अमृत-कण
१—मनुष्य-जीवनका समय बहुत मूल्यवान् है। यह बार-बार नहीं मिल सकता। इसलिये इसे उत्तरोत्तर भजन-ध्यानमें लगाना चाहिये।
२—मृत्यु किसीको सूचना देकर नहीं आती, अचानक ही आ जाती है। यदि भगवान् के स्मरणके बिना ही मृत्यु हो गयी तो यह जन्म व्यर्थ ही गया। मृत्यु कब आ जाय इसका कोई भरोसा नहीं। अत: भगवान् के स्मरणका काम कभी भूलनेका नहीं।
३—मनुष्यको विचार करना चाहिये कि मैं कौन हूँ, क्या कर रहा हूँ और किस काममें मुझे समय बिताना चाहिये। बुद्धिसे विचार कर वास्तवमें जिसमें अपना परम हित हो, वही काम करना चाहिये।
४—यदि अपने आत्माका उद्धार करना हो तो सब सात-पाँचको छोड़कर हर समय भगवान् का भजन करे।
५—भगवान् को छोड़कर और कहीं भी मनको न लगाये, जो भगवान् को छोड़कर अन्य किसीका भक्त नहीं, वही अनन्यभक्त है।
६—अपनी बुद्धिसे विचार करे कि क्या करना अच्छा है और क्या करना बुरा। जो बुरा है, उसका त्याग कर दे और जो अच्छा हो, उसके पालनमें तत्पर हो जाय।
७—भगवान् का भजन-साधन करनेमें यदि शरीर सूखने लगे, मृत्यु भी हो जाय तो कोई हर्ज नहीं।
८—जब शरीरके लिये संग्रह किये हुए संसारके पदार्थ साथ नहीं जा सकते तब उनके लिये अपना अमूल्य समय लगाना व्यर्थ है। जगत् में जितने मनुष्य हैं, प्राय: किसीको भी अपने पूर्वजन्मका ज्ञान नहीं है। इसी प्रकार इस वर्तमान घरको छोड़कर चले जायँगे तब इसे भी भूल जायँगे। फिर इतना परिवार और धन किसलिये इकट्ठा किया? यह हमारे क्या काम आयेगा? जब आगे यह किसी भी काम नहीं आयेगा तब हमें चाहिये कि इस लौकिक सम्पत्तिका मोह छोड़कर दैवी सम्पत्तिका भण्डार भरें। अपने हृदयसे दुर्गुण-दुराचारोंको हटाकर सद्गुण-सदाचारोंको भर लें।
९—साधन न होनेमें अश्रद्धा ही प्रधान कारण है, इसको हटाना चाहिये।
१०—ईश्वरने हमको जो कुछ भी तन, मन, धन, कुटुम्ब, विद्या,बल, बुद्धि, विवेक आदि दिया है, उसे ईश्वरकी सेवामें ही लगा देना चाहिये। जिस प्रकार पतिव्रता स्त्री प्रत्येक कार्यमें पतिकी प्रसन्नताका ध्यान रखती है, इसी प्रकार हम जो भी कार्य करें, पहले विचार लें कि इससे भगवान् प्रसन्न हैं या नहीं। वही कार्य करें, जिससे भगवान् की प्रसन्नता प्राप्त हो।
११—जिस प्रकार कठपुतलीको सूत्रधार नचाता है, वैसे ही वह नाचती है। उसी प्रकार भगवान् की आज्ञाके अनुसार चलें। जैसे वे करावें, वैसे ही करें।
१२—भगवान् की भक्तिमें किसी भी जाति और वर्णके लिये कोई रुकावट नहीं है, आवश्यकता है केवल विशुद्ध प्रेमकी।
१३—हर समय भगवान् को याद रखते हुए ही समस्त कार्य करे। भगवत्-स्मृतिरूप सूर्यके सामने अन्धकार नहीं रह सकता। भगवत्-स्मृतिसे सब दोष स्वत: ही दूर हो जाते हैं।
१४—अपने ऊपर भगवान् की और महापुरुषोंकी विशेष दया समझकर यह अनुभव करे कि हमारी दिनोदिन उन्नति हो रही है। सद्गुणोंका विकास, आसुरी सम्पत्तिका नाश और दैवी सम्पत्तिकी वृद्धि हो रही है एवं साधन प्रत्यक्ष बढ़ रहा है।
१५—श्रीबलरामजीको गायों-बछड़ों और ग्वाल-बालों—सभीमें भगवान् ही दीखते थे, वैसे ही समस्त प्राणियोंमें भगवान् को देखे और इस प्रकार देख-देखकर मुग्ध होता रहे।
१६—भगवान् का सारा विधान जीवोंके वास्तविक कल्याणके लिये ही होता है।
१७—कलियुगमें भगवान् थोड़े ही साधनसे मिल जाते हैं। हमलोगोंको यह मौका मिल गया है, अब इसे छोड़ना नहीं चाहिये।
१८—अपने प्रतिकूल जो भी घटना प्राप्त हो, उसे भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार समझे; उसमें घबराये नहीं, बल्कि परम आनन्दका अनुभव करे। विपत्ति जो भी आती है, भगवान् की भेजी हुई आती है! अत: उसे प्यारेका प्रसाद समझे और आनन्दमें मग्न हो जाय। विपत्तिमें भगवान् को देखे, क्योंकि विपत्तिमें भगवान् का छिपा हुआ प्यार भरा हाथ रहता है।
१९—मनुष्यकी मान्यता फलती है। जो जैसा मानता है, उसे वैसा ही फल होता है। अत: अच्छी-से-अच्छी भावना करनी चाहिये। भावनामें कृपणता क्यों?
२०—मान्यता करनेसे उसके अनुरूप ही अनुभव हो जाता है, अनुभव होनेके बाद वैसी ही स्थिति हो जाती है।
२१—नित्यकर्म, साधन, भजन—सभीमें ऊँचे-से-ऊँचा भाव करना चाहिये।
२२—हर समय अपनेपर भगवान् की कृपा समझें। कृपा समझनेमें सहायक हैं—सत्संग और स्वाध्याय। अभिप्राय यह है कि भगवत्-सम्बन्धी बातोंका श्रवण, मनन, पठन, कथन और आलोचन करे।
२३—भगवद्विषयक ये बारह बातें विशेष मनन करनेयोग्य हैं—१ नाम, २ रूप, ३ लीला, ४ धाम, ५ तत्त्व, ६ रहस्य, ७ गुण, ८ प्रभाव, ९ श्रद्धा, १० प्रेम, ११ शान्ति और १२ आनन्द।
२४—चार बातें बड़ी अच्छी हैं—१-भगवान् के नामका जप, २-स्वरूपका ध्यान, ३-सत्संग (सत्पुरुषोंका संग और सत्-शास्त्रोंका मनन), ४-सेवा। यह साधनकी चतु:सूत्री है। हमको तो अपने ६० वर्षके जीवनमें ये चार बातें सबके साररूपमें मिलीं।
२५—वैराग्य, निष्कामभाव, सत्यभाषण और शास्त्रकी मर्यादाके अनुसार आचरण—इन चार बातोंके लिये भी मेरा विशेष अनुरोध है। परमार्थ-मार्गपर चलनेवालोंको इनके पालनपर विशेष जोर देनाचाहिये।
२६—चार चीजोंको विषतुल्य समझकर बिलकुल त्याग दे—
१-पाप, २-भोग, ३-प्रमाद और ४- आलस्य।
२७—साधनमें पाँच बड़ी प्रबल घाटियाँ हैं—१-कंचन, २-कामिनी, ३-शरीरका आराम, ४-मान और ५-यश (कीर्ति)।
२८—दूसरेका गुण ही देखे, अवगुण कभी न देखे। मनुष्यको गुणग्राही होना चाहिये।
२९—एक तो होती है सेवा और दूसरी है परम सेवा। सेवा तो यह कि दूसरोंके लौकिक हितके लिये, शारीरिक सुख पहुँचानेके लिये अपना तन, मन, धन लगा देना। किसी पीड़ित मनुष्यको अन्न, जल, वस्त्र, औषध अपनी योग्यताके अनुसार दे देना, यह उसकी भौतिक सेवा है। परम सेवा वह है कि किसीको भगवान् के मार्गमें लगाना तथा जो मनुष्य भगवान् के मार्गमें लगे हैं, उनके लिये, उनके साधनमें सहायक आवश्यकीय वस्तुओंकी पूर्ति करना, साधनकी अन्य सुविधाएँ प्रदान करना तथा उन्हें सत्संगमें लगाना—इस प्रकार भगवच्चर्या आदिके द्वारा साधनकी उन्नतिमें हेतु बनना; और कोई मर रहा हो, उसे गीता, रामायण, भगवन्नाम आदि सुनाना। यह पारमार्थिक सेवा है। यही परम सेवा है। लाख आदमियोंकी भौतिक सेवासे एक आदमीकी परम सेवा बढ़कर है।
३०—भगवान् से माँगना ही हो तो यह माँगे कि सारे जीवोंका कल्याण हो जाय, सब सुखी हो जायँ। इस प्रकार सकामभावसे की गयी प्रार्थना भी निष्कामके ही तुल्य है।
३१—वक्ता और श्रोता दोनों ही पात्र हों तो असर अधिक होता है। दोनोंमेंसे एक पात्र हो तो कम असर होता है और दोनों ही अपात्र हों तो नहींके बराबर असर होता है।
३२—महापुरुषोंकी कोई भी क्रिया बिना प्रयोजन नहीं होती। उनकी सम्पूर्ण क्रियाएँ दूसरोंके हितके लिये—कल्याणके लिये ही होती हैं। वे किसीसे काम लेते हैं तो उसके कल्याणके लिये ही, अपने लिये नहीं।
३३—महान् पुरुष कभी अपनेको महान् नहीं मानते। श्रेष्ठ पुरुष कभी अपनी बड़ाई नहीं चाहते।
३४—जो महात्मा परमात्मामें मिल जाते हैं, वे परमात्मस्वरूप ही हो जाते हैं। परमात्माकी पूजा ही उनकी पूजा है।
३५—महात्मा पुरुषोंके दर्शनसे, उनसे वार्तालाप करनेसे मनुष्य पवित्र हो जाय—इसमें तो कहना ही क्या, उनका स्मरण करनेसे भी अन्त:करण पवित्र हो जाता है।
३६—भगवान् का यह नियम है कि ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’—जो मुझे जैसे भजते हैं, वैसे ही मैं उनको भजता हूँ। परंतु महात्माओंका यह नियम नहीं है। उनका नियम इससे भिन्न है कि ‘जो हमें नहीं भी भजते, उन्हें भी हम भजते हैं।’
३७—जैसे आगमें घास डाली जाय तो आग हो जाती है, और घासमें आग डाली जाय तो आग हो जाती है। इसी तरह महात्माके पास अज्ञानी जाय तो वह भी महात्मा हो जाता है और अज्ञानियोंके पास महात्मा चला जाय तो भी वह अज्ञानी मनुष्य महात्मा हो जाता है; क्योंकि महात्माओंके पास ज्ञानाग्नि है, उससे अज्ञान नष्ट हो जाता है।
३८—महात्माओंका ज्ञान अमोघ—अव्यर्थ है। उनका संग, दर्शन, भाषण, स्मरण सभी महान् फलदायक होते हैं।
३९—एक दीपकसे जब लाखों दीपक जल सकते हैं तब संसारमें एक महात्माके मौजूद रहते सब महात्मा क्यों नहीं बन सकते।
४०—महात्माका यथार्थ तत्त्व जाननेसे मनुष्य महात्मा ही हो जाता है, जिस प्रकार परमात्माका तत्त्व जाननेसे परमात्मा हो जाता है।
४१—महात्माका तत्त्व तब जाना जाता है, जब मनुष्य उनके आज्ञानुसार आचरण करता है।