं, पर हमें अभीतक भजनका रस प्राप्त नहीं हुआ है। इसीसे हम व्यवधानको सहन कर रहे हैं। यदि भजनका रस समझमें आ जाय तो फिर क्षणभरके लिये भी भजन छूटे, यह सम्भव नहीं। अतएव हमारी तो भगवान् से यही प्रार्थना है कि प्रभो! हमें ऐसा बना दीजिये कि हम आपके चिन्तनमें व्यवधान सहन न कर सकें। बस, इतना होनेसे सब काम बन जायगा।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur