अनन्य प्रेम ही भक्ति है
अनिर्वचनीय ब्रह्मानन्दकी प्राप्तिके लिये भगवद्भक्तिके सदृश किसी भी युगमें अन्य कोई भी सुगम उपाय नहीं है। कलियुगमें तो है ही नहीं। परन्तु यह बात सबसे पहले समझनेकी है कि भक्ति किसे कहते हैं? भक्ति कहनेमें जितनी सहज है, करनेमें उतनी ही कठिन है। केवल बाह्याडम्बरका नाम भक्ति नहीं है। भक्ति दिखानेकी चीज नहीं, वह तो हृदयका परम गुप्त धन है। भक्तिका स्वरूप जितना गुप्त रहता है उतना ही वह अधिक मूल्यवान् समझा जाता है। भक्ति-तत्त्वका समझना बड़ा कठिन है। अवश्य ही उन भाग्यवानोंको इसके समझनेमें बहुत आयास या श्रम नहीं करना पड़ता, जो उस दयामय परमेश्वरके शरण हो जाते हैं। अनन्य शरणागत भक्तको भक्तिका तत्त्व परमेश्वर स्वयं समझा देते हैं। एक बार भी जो सच्चे हृदयसे भगवान् के शरण हो जाता है, भगवान् उसे अभय कर देते हैं, यह उनका व्रत है—
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते।
अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम॥
(वा० रा० ६।१८।३३)
भगवान् की शरणागति एक बड़े ही महत्त्वका साधन है परन्तु उसमें अनन्यता होनी चाहिये। पूर्ण अनन्यता होनेपर भगवान् की ओरसे तुरंत ही इच्छित उत्तर मिलता है। विभीषण अत्यन्त आतुर होकर एकमात्र श्रीरामके आश्रयमें ही अपनी रक्षा समझकर श्रीरामके शरण आता है। भगवान् राम उसे उसी क्षण अपना लेते हैं। कौरवोंकी राजसभामें सब तरफसे निराश होकर देवी द्रौपदी ज्यों ही अशरण-शरण श्रीकृष्णको स्मरण करती है त्यों ही चीर अनन्त हो जाता है। अनन्य शरणके यही उदाहरण हैं। यह शरणागति सांसारिक कष्ट-निवृत्तिके लिये थी। इसी भावसे भक्तको भगवान् के लिये ही भगवान् के शरणागत होना चाहिये। फिर तत्त्वकी उपलब्धि होनेमें विलम्ब नहीं होगा।
यद्यपि इस प्रकार भक्तिका परम तत्त्व भगवान् के शरण होनेसे ही जाना जा सकता है तथापि शास्त्र और संत-महात्माओंकी उक्तियोंके आधारपर अपना अधिकार न समझते हुए भी अपने चित्तकी प्रसन्नताके लिये मैं जो कुछ लिख रहा हूँ इसके लिये भक्तजन मुझे क्षमा करें।
परमात्मामें परम अनन्य विशुद्ध प्रेमका होना ही भक्ति कहलाता है। श्रीमद्भगवद्गीतामें अनेक जगह इसका विवेचन है, जैसे—
‘मयि चानन्ययोगेन भक्तिरव्यभिचारिणी।’ (१३।१०)‘मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते।’ (१४।२६)
आदि। इसी प्रकारका भाव नारद और शाण्डिल्य-सूत्रोंमें पाया जाता है। अनन्य प्रेमका साधारण स्वरूप यह है—एक भगवान् के सिवा अन्य किसीमें किसी समय भी आसक्ति न हो, प्रेमकी मग्नतामें भगवान् के सिवा अन्य किसीका ज्ञान ही न रहे। जहाँ-जहाँ मन जाय वहीं भगवान् दृष्टिगोचर हों। यों होते-होते अभ्यास बढ़ जानेपर अपने-आपकी विस्मृति होकर केवल एक भगवान् ही रह जायँ। यही विशुद्ध अनन्य प्रेम है। परमेश्वरमें प्रेम करनेका हेतु केवल परमेश्वर या उनका प्रेम ही हो—प्रेमके लिये ही प्रेम किया जाय, अन्य कोई हेतु न रहे। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और इस लोक तथा परलोकके किसी भी पदार्थकी इच्छाकी गन्ध भी साधकके मनमें न रहे, त्रैलोक्यके राज्यके लिये भी उसका मन कभी न ललचावे। स्वयं भगवान् प्रसन्न होकर भोग्य-पदार्थ प्रदान करनेके लिये आग्रह करें तब भी न ले। इस बातके लिये यदि भगवान् रूठ जायँ तो भी परवा न करे। अपने स्वार्थकी बातें सुनते ही उसे अतिशय वैराग्य और उपरामता हो। भगवान् की ओरसे विषयोंका प्रलोभन मिलनेपर मनमें पश्चात्ताप होकर यह भाव उदय हो कि, ‘अवश्य ही मेरे प्रेममें कोई दोष है, मेरे मनमें सच्चा विशुद्ध भाव होता और इन स्वार्थकी बातोंको सुनकर यथार्थमें मुझे क्लेश होता तो भगवान् इनके लिये मुझे कभी न ललचाते।’ विनय, अनुरोध और भय दिखलानेपर भी परमात्माके प्रेमके सिवा किसी भी हालतमें दूसरी वस्तु स्वीकार न करे, अपने प्रेम-हठपर अटल-अचल रहे। वह यही समझता रहे कि भगवान् जबतक मुझे नाना प्रकारके विषयोंका प्रलोभन देकर ललचा रहे हैं और मेरी परीक्षा ले रहे हैं, तबतक मुझमें अवश्य ही विषयासक्ति है। सच्चा प्रेम होता तो एक अपने प्रेमास्पदको छोड़कर दूसरी बात भी मैं न सुन सकता। विषयोंको देख, सुन और सहन कर रहा हूँ। इससे यह सिद्ध है कि मैं सच्चे प्रेमका अधिकारी नहीं हूँ, तभी तो भगवान् मुझे लोभ दिखा रहे हैं। उत्तम तो यह था कि मैं विषयोंकी चर्चा सुनते ही मूर्छित होकर गिर पड़ता। ऐसी अवस्था नहीं होती, इसलिये नि:सन्देह मेरे हृदयमें कहीं-न-कहीं विषयवासना छिपी हुई है। यह है विशुद्ध प्रेमके ऊँचे साधनका स्वरूप।
ऐसा विशुद्ध प्रेम होनेपर जो आनन्द होता है उसकी महिमा अकथनीय है। ऐसे प्रेमका वास्तविक महत्त्व कोई परमात्माका अनन्य प्रेमी ही जानता है। प्रेमकी साधारणत: तीन संज्ञाएँ हैं। गौण, मुख्य और अनन्य। जैसे नन्हे बछड़ेको छोड़कर गौ वनमें चरने जाती है, वहाँ घास चरती है, उस गौका प्रेम घासमें गौण है, बछड़ेमें मुख्य है और अपने जीवनमें अनन्य है, बछड़ेके लिये घासका एवं जीवनके लिये वह बछड़ेका भी त्याग कर सकती है। इसी प्रकार उत्तम साधक सांसारिक कार्य करते हुए भी अनन्यभावसे परमात्माका चिन्तन किया करते हैं। साधारण भगवत्-प्रेमी साधक अपना मन परमात्मामें लगानेकी कोशिश करते हैं, परन्तु अभ्यास और आसक्तिवश भजन-ध्यान करते समय भी उनका मन विषयोंमें चला ही जाता है। जिनका भगवान् में मुख्य प्रेम है, वे हर समय भगवान् को स्मरण रखते हुए समस्त कार्य करते हैं और जिनका भगवान् में अनन्य प्रेम हो जाता है उनको तो समस्त चराचर विश्व एक वासुदेवमय ही प्रतीत होने लगता है। ऐसे महात्मा बड़े दुर्लभ हैं। (गीता ७।१९)
इस प्रकारके अनन्य प्रेमी भक्तोंमें कई तो प्रेममें इतने गहरे डूब जाते हैं कि वे लोकदृष्टिमें पागल-से दीख पड़ते हैं। किसी-किसीकी बालकवत् चेष्टा दिखायी देती है। उनके सांसारिक कार्य छूट जाते हैं। कई ऐसी प्रकृतिके भी प्रेमी पुरुष होते हैं जो अनन्य प्रेममें निमग्न रहनेपर भी महान् भागवत श्रीभरतजीकी भाँति या भक्तराज श्रीहनुमान् जीकी भाँति सदा ही ‘रामकाज’ करनेको तैयार रहते हैं। ऐसे भक्तोंके सभी कार्य लोकहितार्थ होते हैं। ये महात्मा एक क्षणके लिये भी परमात्माको नहीं भुलाते, न भगवान् ही उन्हें कभी भुला सकते हैं। भगवान् ने कहा ही है—
यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(गीता ६।३०)