Seeker of Truth

अवतारका सिद्धान्त

अवतारका अर्थ है अव्यक्तरूपसे व्यक्तरूपमें प्रादुर्भाव होना। यह बहुत ही अलौकिक एवं रहस्यकी बात है। इसलिये जो पुरुष भगवान् के इस अवतरित होनेके दिव्य रहस्यको जानते हैं वे भगवान् को प्राप्त हो जाते हैं (गीता ४। ९)।

परम दयालु पूर्ण ब्रह्म परमात्मा सबपर अहैतुकी दया करके संसारके परम हितके लिये ही यहाँ अवतार लेते हैं यानी जन्म धारण करते हैं। भगवान् इतने महान् हैं कि उनकी महिमा वर्णन करनेमें ब्रह्मादि देवता भी अपनेको असमर्थ समझते हैं। श्रीमद्भागवतमें श्रीब्रह्माजीने स्वयं कहा है—

सुरेष्वृषिष्वीश तथैव नृष्वपि
तिर्यक्षु यादस्स्वपि तेऽजनस्य।
जन्मासतां दुर्मदनिग्रहाय
प्रभो विधात: सदनुग्रहाय च॥
को वेत्ति भूमन् भगवन् परात्मन्
योगेश्वरोतीर्भवतस्त्रिलोक्याम् ।
क्व वा कथं वा कति वा कदेति
विस्तारयन् क्रीडसि योगमायाम्॥
(१०। १४। २०-२१)

‘हे जगन्नियन्ता प्रभो! हे विधात:! देवता, ऋषि, मनुष्य, तिर्यक्और वैसे ही जलचरादि योनियोंमें आप अजन्माके जो अवतार होते हैं वे असत्पुरुषोंके मदका मथन और सत्पुरुषोंपर कृपा करनेके लिये ही होतेहैं।

‘हे भगवन्! आप सर्वव्यापक परमात्मा और योगेश्वर हैं; जिस समय आप अपनी योगमायाका विस्तार कर क्रीड़ा करते हैं उस समय त्रिलोकीमें ऐसा कौन है जो यह जान सके कि आपकी लीला कहाँ किस प्रकार कितनी और कब होती है?’

वे ही भगवान् हमलोगोंके साथ क्रीड़ा करनेके लिये हमारे-जैसे बनकर हमारे इस भूमण्डलमें उतर आते हैं, इससे बढ़कर जीवोंपर भगवान् की और क्या कृपा होगी? वे तो कृपाके आकर हैं। कृपा करना उनका स्वभाव ही है। कृपा किये बिना उनसे रहा नहीं जाता। इसीलिये जब-जब भक्तोंपर विपत्ति आती है, पृथ्वी पापोंके भारसे दब जाती है। साधु पुरुष बुरी तरह सताये जाने लगते हैं और अत्याचारियोंके अत्याचार असह्य हो जाते हैं, तब-तब पृथ्वीका भार हरण करनेके लिये, भक्तोंको उबारनेके लिये, साधुओंकी रक्षा और दुष्टोंके अत्याचारोंका दमन करके संसारमें पुन: धर्मकी स्थापना करनेके लिये वे समय-समयपर इस पृथ्वीमण्डलपर अवतीर्ण हुआ करते हैं। भगवान् स्वयं गीताजीमें कहते हैं—

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया॥
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे॥
(४। ६—८)

‘मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरूप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियोंका ईश्वर होते हुए भी, अपनी प्रकृतिको अधीन करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ। हे भारत! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब मैं अपने रूपको रचता हूँ अर्थात् साकाररूपसे लोगोंके सम्मुख प्रकट होता हूँ। साधु पुरुषोंका उद्धार करनेके लिये, पाप-कर्म करनेवालोंका विनाश करनेके लिये और धर्मकी अच्छी तरहसे स्थापना करनेके लिये मैं युग-युगमें प्रकट हुआ करता हूँ।’

यहाँ यह प्रश्न होता है कि ‘भगवान् तो सर्वशक्तिमान् हैं, वे सब कुछ करनेमें समर्थ हैं, वे बिना अवतार लिये ही अपनी शक्तिसे—अपने संकल्पसे ही सब कुछ कर सकते हैं; फिर अवतार लेनेकी उन्हें क्या आवश्यकता है?’ बात बिलकुल ठीक है, भगवान् बिना अवतार लिये ही सब कुछ कर सकते थे और कर सकते हैं तथा करते भी हैं; परन्तु लोगोंपर विशेष दया करके अपने दर्शन, स्पर्श और भाषणादिके द्वारा सुगमतासे उन्हें उद्धारका सुअवसर देनेके लिये एवं अपने प्रेमी भक्तोंको अपनी दिव्य लीलाओंका आस्वादन करानेके लिये इस पृथ्वीपर साकाररूपसे प्रकट होते हैं। उन अवतारोंमें धारण किये हुए रूपका तथा उनके गुण, प्रभाव, नाम, माहात्म्य और दिव्यकर्मोंका श्रवण, कीर्तन और स्मरण करके सब लोग सहज ही संसार-समुद्रसे पार हो जाते हैं। यह काम बिना अवतारके नहीं हो सकता। इसीलिये भगवान् अवतार लेते हैं।

दूसरा प्रश्न यह होता है कि ‘जो भगवान् निराकार रूपसे सर्वत्र व्याप्त हैं; वे अल्पकी भाँति किसी एक देशमें कैसे प्रकट हो सकते हैं और यदि होते हैं तो उतने कालके लिये अन्यत्र उनका अभाव हो जाता होगा अथवा उनकी शक्ति बहुत सीमित हो जाती होगी?’ इस बातको समझनेके लिये हमें व्यापक अग्नि और प्रकट अग्निका दृष्टान्त लेना चाहिये। अग्नि निराकाररूपसे सर्वत्र व्याप्त है, इसीलिये उसे चकमक पत्थर तथा दियासलाई आदिसे चाहे जहाँ प्रकट किया जा सकता है। और जिस कालमें उसे एक जगह प्रकट किया जाता है उस कालमें अन्यत्र उसका अभाव नहीं हो जाता, बल्कि एक ही कालमें वह कई जगह प्रकट होती देखी जाती है। और जहाँ भी प्रकट होती है, उसमें पूरी शक्ति रहती है। इसी प्रकार भगवान् भी निराकाररूपसे सर्वत्र व्याप्त होते हुए ही किसी देशविशेषमें अपनी पूरी भगवत्ताके साथ प्रकट हो जाते हैं और उस समय उनका अन्यत्र अभाव नहीं हो जाता बल्कि एक ही समयमें उनके कई स्थलोंपर प्रकट होनेकी बात भी शास्त्रोंमें कई जगह आती है। श्रीमद्भागवतमें वर्णन आता है कि एक बार भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकासे मिथिलापुरी गये। वहाँके राजा बहुलाश्व भगवान् के अनन्य भक्त थे। वहींपर श्रुतदेव नामके एक ब्राह्मण भक्त भी रहते थे। दोनोंने एक ही साथ भगवान् से अपने-अपने घर पधारनेकी प्रार्थना की। दोनों ही भगवान् की भक्तिमें एक-से-एक बढ़कर थे। भगवान् दोनोंमेंसे किसीका भी जी नहीं तोड़ना चाहते थे। अत: उन्होंने दोनोंका ही मन रखनेके लिये एक-दूसरेको न जनाते हुए एक ही समय दो रूप धारण करके एक साथ दोनोंके घर जाकर दोनोंको कृतार्थ किया।*

* भगवांस्तदभिप्रेत्य द्वयो: प्रियचिकीर्षया।

उभयोराविशद् गेहमुभाभ्यां तदलक्षित:॥

(श्रीमद्भा० १०। ८६। २६)

एक और भी प्रसंग श्रीमद्भागवतमें आता है। एक बारकी बात है, देवर्षि नारदजी यह देखनेके लिये कि भगवान् गृहस्थाश्रममें किस प्रकार रहते हैं, द्वारकामें पहुँचे। वे अलग-अलग सब रानियोंके महलोंमें गये और सभी जगह उन्होंने श्रीकृष्णको गृहस्थधर्मका यथायोग्य पालन करते हुए पाया। वे प्रात:काल उठनेके समयसे लेकर रात्रिको सोनेके समयतकका समस्त दैनिक कृत्य अनेक रूपोंमें सब जगह विधिवत् करते थे। नारदजी यह सब देखकर दंग रह गये और भगवान् को प्रणाम करके उनकी स्तुति करते हुए (ब्रह्मलोकको) चले गये (देखिये भागवत १०। ६९। १३—४३)।

ब्रह्माजीके मोहके प्रसंगमें भी भगवान् के बछड़ों और गोपबालकोंका रूप धारण करने और सालभरतक इस प्रकार अनेक रूप होकर रहनेकी बात श्रीमद्भागवतमें आयी है (देखिये भागवत १०। १३)।

भगवान् श्रीरामके सम्बन्धमें भी यह वर्णन आता है कि जब भगवान् लंका-विजय कर चौदह वर्षकी अवधि शेष होनेपर अयोध्या लौटे, उस समय उन्होंने पुरवासियोंको मिलनेके लिये अत्यन्त आतुर देखकर असंख्य रूप धारण कर लिये और पलभरमें एक साथ सबसे मिल लिये।

प्रेमातुर सब लोग निहारी।
कौतुक कीन्ह कृपाल खरारी॥
अमित रूप प्रगटे तेहि काला।
जथाजोग मिले सबहि कृपाला॥
छन महिं सबहि मिले भगवाना।
उमा मरम यह काहुँ न जाना॥
(श्रीरामचरितमानस, उत्तर० ६। ४, ५, ७)

भगवान् के लिये यह कोई बड़ी बात भी नहीं कही जा सकती। जिन्होंने इस सारे विश्वको अपने संकल्पके आधारपर टिका रखा है और जो एक होते हुए भी लीलासे अनेक बने हुए हैं, वे यदि इस प्रकार एक ही समयमें एकसे अधिक रूप धारण कर लें, तो इसमें कोई आश्चर्यकी बात नहीं है। यह कार्य तो एक योगी भी कर सकता है। फिर भगवान् तो योगेश्वरोंके भी ईश्वर तथा मायाके अधिपति ठहरे, उनके लिये ऐसा करना कौन कठिन काम है!

अब प्रश्न यह होता है कि ‘क्या भगवान् का अवतार हमलोगोंके जन्मकी भाँति कर्मोंसे प्रेरित होता है? क्या उनका शरीर भी हमलोगोंकी भाँति पंचभूतोंसे बना हुआ मायिक होता है?’ इसका उत्तर यह है कि भगवान् के अवतारमें इनमेंसे एक भी बात नहीं होती। भगवान् का अवतार न तो कर्मसे प्रेरित होकर होता है, न उनका शरीर पांचभौतिक अथवा मायिक होता है। उनका जन्म और उनके कर्म दोनों ही दिव्य—अलौकिक होते हैं। उनका अवतार कर्मसे प्रेरित तो इसलिये नहीं होता कि वे काल और कर्मसे सर्वथा परे हैं। कर्मकी स्थिति तो मायाके अंदर है और वे मायासे सर्वथा अतीत हैं। अत: कर्म उनका स्पर्श भी नहीं कर सकते। वे स्वयं गीतामें कहते हैं—

न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा।
इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते॥
(४। १४)

‘कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते—इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता।’ जब उन्हें तत्त्वसे जाननेवाला भी कर्मोंसे नहीं बँधता, तब उनके कर्मोंके वश होकर जन्म लेनेकी तो बात भी नहीं उठ सकती। वे तो अपनी इच्छासे भक्तोंपर अनुग्रह करनेके लिये शरीर धारण करते हैं। यह बात जेलके दृष्टान्तसे भलीभाँति समझमें आ सकती है। जेलके अंदर कैदी भी रहते हैं, जेलके कर्मचारी भी रहते हैं और जेलके अफसर—जेलर भी रहते हैं तथा कभी-कभी जेलके मालिक स्वयं राजा भी जेलके अहातेके अंदर जेलका निरीक्षण करने एवं कैदियोंपर अनुग्रह करनेके लिये तथा उन्हें जेलसे मुक्त करनेके लिये चले जाया करते हैं। परन्तु उनके जानेमें और कैदियोंके जानेमें बड़ा अन्तर है। कैदी जाता है वहाँ राजाज्ञाके अनुसार सजा भोगनेके लिये। नियत अवधितक उसे बाध्य होकर वहाँ रहना पड़ता है, अपनी इच्छासे वह वहाँ नहीं रहता। परन्तु राजा वहाँ अपनी स्वतन्त्र इच्छासे जाता है, सजा भोगनेके लिये नहीं; और जबतक उसकी इच्छा होती है, तबतक वहाँ रहता है। इसी प्रकार भगवान् भी प्रकृतिको वशमें करके अपनी स्वतन्त्र इच्छासे जन्म लेते हैं और लीला-कार्य समाप्त हो जानेपर पुन: बेरोक-टोक अपने धामको वापस चले आते हैं।

भगवान् का अवतारविग्रह भी हमलोगोंके शरीरकी भाँति पंचभूतोंसे बना हुआ मायिक नहीं होता, अपितु चिन्मय—सच्चिदानन्दमय होता है; इसलिये वह अनामय और दिव्य है। इस विषयमें दूसरी बात ध्यान देनेयोग्य यह है कि भगवान् का जन्म साधारण मनुष्योंकी तरह नहीं होता। भगवान् श्रीकृष्ण जब कारागारमें वसुदेव-देवकीके सामने प्रकट हुए, उस समयका श्रीमद्भागवतका प्रसंग देखने और विचारनेसे मनुष्य समझ सकता है कि उनका जन्म साधारण मनुष्योंकी भाँति नहीं हुआ। अव्यक्त सच्चिदानन्दघन परमात्मा अपनी लीलासे ही शंख, चक्र, गदा, पद्मसहित विष्णुके रूपमें वहाँ प्रकट हुए। उनका प्रकट होना और पुन: अन्तर्धान होना उनकी स्वतन्त्र लीला है, वह हमलोगोंके उत्पत्ति-विनाशकी तरह नहीं है। भगवान् की तो बात ही निराली है, एक योगी भी अपने योगबलसे अन्तर्धान हो जाता है और पुन: उसी रूपमें प्रकट हो जाता है; परन्तु उसकी अन्तर्धानकी अवस्थामें कोई उसे मरा नहीं समझता। जब महर्षि पतंजलि आदि योगके ज्ञाता एक योगीकी ऐसी शक्ति बतलाते हैं१ तब परमात्मा ईश्वरके लिये अन्तर्धान हो जाना और पुन: प्रकट होना कौन बड़ी बात है।

१-महर्षि पतंजलि कहते हैं—

कायरूपसंयमात्तद्ग्राह्यशक्तिस्तम्भे चक्षु:प्रकाशासम्प्रयोगेऽन्तर्धानम्॥ (योग० ३। २१)

अवश्य ही भगवान् श्रीकृष्णका अवतरण साधारण लोगोंकी दृष्टिमें जन्म लेनेके सदृश ही था; परन्तु वास्तवमें वह जन्म नहीं था, वह तो उनका प्रकट होना ही था। इसीलिये तो उन्होंने माता देवकीकी प्रार्थनापर अपने चतुर्भुजरूपको अदृश्य करके द्विभुज बालकका रूप धारण कर लिया।२

२-इत्युक्त्वाऽऽसीद्धरिस्तूष्णीं भगवानात्ममायया।

पित्रो: सम्पश्यतो: सद्यो बभूव प्राकृत: शिशु:॥

(श्रीमद्भा० १०। ३। ४६)

‘यह कहकर भगवान् हरि चुप हो गये और माता-पिताके देखते-देखते अपनी मायासे तुरंत ही एक साधारण बालक बन गये।’

गीताके ग्यारहवें अध्यायमें भी वर्णन आता है कि भगवान् श्रीकृष्णने अर्जुनके प्रार्थना करनेपर पहले उसे अपना विश्वरूप दिखलाया, फिर उसीकी प्रार्थनापर चतुर्भुजरूप धारण किया और अन्तमें पुन: द्विभुज मनुष्यरूप हो गये।

भगवान् श्रीरामके भी इसी प्रकार चतुर्भुजरूपमें ही माता कौसल्याके सामने प्रकट होने और फिर उनकी प्रार्थनापर द्विभुज बालकके रूपमें बदल जानेकी बात मानसमें आती है। इससे प्रकट होता है कि भगवान् अपने भक्तोंकी इच्छाके अनुसार उन्हें दर्शन देकर अन्तर्धान हो जाते हैं।

मनुष्योंके शरीरके विनाशकी तरह भगवान् के दिव्य वपुका विनाश भी नहीं समझना चाहिये। जिस शरीरका विनाश होता है, वह तो यहीं पड़ा रहता है; किन्तु देवकीके सामने चतुर्भुजरूपके और अर्जुनके सामने विश्वरूप तथा चतुर्भुजरूपके अदृश्य हो जानेपर उन वपुओंकी वहाँ उपलब्धि नहीं होती। इतना ही नहीं, भगवान् श्रीकृष्णने जिस देहसे यहाँ लोकहितके लिये विविध लीलाएँ की थीं, वह देह भी अन्तमें नहीं मिला। वे उसी लीलामय दिव्यवपुसे परमधामको पधार गये। इसके बाद भी जब-जब भक्तोंने इच्छा की, तब-तब ही उसी श्यामसुन्दरविग्रहसे पुन: प्रकट होकर उन्हें दर्शन देकर कृतार्थ किया और करते हैं। यदि उनके देहका विनाश हो गया होता, तो (परमधाम पधारनेके अनन्तर) इस प्रकार पुन: प्रकट होना कैसे सम्भव होता।

इससे यह बात सिद्ध हुई कि भगवान् का परमधामप्रयाण अन्तर्धान होना है, न कि मनुष्य देहोंकी भाँति विनाश होना। श्रीमद्भागवतमें लिखा है—

लोकाभिरामां स्वतनुं धारणाध्यानमंगलम्।
योगधारणयाऽऽग्नेय्यादग्ध्वा धामाविशत् स्वकम्॥
(११। ३१। ६)

‘धारणा और ध्यानके लिये अति मंगलरूप अपनी लोकाभिरामा मोहिनी मूर्तिको योग-धारणाजनित अग्निके द्वारा भस्म किये बिना ही भगवान् ने अपने धाममें प्रवेश किया।’

श्रीरामके सम्बन्धमें भी वाल्मीकीय रामायणमें वर्णन आता है कि भगवान् के परमधाम-गमनके समय सब लोकोंके पितामह ब्रह्माजी भगवान् को लेनेके लिये देवताओंके साथ सरयूके तटपर आये और भगवान् से अपने वैष्णवदेहमें प्रवेश करनेकी प्रार्थना की और भगवान् ने उनकी प्रार्थनाको स्वीकार कर तीनों भाइयोंसहित अपने इसी शरीरसे विष्णुशरीरमें प्रवेश किया।३

३-अथ तस्मिन् मुहूर्ते तु ब्रह्मा लोकपितामह: ।

सर्वै: परिवृतो देर्वैऋषिभिश्च महात्मभि:॥

तत: पितामहो वाणीं त्वन्तरिक्षादभाषत ।

आगच्छ विष्णो भद्रं ते दिष्टॺा प्राप्तोऽसि राघव॥

भ्रातृभि: सह देवाभै: प्रविशस्व स्विकां तनुम्।

पितामहवच: श्रुत्वा विनिश्चित्य महामति:।

विवेश वैष्णवं तेज: सशरीर: सहानुज:॥

(वा०, उत्तरकाण्ड ११०। ३, ८, ९, १२)

भगवान् का शरीर मायिक नहीं होता—इसका एक प्रमाण यह भी है कि मायाके बन्धनसे सर्वथा मुक्त आत्माराम मुनिगण भी उनके त्रिभुवनमोहन रूपको देखकर मुग्ध हो जाते हैं, शरीरकी सुध-बुध भूल जाते हैं। यदि वह शरीर मायासे रचित त्रिगुणमय होता तो गुणोंसे सर्वथा ऊपर उठे हुए आत्माराम, आप्तकाम मुनियोंकी ऐसी दशा कैसे हो सकती थी।

जिस समय शर-शय्यापर पड़े हुए भीष्मपितामह मृत्युके समयकी प्रतीक्षा कर रहे हैं, उस समय भगवान् श्रीकृष्णको अपने सम्मुख आया हुआ जान वे सबसे पहले उनके त्रिभुवनकमनीय रूपका हीध्यान करते हैं और उसीमें प्रीति होनेकी प्रार्थना करते हैं*।

* त्रिभुवनकमनं तमालवर्णं रविकरगौरवराम्बरं दधाने।

वपुरलककुलावृताननाब्जं विजयसखे रतिरस्तु मेऽनवद्या॥

(श्रीमद्भा० १। ९। ३३)

‘जो त्रिभुवनसुन्दर और तमालवृक्षके सदृश श्यामवर्ण है, सूर्यरश्मियोंके समान पीताम्बर धारण किये हुए है तथा जिसका मुखकमल अलकावलीसे आवृत है—ऐसे सुन्दर रूपको धारण करनेवाले अर्जुनसखा श्रीकृष्णमें मेरी निष्काम प्रीति हो।’

यदि वह रूप मायिक होता तो भीष्म-जैसे ज्ञानी महात्मा; जिन्होंने सब ओरसे अपनी चित्तवृत्तियोंको हटा लिया था और जिनका सारा जीवन परमवैराग्यमय था, मृत्युके समय उसमें अपने मनको क्यों लगाते?

श्रीराम-लक्ष्मण जब महर्षि विश्वामित्रके साथ धनुषयज्ञ देखने जनकपुर जाते हैं तो जनक-जैसे महान् ज्ञानीकी उस अनुपम जोड़ीको देखकर जो दशा होती है, उसका चित्र गोस्वामी तुलसीदासजीने अपनी लेखनीद्वारा बड़ी मार्मिकतासे चित्रित किया है। उस प्रसंगको उन्हींके शब्दोंमें हम नीचे उद्धृत करते हैं—

मूरति मधुर मनोहर देखी।
भयउ बिदेहु बिदेहु बिसेषी॥
प्रेम मगन मनु जानि नृपु करि बिबेकु धरि धीर।
बोलेउ मुनि पद नाइ सिरु गदगद गिरा गभीर॥
सहज बिरागरूप मनु मोरा।
थकित होत जिमि चंद चकोरा॥
इन्हहि बिलोकत अति अनुरागा।
बरबस ब्रह्मसुखहि मन त्यागा॥
पुनि पुनि प्रभुहि चितव नरनाहू।
पुलक गात उर अधिक उछाहू॥
(श्रीरामचरितमानस, बालकाण्ड)

‘रामजीकी मधुर मनोहर मूर्तिको देखकर विदेह (जनक) विशेषरूपसे विदेह (देहकी सुध-बुधसे रहित) हो गये। मनको प्रेममें मग्न जान राजाने विवेकके द्वारा धीरज धारण किया और मुनिके चरणोंमें सिर नवाकर गद्‍गद (प्रेमभरी) गम्भीर वाणीसे कहा—‘हे नाथ! मेरा मन, जो स्वभावसे ही वैराग्यरूप बना हुआ है, इन बालकोंको देखकर इस तरह मुग्ध हो रहा है जैसे चन्द्रमाको देखकर चकोर। इनको देखते ही अत्यन्त प्रेमके वश होकर मेरे मनने जबर्दस्ती ब्रह्मानन्दको त्याग दिया है। राजा बार-बार प्रभुको देखते हैं, दृष्टि वहाँसे हटना ही नहीं चाहती। प्रेमसे शरीर पुलकित हो रहा है और हृदयमें बड़ा उत्साह है।

ऊपरके विवेचनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि अवतारशरीर मायिक नहीं होता, अवतारोंके जन्म-कर्म अलौकिक होते हैं— ‘जन्म कर्म च मे दिव्यम्’ (गीता ४।९) और वे भक्तोंके प्रेमवश उनपर कृपा करनेके लिये स्वेच्छासे प्रकट होते हैं, कर्मोंके वश होकर नहीं। अब हमें यह देखना है कि अवतारोंकी सत्ता किन-किन शास्त्रोंसे प्रमाणित होती है। श्रीमद्भागवत, गीता, वाल्मीकिरामायण तथा तुलसीकृत रामायणके प्रमाण तो ऊपर उद्धृत किये ही हैं; अब हम उपनिषद् तथा महाभारत आदि ग्रन्थोंके आधारपर भी भगवान् का प्रादुर्भाव होना प्रमाणित करते हैं।

केनोपनिषद्में एक बड़ी सुन्दर कथा आती है। एक बारकी बात है परब्रह्म परमात्माने देवताओंको असुरोंके साथ संग्राममें जिता दिया। देवताओंको इस विजयपर बड़ा भारी गर्व हो गया। उन्होंने सोचा कि यह विजय हमींने अपने पुरुषार्थसे प्राप्त की है। यही हालत सब जीवोंकी है। वास्तवमें करते-कराते सब कुछ भगवान् हैं, परन्तु जीव अभिमानवश अपनेको कर्ता मान लेता है और फँस जाता है। भगवान् तो सर्वज्ञ ठहरे और ठहरे दर्पहारी। देवताओंके अभिप्रायको जान गये और उनके अभिमानको दूर करनेके लिये एक अद्भुत यक्षके रूपमें उनके सामने प्रकट हुए। देवतालोग मायासे मोहित हुए समझ नहीं सके कि यह यक्ष कौन है। भगवान् यदि अपनेको छिपाना चाहें तो किसकी शक्ति है जो उन्हें पहचान सके। वे स्वयं ही जब कृपा करके जिसको अपनी पहचान कराते हैं वही उन्हें पहचान पाता है, दूसरा नहीं—‘सो जानइ जेहि देहु जनाई।’उस महामायावीने अपनेको ऐसे कौशलसे इस मायारूपी पर्देके भीतर छिपा रखा है कि उसे सहसा कोई पहचान ही नहीं सकता। भगवान् ने स्वयं गीतामें कहा है—

नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:।
(७। २५)

‘अपनी योगमायासे छिपा हुआ मैं सबके प्रत्यक्ष नहीं होता हूँ।’ इन्द्रने यक्षका पता लगानेके लिये क्रमश: अग्नि, वायुको उनके पास भेजा। यह बतलानेके लिये कि सारे देवता उन्हींकी शक्तिसे काम करते हैं, देवताओंके पास जो कुछ भी शक्ति है वह उन्हींकी दी हुई है और उनकी शक्तिके बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, ब्रह्मने एक तिनका अग्निदेवताके सामने रखा और कहा कि ‘इसको जलाओ तो।’ अग्निदेवता, जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको जला डालनेका अभिमान रखते थे—अपनी पूरी शक्ति लगाकर भी उस छोटे-से तिनकेको नहीं जला सके और लज्जित होकर वापस चले आये। इसके बाद वायुदेवताकी बारी आयी। उन्हें अभिमान था कि मैं पृथ्वीभरके पदार्थोंको उड़ा ले जा सकता हूँ, परन्तु वे भी एक तिनकेको नहीं हटा सके। हटा सकते भी कैसे? उनकी सारी शक्ति तो ब्रह्मने छीन ली थी, जो उस शक्तिका उद्गमस्थान है। फिर उनके अंदर रह ही क्या गया था, जिसके बलपर वे कोई कार्य करते। भगवान् के भक्तोंके सामने भी अग्नि आदि देवताओंकी शक्ति कुण्ठित हो जाती है। एक बार भक्त प्रह्लादके सामने भी अग्निका कोई बस नहीं चला था, वह उस भक्तके प्रभावसे जलकी तरह शीतल हो गया—‘पावकोऽपि सलिलायतेऽधुना।’ भक्त सुधन्वाके लिये उबलता हुआ तेल ठंडा हो गया था। अस्तु,

अबकी बार देवराज इन्द्र स्वयं यक्षके पास पहुँचे। उन्हें देखते ही यक्ष अन्तर्द्धान हो गये। इतनेहीमें हैमवती उमादेवी (पार्वती) वहाँ प्रकट हुईं और उन्होंने इन्द्रको बतलाया कि जो यक्ष अभी-अभी तुम्हारे नेत्रोंसे ओझल हो गया, वह ब्रह्म ही था। अब तो इन्द्रकीआँखें खुलीं और वे समझ गये कि हमलोगोंका अभिमान चूर्ण करनेकेलिये ही ब्रह्मने यह लीला की थी (केन० खं० ३)। इस प्रकार ब्रह्मके साकार रूपमें प्रकट होनेकी बात उपनिषदोंमें भी आती है; केवल पुराणादि ग्रन्थोंमें ही भगवान् के साकार विग्रहकी बात आयी हो इतनी ही बात नहीं है। गीताके अतिरिक्त महाभारतमें और भी अवतारवादके पोषक कई प्रसंग हैं। उनमेंसे एकाध ही प्रसंगका उल्लेख हम यहाँ करते हैं। महाभारत-युद्धकी समाप्तिके बाद जब भगवान् श्रीकृष्ण द्वारकाको लौट रहे थे, रास्तेमें उनकी महातेजस्वी उत्तंक मुनिसे भेंट हुई। बातों-ही-बातोंमें जब मुनिको मालूम हुआ कि श्रीकृष्ण कौरवों और पाण्डवोंके बीच सन्धि नहीं करा सके और दोनोंमें घमासान युद्ध हुआ, जिसमें सारे कौरव मारे गये, तो उन्हें श्रीकृष्णपर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने कहा कि ‘हे कृष्ण! कौरव तुम्हारे सम्बन्धी थे, तुम चाहते तो युद्धको रोक सकते थे और इस प्रकार उनकी रक्षा कर सकते थे। परन्तु शक्ति रहते भी तुमने उनकी रक्षा नहीं की, इसलिये मैं तुम्हें शाप दूँगा।’ मुनिके इन क्रोधभरे वचनोंको सुनकर श्रीकृष्ण मन-ही-मन हँसे और बोले कि ‘कोई भी पुरुष तप करके मेरा पराभव नहीं कर सकता। मैं नहीं चाहता कि तुम्हारे तपका व्यर्थ ही नाश हो। अत: तुम पहले जान लो कि मैं कौन हूँ, पीछे शाप देनेकी बात सोचना।’ यों कहकर भगवान् ने मुनिके सामने अपनी महिमाका वर्णन करना प्रारम्भ किया। वे कहने लगे—‘हे मुनिश्रेष्ठ! सत्त्व, रज, तम—ये तीनों गुण मेरे आश्रय रहते हैं तथा रुद्र और वसुओंको भी तुम मुझसे ही उत्पन्न हुआ जानो। सारे भूत मुझमें हैं और मैं सब भूतोंके अंदर स्थित हूँ, इसे तुम निश्चय समझो। दैत्य, सर्प, गन्धर्व, राक्षस, नाग और अप्सराओंको भी मुझीसे उत्पन्न हुआ जानो। लोग जिसे सत्-असत्, व्यक्त-अव्यक्त तथा क्षर-अक्षर नामसे पुकारते हैं, वह सब मेरा ही रूप है। चारों आश्रमोंके जो धर्म कहे गये हैं तथा वैदिक कर्म भी मेरा ही रूप है। ओंकारसे आरम्भ होनेवाले वेद, हवनकी सामग्री, हवन करनेवाले होता तथा अध्वर्यु—ये सब मुझे ही जानो। उद्गाता सामगानके द्वारा मेरा ही स्तवन करते हैं, प्रायश्चित्तोंमें शान्तिपाठ और मंगलपाठ करनेवाले भी मेरी ही स्तुति करते हैं। धर्मकी रक्षाके लिये और धर्मकी स्थापनाके लिये मैं बहुत-सी योनियोंमें अवतार ग्रहण करता हूँ। मैं ही विष्णु हूँ, मैं ही ब्रह्मा हूँ, मैं ही उत्पत्ति और प्रलयरूप हूँ। सम्पूर्ण भूतोंको रचनेवाला और संहार करनेवाला मैं ही हूँ। जब-जब युग पलटता है, तब-तब मैं प्रजाजनोंके हितकी कामनासे भिन्न-भिन्न योनियोंमें जन्म धारणकर धर्मकी मर्यादा स्थापित करता हूँ। जब मैं देवयोनि ग्रहण करता हूँ, तब देवताओंका-सा बर्ताव करता हूँ; जब मैं गन्धर्व-योनिमें लीला करता हूँ, तब गन्धर्वोंका-सा व्यवहार करता हूँ; जब मैं नाग-योनिमें होता हूँ तो नागोंकी भाँति आचरण करता हूँ और जब मैं यक्ष आदि योनियोंमें स्थित होता हूँ, तब मैं उन-उन योनियोंका-सा बर्ताव करता हूँ। इस समय मैं मनुष्ययोनिमें हूँ और मनुष्योंका-सा आचरण करता हूँ। इसीलिये मैंने कौरवोंके पास जाकर उनसे सन्धिके लिये बड़ी अनुनय-विनय की; परन्तु मोहसे अंधे हुए उन्होंने मेरी एक भी बात नहीं मानी। मैंने भय दिखाकर भी उन्हें मार्गपर लानेकी चेष्टा की; परन्तु अधर्मसे अभिभूत हुए और कालचक्रमें फँसे हुए वे माने नहीं और अन्तमें युद्ध करके मारे गये।’ भगवान् के इन वचनोंको सुनकर मुनिकी आँखें खुल गयीं। फिर मुनिकी प्रार्थनापर भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें अपना विराट् रूप दिखलाया—वैसा ही जैसा अर्जुनको दिखलाया था (देखिये महाभारत, अश्वमेधपर्व अ० ५३। ५५)।

ऊपरके प्रसंगसे अवतारवादकी भलीभाँति पुष्टि होती है। केवल मनुष्य-योनिमें ही नहीं, अन्यान्य योनियोंमें भी भगवान् अवतार लेते हैं—यह बात भी इससे प्रमाणित हो जाती है; क्योंकि सभी योनियाँ उन्हींकी तो हैं। सभी रूपोंमें वे ही लीला कर रहे हैं। भगवान् के मत्स्य, कूर्म, वाराह, नरसिंह, वामनादि अवतार इसी प्रकारके अवतार थे, जिनका पुराणोंमें विस्तृत वर्णन पाया जाता है। जिनकी चर्चा करनेसे लेखका आकार बहुत बढ़ जायगा। इसीलिये यहाँ केवल भगवान् श्रीराम और भगवान् श्रीकृष्ण—इन दो प्रधान अवतारोंकी बात ही मुख्यतासे कही गयी है।

इनके अतिरिक्त भगवान् का एक अवतार और होता है। इसे अर्चावतार कहते हैं। पूजाके लिये भगवान् की धातु, पाषाण एवं मृत्तिका आदिसे जो प्रतिमाएँ बनायी जाती हैं, वे भगवान् के अर्चा-विग्रह कहलाती हैं। कभी-कभी उपासकके प्रेमबल और दृढ़ निष्ठासे ये मूर्तियाँ चेतन हो जाती हैं, चलने-फिरने लग जाती हैं, हँसने-बोलने लग जाती हैं। इन अर्चा-विग्रहोंमें भगवान् की शक्तिके उतर आनेको अर्चावतार कहते हैं। ऐसे अनेक भक्तोंके चरित्रोंका उल्लेख मिलता है, जिनकी इष्ट मूर्तियाँ उनके साथ चेतनवत् व्यवहार करती थीं। इनमेंसे किसी भी अवतारका आश्रय लेकर भगवान् की भक्ति करनेसे उनकी कृपासे उनके चरणोंमें सहजहीमें दृढ़ अनुराग होकर मनुष्यसदाके लिये कृतकृत्य हो जाता है; यही मनुष्य-जीवनका परम ध्येय है।

अवतारके सिद्धान्तको भिन्न-भिन्न द्वैतसम्प्रदायोंके आचार्योंने तो माना ही है (उनमेंसे कई तो भगवान् श्रीरामके और कई भगवान् श्रीकृष्णके अवतार-विग्रहोंको ही अपना उपास्य एवं सर्वोपरि अवतारी मानते हैं)। अद्वैतसम्प्रदायाचार्य स्वामी श्रीशंकराचार्यजीने भी अपने श्रीमद्भगवद्गीता-भाष्यके उपोद्घातमें भगवान् श्रीकृष्णको आदिपुरुष भगवान् नारायणका अवतार माना है, वे कहते हैं—

दीर्घेण कालेन अनुष्ठातॄणां कामोद्भवाद् हीयमान- विवेकविज्ञानहेतुकेन अधर्मेण अभिभूयमाने धर्मे प्रवर्धमाने च अधर्मे, जगत: स्थितिं परिपिपालयिषु: स आदिकर्ता नारायणाख्यो विष्णु: भौमस्य ब्रह्मणो ब्राह्मणत्वस्य रक्षणार्थं देवक्यां वासुदेवाद् अंशेन कृष्ण: किल संबभूव।

ब्राह्मणत्वस्यहि रक्षणेन रक्षित: स्याद् वैदिको धर्मस्तदधीनत्वाद् वर्णाश्रमभेदानाम्।स च भगवान् ज्ञानैश्वर्यशक्तिबलवीर्यतेजोभिस्सदा सम्पन्नस्त्रिगुणात्मिकां वैष्णवीं स्वां मायां मूलप्रकृतिं वशीकृत्य अजोऽव्ययो भूतानामीश्वरो नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावोऽपि सन् स्वमायया देहवान् इव जात इव च लोकानुग्रहं कुर्वन्निव लक्ष्यते।

‘बहुत कालसे धर्मानुष्ठान करनेवालोंके अन्त:करणमें कामनाओंका विकास होनेसे विवेक-विज्ञानका ह्रास हो जाना ही जिसकी उत्पत्तिका कारण है, ऐसे अधर्मसे जब धर्म दबता जाने लगा और अधर्मकी वृद्धि होने लगी तब जगत् की स्थिति सुरक्षित रखनेकी इच्छावाले वे आदिकर्ता नारायण नामक श्रीविष्णुभगवान् भूलोकके ब्रह्मकी अर्थात् ब्राह्मणत्वकी रक्षा करनेके लिये श्रीवसुदेवजीसे श्रीदेवकीजीके गर्भमें अपने अंशसे श्रीकृष्णरूपमें प्रकट हुए।

ब्राह्मणत्वकी रक्षासे ही वैदिक धर्म सुरक्षित होगा; क्योंकि वर्णाश्रमोंके भेद उसीके अधीन हैं।

ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेज आदि गुणोंसे सदा सम्पन्न वे भगवान् यद्यपि अज, अविनाशी सम्पूर्ण भूतोंके ईश्वर और नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव हैं; तो भी अपनी त्रिगुणात्मिका मूलप्रकृति वैष्णवी मायाको वशमें करके अपनी लीलासे शरीरधारीकी तरह उत्पन्न हुए-से और लोगोंपर अनुग्रह करते हुए-से दीखते हैं।’ इस प्रकार अनेक युक्तियोंसे स्वामी श्रीशंकराचार्यजीने श्रीकृष्णकी भगवत्ता और वेदान्तप्रतिपाद्य ब्रह्मके साथ एकता दिखलायी है। अब हम उन्हीं परमदयालु परमात्मा भगवान् श्रीकृष्णको बारम्बार प्रणाम करते हुए अन्तिम बात कहकर अपने लेखको समाप्त करते हैं।

जो लोग अपने पुरुषार्थसे भगवान् को पानेमें अपनेको सर्वथा असमर्थ अनुभव करते हैं, जो निरन्तर केवल उन्हींकी कृपाकी बाट जोहते रहते हैं तथा मातृपरायण शिशुकी भाँति उन्हींपर सर्वथा निर्भर हो जाते हैं उनसे मिलनेके लिये भगवान् स्वयं आतुर हो उठते हैं और उसी प्रकार दौड़ पड़ते हैं जैसे नयी ब्याई हुई गौ अपने बछड़ेसे मिलनेके लिये दौड़ पड़ती है। अतएव हमलोगोंको भी परम दयालु भगवान् के दयापात्र बननेके लिये उनके शरण होकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक तत्परताके साथ नित्य-निरन्तर उनका भजन-ध्यान और उनकी आज्ञाके अनुसार आचरण करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur