Seeker of Truth

आहार-शुद्धि

भोजनके लिये आवश्यक विचार

उपनिषदोंमें आता है कि जैसा अन्न होता है, वैसा ही मन बनता है—‘अन्नमयं हि सोम्य मन:।’ (छान्दोग्य० ६। ५। ४) अर्थात् अन्नका असर मनपर पड़ता है। अन्नके सूक्ष्म सारभागसे मन (अन्त:करण) बनता है, दूसरे नम्बरके भागसे वीर्य, तीसरे नम्बरके भागसे मल बनता है, जो कि बाहर निकल जाता है। अत: मनको शुद्ध बनानेके लिये भोजन शुद्ध, पवित्र होना चाहिये। भोजनकी शुद्धिसे मन-(अन्त:करण-) की शुद्धि होती है—‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि:’ (छान्दोग्य० २। २६। २)। जहाँ भोजन करते हैं, वहाँका स्थान, वायुमण्डल, दृश्य तथा जिसपर बैठकर भोजन करते हैं, वह आसन भी शुद्ध, पवित्र होना चाहिये। कारण कि भोजन करते समय प्राण जब अन्न ग्रहण करते हैं, तब वे शरीरके सभी रोमकूपोंसे आसपासके परमाणुओंको भी खींचते—ग्रहण करते हैं। अत: वहाँका स्थान, वायुमण्डल आदि जैसे होंगे, प्राण वैसे ही परमाणु खींचेंगे और उन्हींके अनुसार मन बनेगा। भोजन बनानेवालेके भाव, विचार भी शुद्ध सात्त्विक हों।

भोजनके पहले दोनों हाथ, दोनों पैर और मुख—ये पाँचों शुद्ध, पवित्र जलसे धो ले। फिर पूर्व या उत्तरकी ओर मुख करके शुद्ध आसनपर बैठकर भोजनकी सब चीजोंको ‘पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति। तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन:॥’ (गीता ९। २६)—यह श्लोक पढ़कर भगवान‍्के अर्पण कर दे। अर्पणके बाद दायें हाथमें जल लेकर ‘ब्रह्मार्पणं ब्रह्म हविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम्। ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्मसमाधिना॥’ (गीता ४।२४)—यह श्लोक पढ़कर आचमन करे और भोजनका पहला ग्रास भगवान‍्का नाम लेकर ही मुखमें डाले। प्रत्येक ग्रासको चबाते समय ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥’—इस मंत्रको मनसे दो बार पढ़ते हुए या अपने इष्टका नाम लेते हुए ग्रासको चबाये और निगले। इस मन्त्रमें कुल सोलह नाम हैं और दो बार मन्त्र पढ़नेसे बत्तीस नाम हो जाते हैं। हमारे मुखमें भी बत्तीस ही दाँत हैं। अत: मन्त्रके प्रत्येक नामके साथ बत्तीस बार चबानेसे वह भोजन सुपाच्य और आरोग्यदायक होता है एवं थोड़े अन्नसे ही तृप्ति हो जाती है तथा उसका रस भी अच्छा बनता है और इसके साथ ही भोजन भी भजन बन जाता है।

भोजन करते समय ग्रास-ग्रासमें भगवन्नाम-जप करते रहनेसे अन्नदोष भी दूर हो जाता है।

जो लोग ईर्ष्या, भय और क्रोधसे युक्त हैं तथा लोभी हैं और रोग तथा दीनतासे पीड़ित और द्वेषयुक्त हैं, वे जिस भोजनको करते हैं, वह अच्छी तरह पचता नहीं अर्थात् उससे अजीर्ण हो जाता है। इसलिये मनुष्यको चाहिये कि वह भोजन करते समय मनको शान्त तथा प्रसन्न रखे। मनमें काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दोषोंकी वृत्तियोंको न आने दे। यदि कभी आ जायँ तो उस समय भोजन न करे; क्योंकि वृत्तियोंका असर भोजनपर पड़ता है और उसीके अनुसार अन्त:करण बनता है। ऐसा भी सुननेमें आया है कि फौजी लोग जब गायको दुहते हैं, तब दुहनेसे पहले बछड़ा छोड़ते हैं और उस बछड़ेके पीछे कुत्ता छोड़ते हैं। अपने बछड़ेके पीछे कुत्तेको देखकर जब गाय गुस्सेमें आ जाती है, तब बछड़ेको लाकर बाँध देते हैं और फिर गायको दुहते हैं। वह दूध फौजियोंको पिलाते हैं, जिससे वे लोग खूँखार बनते हैं।

ऐसे ही दूधका भी असर प्राणियोंपर पड़ता है। एक बार किसीने परीक्षाके लिये कुछ घोड़ोंको भैंसका दूध और कुछ घोड़ोंको गायका दूध पिलाकर उन्हें तैयार किया। एक दिन सभी घोड़े कहीं जा रहे थे। रास्तेमें नदीका जल था। भैंसका दूध पीनेवाले घोड़े उस जलमें बैठ गये और गायका दूध पीनेवाले घोड़े उस जलको पार कर गये। इसी प्रकार बैल और भैंसेका परस्पर युद्ध कराया जाय तो भैंसा बैलको मार देगा; परन्तु यदि दोनोंको गाड़ीमें जोता जाय तो भैंसा धूपमें जीभ निकाल देगा, जबकि बैल धूपमें भी चलता रहेगा। कारण कि भैंसके दूधमें सात्त्विक बल नहीं होता, जबकि गायके दूधमें सात्त्विक बल होता है।

जैसे प्राणियोंकी वृत्तियोंका पदार्थोंपर असर पड़ता है, ऐसे ही प्राणियोंकी दृष्टिका भी असर पड़ता है। बुरे व्यक्तिकी अथवा भूखे कुत्तेकी दृष्टि भोजनपर पड़ जाती है तो वह भोजन अपवित्र हो जाता है। अब वह भोजन पवित्र कैसे हो? भोजनपर उसकी दृष्टि पड़ जाय तो उसे देखकर मनमें प्रसन्न हो जाना चाहिये कि भगवान् पधारे हैं! अत: उसको सबसे पहले थोड़ा अन्न देकर भोजन करा दे। उसके देनेके बाद बचे हुए शुद्ध अन्नको स्वयं ग्रहण करे तो दृष्टिदोष मिट जानेसे वह अन्न पवित्र हो जाता है।

दूसरी बात, लोग बछड़ेको पेटभर दूध न पिलाकर सारा दूध स्वयं दुह लेते हैं। वह दूध पवित्र नहीं होता; क्योंकि उसमें बछड़ेका हक आ जाता है। बछड़ेको पेटभर दूध पिला दे; और इसके बाद जो दूध निकले, वह चाहे पावभर ही क्यों न हो, बहुत पवित्र होता है।

भोजन करनेवाले और करानेवालेके भावका भी भोजनपर असर पड़ता है; जैसे—(१) भोजन करनेवालेकी अपेक्षा भोजन करानेवालेकी जितनी अधिक प्रसन्नता होगी, वह भोजन उतने ही उत्तम दर्जेका माना जायगा। (२) भोजन करानेवाला तो बड़ी प्रसन्नतासे भोजन कराता है; परन्तु भोजन करनेवाला ‘मुफ्तमें भोजन मिल गया; अपने इतने पैसे बच गये; इससे मेरेमें बल आ जायगा’ आदि स्वार्थका भाव रख लेता है तो वह भोजन मध्यम दर्जेका हो जाता है; और (३) भोजन करानेवालेका यह भाव है कि ‘यह घरपर आ गया तो खर्चा करना पड़ेगा, भोजन बनाना पड़ेगा, भोजन कराना ही पड़ेगा’ आदि और भोजन करनेवालेमें भी स्वार्थभाव है तो वह भोजन निकृष्ट दर्जेका हो जायगा।

इस विषयमें गीताने सिद्धान्तरूपसे कह दिया है— ‘सर्वभूतहिते रता:’ (५। २५, १२। ४)। तात्पर्य यह है कि जिसका सम्पूर्ण प्राणियोंमें हितका भाव जितना अधिक होगा, उसके पदार्थ, क्रियाएँ आदि उतनी ही पवित्र हो जायँगी।

—साधक-संजीवनीसे

- स्रोत : आवश्यक शिक्षा (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)