Seeker of Truth

आत्माके सम्बन्धमें कुछ प्रश्नोत्तर

आत्माके सम्बन्धमें कई सज्जनोंके कुछ प्रश्न मेरे पास आये हैं। उन सबके प्रश्नोंको एकत्र कर सबके उत्तर एक ही साथ अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार नीचे दिये जाते हैं। प्रश्नोंकी भाषा आवश्यकतानुसार कुछ बदल दी गयी है। प्रश्न संक्षेपमें इस प्रकार हैं—

(१) ‘जीव’, ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ के अलग-अलग लक्षण बतलाते हुए आपने लिखा है कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण—इन तीनों शरीरोंके सम्बन्धसे रहित व्यष्टि-चेतनका नाम ‘आत्मा’ है। इसको कूटस्थ भी कहते हैं।’ इसपर यह शंका होती है कि एक, दो या तीन शरीरोंके आवरणसहित चेतनको तो व्यष्टि-चेतन कह सकते हैं; परन्तु इन शरीरोंके आवरणके अतिरिक्त चेतनका और कौन-सा आवरण है, जिससे उसकी व्यष्टि-सत्ता बनी रह सकती है? और आवरणरहितको व्यष्टि कैसे कह सकते हैं? यदि आवरणके बिना भी चेतन व्यष्टिरूपमें रह सकता है तो फिर व्यष्टि और समष्टिमें अन्तर ही क्या रहा? और आत्माके स्वरूपको समझानेके लिये आपने जो खाली घटमें रहनेवाले आकाशका दृष्टान्त दिया है, वह आपके ही कथनानुसार आत्मामें लागू नहीं होता; क्योंकि दृष्टान्तमें घटरूपी आवरण मौजूद है। आपके उत्तरसे जान पड़ रहा है कि आपने अद्वैत-सिद्धान्तके अनुसार उत्तर दिया है। किन्तु आपके कथनानुसार यदि शरीरोंके आवरण बिना आत्माकी व्यष्टि-सत्ता बनी रह सकती है, तो अनेकात्मवाद मानना पड़ेगा। उस हालतमें अद्वैत-सिद्धान्त और द्वैत-सिद्धान्तमें भेद ही क्या रह जायगा?

(२) स्थूलशरीर, सूक्ष्मशरीर और कारणशरीरकी परिभाषा क्या है? तथा महाप्रलयके समय जीवका केवल कारणशरीरके साथ सम्बन्ध रहता है, यह कहनेका क्या अभिप्राय है? और मन-बुद्धिका कारणशरीरमें लय हो जाना किसे कहते हैं?

(३) जाग्रत्-अवस्था, स्वप्नावस्था, सुषुप्ति-अवस्था और तुरीयावस्थाका क्या स्वरूप है?

(४) डॉक्टरलोग जो क्लोरोफार्म आदिका प्रयोग करके कृत्रिम मूर्च्छा ले आते हैं, उसमें कष्टका अनुभव क्यों नहीं होता? तथा उस कृत्रिम मूर्च्छाके लानेका क्या मतलब है?

(५) स्थूलशरीरसे सूक्ष्मशरीरके साथ जीवका प्रस्थान कब होता है—हृदयकी गति बंद होनेपर या पहले ही?

(६) जीवके एक शरीर छोड़कर दूसरे शरीरमें प्रवेश करनेमें कुछ समय लगता है या तुरंत उसे दूसरी योनि मिल जाती है? यदि समय लगता है तो कितना समय लगता है तथा उतने समयतक जीव कहाँ रहता है? सूक्ष्मशरीरसे जीव किसी दूसरे स्थूलशरीरमें प्रवेश कर सकता है या नहीं?

(७) एक जन्ममें जो पुरुष है, वह क्या दूसरे जन्मोंमें भी पुरुष ही रहेगा और इस जन्ममें जो स्त्री है, क्या उसे प्रत्येक जन्ममें स्त्रीका शरीर ही मिलेगा? अथवा इसमें परिवर्तन भी हो सकता है?

(८) एक बार मनुष्य-जन्म मिलनेपर क्या दुबारा मनुष्य-जन्म ही मिलेगा या दूसरी योनि भी मिल सकती है? यदि किसी मनुष्यको मरनेपर दूसरी योनि प्राप्त हुई तो वह अन्य योनियोंमें कबतक रहेगा और उसे पुन: मनुष्ययोनि कब मिलेगी?

ऊपर लिखे हुए प्रश्नोंका उत्तर क्रमश: नीचे दिया जाता है—

(१) आपकी शंका बिलकुल युक्तियुक्त है। आपका यह कहना ठीक ही है कि स्थूल, सूक्ष्म और कारण—तीनों शरीरोंसे सम्बन्ध छूट जानेपर अद्वैत-सिद्धान्तके अनुसार जीवका व्यष्टिभाव नहीं रह जाता, वह समष्टिके साथ मिल जाता है। इसीका नाम कैवल्य-मुक्ति या निर्वाण है। ‘जीव’ और ‘आत्मा’ का भेद समझानेके लिये तथा इन दोनों संज्ञाओंकी पृथक्-पृथक् उपपत्ति बतलानेके लिये ही यह बात लिखी गयी थी कि उपर्युक्त शरीरोंमेंसे एक, दो या तीनोंसे सम्बन्धित चेतनका नाम ‘जीव’ है और इन तीनोंके सम्बन्धसे रहित व्यष्टि-चेतनका नाम ‘आत्मा’ है। वास्तवमें तीनों आवरणोंसे रहित आत्माकी कोई व्यष्टि-सत्ता रहती हो सो बात नहीं है। अवश्य ही, जैसा कि आपने लिखा है, अद्वैत-सिद्धान्तके अनुसार ‘आत्मा’ और ‘परमात्मा’ में कोई वास्तविक भेद नहीं है; केवल नामका ही भेद है। किन्तु एक या एकसे अधिक शरीरोंका आवरण रहनेपर भी चेतन तो उनके साथ रहता ही है, त्रिविध शरीरोंसे पृथक् केवल उस चेतनको द्योतित करनेके लिये ही ‘आत्मा’ का ऐसा लक्षण किया गया था। दृष्टान्तमें भी ऐसी ही बात समझनी चाहिये। यद्यपि घटरूप आवरणसे पृथक् घटावच्छिन्न आकाशकी कल्पना नहीं की जा सकती, किन्तु घटसे भिन्न उसके स्वरूपको समझानेके लिये ही उसकी पृथक् संज्ञा की जाती है। सिद्धान्तकी दृष्टिसे तो आपका कहना ठीक ही है। उसके सम्बन्धमें हमको कोई विप्रतिपत्ति नहीं है।

(२) स्थूल पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश)- से बने हुए देव, तिर्यक्, मनुष्य, सरीसृप, कीट-पतंगादि भेदसे अनेकों भेदवाले व्यक्त शरीरका नाम ‘स्थूलशरीर’ है। इस शरीरके साथ संयोग और वियोग होनेका नाम ही जन्म और मृत्यु है। इस शरीरको लेकर ही प्राणियोंके अनेक भेद-दृष्टिगोचर होते हैं।

पंच ज्ञानेन्द्रिय, पंच कर्मेन्द्रिय, पंच प्राण तथा मन, बुद्धि—इन सत्रह तत्त्वोंसे बने हुए अव्यक्त शरीरका नाम सूक्ष्मशरीर है। मृत्युके समय एक स्थूलशरीरसे दूसरे स्थूलशरीरमें गमनागमन इसीका होता है। इसीके गमनागमनका आत्मापर आरोप होनेसे आत्माका गमनागमन कहा जाता है, वास्तवमें आत्मा सर्वव्यापी होनेके कारण अचल है। यह हमलोगोंकी इन्द्रियोंका विषय न होनेके कारण ‘सूक्ष्म’ कहलाता है। सूक्ष्मशरीर प्राणमय होनेके कारण वायुप्रधान होता है। इसे ‘लिंगशरीर’ भी कहते हैं। स्वप्नावस्थामें जीव प्रधानरूपसे इसीके साथ सम्बद्ध रहता है।

कारणशरीर केवल प्रकृतिका बना हुआ होता है। इसको स्वभाव भी कहते हैं। सूक्ष्मशरीर स्थूलशरीरकी अपेक्षा सूक्ष्म होनेपर भी कारणशरीरकी अपेक्षा स्थूल है। गाढ़ निद्रा तथा मूर्च्छाकी अवस्थामें जीवका केवल इसी शरीरके साथ सम्बन्ध रहता है, स्थूल एवं सूक्ष्म दोनों ही शरीरोंके साथ उसका सम्बन्ध नहीं रहता। महाप्रलयके समय जब महत्तत्त्वपर्यन्त सारी प्राकृतिक सृष्टि महाकारण अर्थात् मूल प्रकृति (अव्याकृत माया)-में लीन हो जाती है, उस समय जीव इसी कारणशरीरसे संश्लिष्ट होकर प्रकृतिरूप कारणाब्धिमें लीन रहते हैं और महासर्गके आदिमें—जब प्रकृतिमें क्षोभ होता है—पुन: पूर्वकर्मोंके अनुसार सूक्ष्मशरीरको प्राप्त हो जाते हैं और फिर क्रमश: स्थूलशरीरको ग्रहण करते हैं।

सुषुप्ति एवं मूर्च्छाकी अवस्थामें तथा महाप्रलयके समय इन्द्रिय तथा मन-बुद्धिकी प्रकृतिसे अलग सत्ता नहीं रहती। वे इन्द्रिय, मन और बुद्धि अपने कारण—प्रकृति—में लीन हो जाते हैं। इसीलिये उस समय जीवको सुख-दु:खका बोध नहीं होता; उनके कारणशरीरमें लीन हो जानेका यही भाव है।

(३) जाग्रत्-अवस्थाका अर्थ है जागनेकी अवस्था। जिस समय हमारे स्थूल, सूक्ष्म और कारण—तीनों शरीर संयुक्त होकर कार्य करते हैं, इन्द्रिय एवं मनके साथ-साथ शरीर भी सचेष्ट रहता है, कर्मेन्द्रियाँ सजग रहती हैं, शरीरमें चेतना रहती है, उस अवस्थाको जाग्रत् अवस्था कहते हैं।

जिस समय हमारा स्थूलशरीर निश्चेष्ट रहता है; केवल सूक्ष्मशरीर जाग्रत् रहता है—एवं इन्द्रिय, मन, बुद्धिकी चेष्टा भीतर-ही-भीतर चालू रहती है, मन, बुद्धि एवं इन्द्रियोंके द्वारा हम अनेक प्रकारके दृश्योंकी कल्पना करके सुख-दु:खका अनुभव करते हैं, स्थूलशरीरके एक ही स्थानपर सोये रहनेपर भी सूक्ष्मशरीरके द्वारा भिन्न-भिन्न स्थानोंकी सैर करते हैं और भिन्न-भिन्न व्यक्तियोंसे मिलते हैं, जिस समय हमारी इन्द्रियाँ स्थूलशरीरसे वियुक्त होकर कार्य करती हैं, स्थूल विषयोंके साथ संयोग न होनेपर भी सूक्ष्म विषयोंका उपभोग करती हैं—उस अवस्थाका नाम स्वप्नावस्था है।

गाढ़ निद्राकी स्थितिको सुषुप्ति अवस्था कहते हैं। इसमें स्थूल और सूक्ष्म दोनों शरीर निश्चेष्ट हो जाते हैं, दोनोंका कार्य बंद हो जाता है। केवल प्राणोंका व्यापार बंद नहीं होता, श्वास-प्रश्वासकी क्रिया चलती रहती है। इन्द्रिय तथा मन, बुद्धि इस अवस्थामें अपने कारण—प्रकृति अर्थात् अज्ञान—में लीन हो जाते हैं। इसलिये जीवको उस समय किसी पदार्थका कुछ भी ज्ञान नहीं रहता। गाढ़ निद्राके बाद जब हम जागते हैं तो कहते हैं कि ऐसी नींद आयी कि हमें कुछ चेत ही न रहा। सुषुप्तिकी अवस्था मूर्च्छाकी-सी अवस्था होती है। इसमें चिन्ता, शोक, पीड़ा आदिका भी उतने समयके लिये तो नाश ही हो जाता है। इसीलिये हमलोग जब बहुत थक जाते हैं अथवा मानसिक चिन्ता तथा शारीरिक पीड़ा आदिसे व्यथित होते हैं तो निद्राका आवाहन करते हैं।

यह ऊपर बतलाया जा चुका है कि जाग्रत् अवस्थामें स्थूल, सूक्ष्म और कारण—तीनों शरीरोंसे आत्माका सम्बन्ध रहता है; स्वप्नावस्थामें उसका सूक्ष्म और कारण दो ही शरीरोंसे सम्बन्ध रहता है, स्थूलशरीरसे सम्बन्ध छूट जाता है। स्थूलशरीर चाहे कंकड़ोंपर पड़ा रहे अथवा उसमें घोर पीड़ा हो रही हो, स्वप्नकी अवस्थामें यदि हम इन्द्रलोककी सैर कर रहे होते हैं तो उतने समयके लिये हम अपने स्थूलशरीरमें चुभनेवाले कंकड़ोंको तथा उनसे होनेवाली पीड़ाको बिलकुल भूले रहेंगे। इसी प्रकार हम मखमलके गद्देपर लेटे हुए हों, पंखा चल रहा हो और दासियाँ हमारे पैर पलोट रही हों तथा चारों ओरसे हम सुरक्षित हों, किन्तु यदि उस समय स्वप्नमें हम किसी घोर जंगलमें पहुँच गये और वहाँ बाघ आकर हमको खाने लगा अथवा हम किसी नदीमें डूबने लगे अथवा चोर-डाकुओंद्वारा पीटे जाने लगे तो उस समय वह मखमलका गद्दा, जिसपर हम स्थूलशरीरसे लेटे हुए हैं, हमें आराम नहीं पहुँचायेगा और हमारे दास-दासी शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित होनेपर भी हमारी उस बाघसे अथवा चोर-डाकुओंसे रक्षा नहीं कर सकेंगे और न हमें नदीमें डूबनेसे बचा सकेंगे। सुषुप्ति-अवस्थामें हमारा केवल कारणशरीरसे सम्बन्ध रहता है, स्थूल और सूक्ष्म दोनोंसे नहीं रहता। स्थूलशरीर उस समय बिलकुल निश्चेष्ट पड़ा रहता है और सूक्ष्मशरीर अपने कारणमें लीन हो जाता है; केवल प्राणोंकी क्रिया चालू रहती है। इन तीनों अवस्थाओंसे विलक्षण चौथी अवस्था-तुरीयावस्था वह है, जिसमें आत्माका उक्त तीनों शरीरोंसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता। यह जीवन्मुक्त महात्माओंकी अवस्था है। इस चौथी अवस्थाको प्राप्त होनेपर जीवका व्यष्टिभाव नष्ट होकर वह समष्टिमें मिल जाता है, इसीको आत्माकी स्वरूपावस्था कहते हैं। यह वास्तवमें कोई अवस्था नहीं है, आत्माका स्वरूप ही है। जिज्ञासुओंको पहली तीन अवस्थाओंसे इसकी विलक्षणता बतलानेके लिये ही इसको ‘अवस्था’ संज्ञा दी गयी है। इस अवस्थाको प्राप्त हुए महापुरुषोंका केवल दूसरोंके देखनेमें ही शरीरादिसे सम्बन्ध रहता है, वास्तवमें उनसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता। उनके कहलानेवाले शरीरादिका संचालन फिर प्रारब्धानुसार समष्टि-चेतनके सकाशसे होता रहता है।

(४) क्लोरोफार्म आदिके प्रयोगसे शरीर, इन्द्रिय, मन, बुद्धि आदिकी प्राय: वही अवस्था हो जाती है जो सुषुप्ति-अवस्थामें अथवा स्वाभाविक मूर्च्छाकी दशामें होती है। अर्थात् उस समय स्थूलशरीर बिलकुल निश्चेष्ट हो जाता है और सूक्ष्मशरीरकी क्रिया भी बंद हो जाती है। केवल प्राणोंकी गति बंद नहीं होती, श्वास-प्रश्वासकी क्रिया चालू रहती है। इन्द्रिय, मन, बुद्धि ही सुख-दु:खके अनुभवके द्वार हैं और ये सब उस समय अपने कारण—प्रकृतिमें लीन हो जाते हैं; अतएव उस अवस्थामें अंगोंके काटे जानेपर भी पीड़ा नहीं होती और न उनके काटे जानेका ज्ञान ही रहता है। इसीलिये डॉक्टरलोग चीर-फाड़ करते समय इन द्रव्योंका उपयोग करते हैं, जिससे वह कार्य आसानीसे हो सके और रोगीको कष्ट भी न हो।

(५) स्थूलशरीरसे सूक्ष्मशरीरके साथ जीवका प्रस्थान हृदयकी गति बंद होनेके बाद ही होता है। जबतक हृदयमें धड़कन रहती है, तबतक जीवका प्रस्थान नहीं माना जा सकता। हृदयकी धड़कन बंद हो जानेके बाद भी कुछ समयतक जीव रह सकता है और यह भी सम्भव है कि हृदयकी धड़कन इतनी सूक्ष्म हो कि दूसरोंको उसका पता न लगे। अत: हृदयकी धड़कन बंद हो जानेपर भी जीवकी स्थिति शरीरमें रह सकती है; परन्तु इसके विपरीत जबतक हृदयमें धड़कन रहती है, तबतक तो जीवका रहना निश्चित ही है।

(६) प्राणोंका जिस क्षणमें शरीरसे वियोग होता है, जीवका सूक्ष्मशरीर तो उसी क्षण बदल जाता है। जीवको अन्तिम क्षणमें जिस भावकी स्मृति होती है, उसीके आकारका उसका सूक्ष्मशरीर तुरंत बन जाता है, जिस प्रकार कैमरेपर जिस वस्तुका प्रतिबिम्ब पड़ता है, उसके लेंस (शीशे)-पर वैसा ही चित्र अंकित हो जाता है, उसी प्रकार प्रयाणकालमें अन्त:करणपर जिस शरीरका चिन्तन होता है, उसका सूक्ष्मशरीर उसी आकारका बन जाता है। रह गयी स्थूलशरीरकी बात, सो जिस प्रकार कैमरेपर पड़े हुए प्रतिबिम्बके अनुसार फोटो तैयार करनेमें समयकी अपेक्षा होती है, उसी प्रकार बदले हुए सूक्ष्मशरीरके अनुरूप स्थूलशरीरके तैयार होनेमें भी समय लगता है और यह समय प्राप्त होनेवाली योनिके भेदसे न्यूनाधिक होता है। जीवकी त्रिविध गति गीता (१४। १८)-में बतलायी गयी है—‘ऊर्ध्व, मध्यम और अधम।’ ऊर्ध्व गतिको जानेवाले जीव धूममार्ग अथवा अर्चिमार्गसे ऊपरके लोकोंको जाते हैं, मध्यम गतिको प्राप्त होनेवाले जीव मनुष्ययोनिमें जन्म ग्रहण करते हैं और अधम गतिको प्राप्त होनेवाले जीव पशु-पक्षी, कीट-पतंगादि तिर्यक् योनियों अथवा वृक्षादि स्थावर योनियोंमें जन्म लेते हैं या नरकको प्राप्त होते हैं।

सकामभावसे शुभ कर्म अथवा उपासना करनेवाले जीव धूम-मार्गसे चन्द्रलोकादि दिव्य लोकोंमें जाकर देवशरीरको प्राप्त करते हैं। उन्हें उन दिव्य लोकोंमें पहुँचनेके लिये गीतादि शास्त्रोंके अनुसार क्रमश: धूम, रात्रि, कृष्णपक्ष तथा दक्षिणायन आदिके अभिमानी देवताओंके स्वरूपको प्राप्त होकर जाना होता है और वहाँ वे अपने पुण्योंके अनुसार एक निश्चित अवधितक दिव्य सुख भोगकर पुन: मर्त्यलोकमें जन्म लेते हैं।

निष्काम कर्म अथवा निष्काम उपासना करनेवाले जीवोंमेंसे जिनकी आत्मज्ञान होकर यहाँ मुक्ति हो जाती है, उनका तो कहीं गमनागमन होता नहीं। उनके प्राणोंका उत्क्रमण नहीं होता—‘न तस्य प्राणा उत्क्रामन्ति।’ (बृ० उ० ४। ४। ६) इनसे भिन्न जो कैवल्यमुक्ति नहीं चाहते, वे क्रमश: अग्नि, ज्योति, दिन, शुक्लपक्ष और उत्तरायण आदिके अभिमानी देवताओंके स्वरूपको प्राप्त होते हुए अमानव पुरुषके द्वारा दिव्य अप्राकृत शरीरसे भगवान् के परमधामको ले जाये जाते हैं और अधिकारानुसार वहाँ भगवान् के सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य अथवा सायुज्यको प्राप्तकर अलौकिक सुखका अनुभव करते हैं और फिर लौटकर मर्त्यलोकमें नहीं आते।

जो जीव कर्मानुसार मरनेके बाद मनुष्ययोनिको प्राप्त होते हैं अथवा पशु-पक्षी, कीट-पतंगादि मूढ़ योनियोंको प्राप्त होते हैं, वे वायुरूपसे उन-उन योनियोंके खाद्य पदार्थमें प्रवेश कर जाते हैं। जिस पिताके वीर्यसे उनका जन्म होनेको होता है, वह उसे खाता है और उसका परिपाक होकर जब वीर्य बनता है तो उस वीर्यके साथ वे माताकी योनिमें प्रवेश करते हैं और वहाँ-वहाँ उस-उस योनिके शरीरको धारण करते हैं। इनके अतिरिक्त जो मनुष्य घोर पाप करते हैं वे यातनाशरीर प्राप्तकर विविध नरकोंकी यातना भोगते हैं और भोग समाप्त होनेपर पुन: मर्त्यलोकमें आकर स्थूलशरीर धारण करते हैं।

सूक्ष्मशरीरसे जीव दूसरे स्थूलशरीरमें प्रवेश कर सकता है। जिन योगियोंको परकाय-प्रवेशकी सिद्धि प्राप्त होती है, वे अपने स्थूलशरीरमेंसे इच्छानुसार निकलकर दूसरे किसी मृतशरीरमें प्रवेश कर सकते हैं। इस प्रकारके उदाहरण इतिहासमें मिलते हैं। इसके अतिरिक्त योगबलसे एक शरीर छोड़कर दूसरे जीवित शरीरमें भी सूक्ष्मशरीरद्वारा प्रवेश करनेकी शक्ति प्राप्त की जा सकती है। महाभारत, शान्तिपर्वके ३२० वें अध्यायमें सुलभा नामकी एक संन्यासिनीका उल्लेख आता है, जिसने अपने योगबलसे राजा जनकके शरीरमें प्रवेश किया था।

(७) जो लोग एक जन्ममें पुरुष होते हैं, वे प्राय: आगेके जन्मोंमें भी पुरुष ही होते हैं और जिन्हें एक जन्ममें स्त्रीका शरीर मिला है, उन्हें प्राय: आगे भी स्त्रीका शरीर ही मिलेगा, चाहे वे किसी भी योनिमें जायँ। परन्तु यह कोई अटल नियम नहीं है। इसमें परिवर्तन भी हो सकता है। गुण, कर्म और स्वभावके अनुसार ही मनुष्यको दूसरी देह प्राप्त होती है। यदि किसी पुरुषका इस जन्ममें स्त्रियोंका-सा स्वभाव बन गया हो, उसमें स्त्रियोंके-से गुण आ गये हों अथवा उसने जीवनभर स्त्रियोंके-से कर्म किये हों तो उसे अगले जन्ममें स्त्रीका ही शरीर मिले, यह बहुत सम्भव हो जाता है। इसी प्रकार यदि किसी पुरुषका चित्त अन्त समयमें स्त्रीका चिन्तन करनेमें लगा हो, तब भी उसका अगले जन्ममें स्त्री होना सम्भव है। यही बात स्त्रियोंके लिये भी लागू होती है। दूसरे जन्मकी तो बात ही क्या है, इसी जन्ममें स्त्रीके पुरुषरूपमें और पुरुषके स्त्रीरूपमें परिवर्तन होनेकी बात इतिहासमें आती है। शिखण्डीके स्त्रीसे पुरुष हो जानेका वर्णन महाभारतमें मिलता है। अर्वाचीन कालमें भी गोस्वामी तुलसीदासजीके वरदानसे एक कन्याके बालकके रूपमें परिवर्तित हो जानेकी बात उनकी जीवनीमें आयी है। वर्तमान कालमें भी इस प्रकारकी घटनाएँ यूरोप आदि देशोंमें हुई सुनी जाती हैं।

(८) एक बार किसी जीवको मनुष्ययोनि मिल जानेपर सदाके लिये उसे मनुष्ययोनिका पट्टा मिल जाता है, ऐसी बात नहीं समझनी चाहिये। ऐसा माननेसे भगवान् में निर्दयता और वैषम्यका दोष घटता है और कर्मसिद्धान्तमें भी विरोध आता है। इसका अर्थ तो यह होगा कि एक बार जिसे मनुष्यजन्म मिल गया, वह चाहे कितने ही पाप क्यों न करे, उसे मनुष्ययोनिसे नीचे नहीं ढकेला जायगा। परन्तु ऐसी बात है नहीं। जीवोंको गुण-कर्मके अनुसार ही अच्छी-बुरी योनियाँ प्राप्त होती हैं (गीता ४। १३; १३। २१)। अच्छे कर्म करनेपर हमें मनुष्ययोनि ही क्यों, देवयोनि भी मिल सकती है, भगवान् तककी प्राप्ति हो सकती है। परन्तु मनुष्य यदि पापकर्म करता है तो उसे दुबारा मनुष्ययोनि मिलनेका कोई कारण नहीं रह जाता। पापी मनुष्यको भी पुन: मनुष्य-शरीर देना उसके पापोंको प्रोत्साहन देना होगा। भगवान् ऐसा कभी नहीं कर सकते। पापी मनुष्योंके मनुष्ययोनिसे ढकेले जाने तथा बार-बार आसुरी योनियोंमें गिराये जानेकी बात तो स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने अपने श्रीमुखसे कही है (गीता १६। १९, २०)। इतिहासमें भी पापी मनुष्योंके नीचेकी योनियोंमें तथा नरकादिमें ढकेले जानेकी बात जगह-जगह आयी है। पापियोंकी तो बात ही क्या, राजर्षि भरत-जैसे धर्मात्मा तपस्वी एवं गृहत्यागी पुरुषके मरते समय एक मृगछौनेमें अन्त:करणकी वृत्ति अटकी रह जानेके कारण मृगयोनिको प्राप्त होनेकी बात श्रीमद्भागवतादि ग्रन्थोंमें आती है। इन सब बातोंसे यह सिद्ध होता है कि मनुष्यको मरनेके बाद मनुष्ययोनि ही मिले, यह आवश्यक नहीं है। बल्कि वर्तमान युगके मनुष्योंके आचरण देखते हुए तो उन्हें फिरसे जल्दी ही मनुष्ययोनि मिलनेकी सम्भावना कम ही मालूम होती है। युक्तिसे तो यह बात मालूम होती है कि बारी-बारीसे सभी जीवोंको मनुष्य होनेका सौभाग्य मिलना चाहिये; क्योंकि मुक्तिका अधिकार मनुष्ययोनिमें ही है, इस न्यायसे भी जल्दी मनुष्ययोनि मिलनेकी सम्भावना नहीं है। शास्त्रोंमें भी मनुष्य-शरीरको अत्यन्त दुर्लभ बतलाया गया है। इससे भी यही बात सिद्ध होती है। मनुष्यजन्मका मौका तो भगवान् जीवको कभी-कभी ही देते हैं। गोस्वामी तुलसीदासजीने कहा है—

कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥

परन्तु इससे यह भी नहीं मानना चाहिये कि मनुष्ययोनिके बाद फिर मनुष्ययोनि मिल ही नहीं सकती। मनुष्योचित कर्म करनेवालोंको पुन: मनुष्ययोनि भी मिल सकती है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur