Seeker of Truth

आदर्श भक्त हनुमान्

श्रीहनुमान् जी भगवान् श्रीरामके सर्वोत्तम दास-भक्त हैं। आपका जन्म वायुदेवके अंशसे और माता अंजनीके गर्भसे हुआ था। श्रीहनुमान् जी बालब्रह्मचारी, महावीर, अतिशय बलवान्, बड़े बुद्धिमान्, चतुरशिरोमणि, विद्वान्, सेवाधर्मके आचार्य, सर्वथा निर्भय, सत्यवादी, स्वामिभक्त, भगवान् के तत्त्व, रहस्य, गुण और प्रभावको भली प्रकार जाननेवाले, महाविरक्त, सिद्ध, परम प्रेमी भक्त और सदाचारी महात्मा हैं। आप युद्ध-विद्यामें बड़े ही निपुण, इच्छानुसार रूप धारण करनेमें समर्थ तथा भगवान् के नाम, गुण, स्वरूप और लीलाके बड़े ही रसिक हैं। कहा जाता है कि अब भी जहाँ श्रीरामकी कथा या कीर्तन होता है, वहाँ श्रीहनुमान् जी किसी-न-किसी वेषमें उपस्थित रहते ही हैं। श्रद्धा न होनेके कारण लोग उन्हें पहचान नहीं पाते।

श्रीहनुमान् जीके गुण अपार हैं। भगवान् और उनके भक्तोंके गुणोंका वर्णन कोई भी मनुष्य कैसे कर सकता है। इस विषयमें जो कुछ भी लिखा जाय, वह बहुत ही थोड़ा है। यहाँ संक्षेपमें श्रीहनुमान् जीके चरित्रोंद्वारा उनके गुणोंका कुछ दिग्दर्शन कराया जाता है।

पहले-पहल जब पम्पा-सरोवरपर श्रीराम और लक्ष्मणसे श्रीहनुमान् जी मिले हैं, वह प्रसंग देखनेसे मालूम होता है कि श्रीहनुमान् जीमें विनय, विद्वत्ता, चतुरता, दीनता, प्रेम और श्रद्धा आदि गुण बड़े ही विलक्षण हैं।

अपने मन्त्रियोंके सहित ऋष्यमूक-पर्वतपर बैठे हुए सुग्रीवकी दृष्टि पम्पा-सरोवरकी ओर जाती है, तो वे देखते हैं कि हाथोंमें धनुष-बाण लिये हुए बड़े सुन्दर, विशालबाहु, महापराक्रमी दो वीर पुरुष इस ओर आ रहे हैं। उन्हें देखते ही सुग्रीव भयभीत होकर श्रीहनुमान् जीसे कहते हैं कि ‘हनुमान्! तुम जाकर इनकी परीक्षा तो करो। यदि ये बालिके भेजे हुए हों तो मुझे संकेतसे समझा देना, जिससे मैं इस पर्वतको छोड़कर तुरंत ही भाग जाऊँ।’

सुग्रीवकी आज्ञा पाकर आप ब्रह्मचारीका रूप धरकर वहाँ जाते हैं और श्रीरामचन्द्रजीको प्रणाम करके उनसे प्रश्न करते हैं। मानस-रामायणमें श्रीतुलसीदासजी उनके प्रश्नका यों वर्णन करते हैं—

को तुम्ह स्यामल गौर सरीरा।
छत्री रूप फिरहु बन बीरा॥
कठिन भूमि कोमल पद गामी।
कवन हेतु बिचरहु बन स्वामी॥
की तुम्ह तीनि देव महँ कोऊ।
नर नारायन की तुम्ह दोऊ॥
जग कारन तारन भव भंजन धरनी भार।
की तुम्ह अखिल भुवन पति लीन्ह मनुज अवतार॥

अध्यात्मरामायणमें भी करीब-करीब ऐसा ही वर्णन है। इसके सिवा वहाँ श्रीरामचन्द्रजी भाई श्रीलक्ष्मणसे हनुमान् जीकी विद्वत्ताकी सराहना करते हुए कहते हैं—

‘लक्ष्मण! देखो, यह ब्रह्मचारीके वेषमें कैसा सुन्दर भाषण करता है, अवश्य ही इसने सम्पूर्ण शब्द-शास्त्र बहुत प्रकारसे पढ़ा है। इसने इतनी बातें कहीं, किन्तु इसके बोलनेमें कहीं कोई भी अशुद्धि नहीं आयी।’

वाल्मीकीय रामायणमें तो श्रीरामने यहाँतक कहा है कि ‘इसने अवश्य ही सब वेदोंका अभ्यास किया है, नहीं तो यह इस प्रकारका भाषण कैसे कर सकता।’ इसके सिवा और भी बहुत प्रकारसे श्रीहनुमान् जीके वचनोंकी सराहना करते हुए वे अन्तमें कहते हैं कि जिस राजाके पास ऐसे बुद्धिमान् दूत हों, उसके समस्त कार्य दूतकी बातचीतसे ही सिद्ध हो जाया करते हैं!

रामचरितमानसमें आगेका वर्णन बड़ा ही प्रेमपूर्ण है—

भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपना समस्त परिचय देकर श्रीहनुमान् जीसे पूछते हैं कि ब्राह्मण! बतलाइये, आप कौन हैं? यह सुनते ही हनुमान् जी श्रीरामको भलीभाँति पहचानकर तुरंत ही उनके चरणोंमें गिर पड़ते हैं, उनका शरीर पुलकित हो जाता है, मुखसे बोला नहीं जाता, वे टकटकी लगाकर भगवान् की रूप-माधुरी और विचित्र वेषको निहारने लगते हैं। कैसा अलौकिक प्रेम है! फिर धैर्य धारण करके भगवान् से कहते हैं—

मोर न्याउ मैं पूछा साईं।
तुम्ह पूछहु कस नर की नाईं॥
तव माया बस फिरउँ भुलाना।
ताते मैं नहिं प्रभु पहिचाना॥
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥
जदपि नाथ बहु अवगुन मोरें।
सेवक प्रभुहि परै जनि भोरें॥

कितना प्रेम और दैन्यभाव है! इसके बाद विनयपूर्वक सुग्रीवकी परिस्थिति बतलाकर दोनों भाइयोंको अपनी पीठपर चढ़ाकर वे सुग्रीवके पास ले जाते हैं। वहाँ दोनों ओरकी सब बातें सुनाकर अग्निदेवकी साक्षीमें श्रीराम और सुग्रीवकी मित्रता करा देते हैं। बालीका वध करके भगवान् श्रीराम भाई लक्ष्मणके सहित प्रवर्षण-पर्वतपर निवास कर वर्षा-ऋतुका समय व्यतीत करते हैं। उधर सुग्रीव राज्य, ऐश्वर्य और स्त्री आदिके मिल जानेसे भोगोंमें फँसकर भगवान् के कार्यको भूल जाते हैं। यह देखकर श्रीहनुमान् जी राजनीतिके अनुसार सुग्रीवको भगवान् के कार्यकी स्मृति कराते हैं और उनकी आज्ञा लेकर वानरोंको बुलानेके लिये देश-देशान्तरोंमें दूत भेजते हैं। कैसी बुद्धिमानी है!

इसके बाद जब श्रीसीताजीकी खोजके लिये सब दिशाओंमें वानरोंको भेजनेकी बातचीत हो रही थी, उस समयका वर्णन श्रीवाल्मीकीय रामायणमें देखनेसे मालूम होता है कि सुग्रीवका श्रीहनुमान् जीपर कितना भरोसा और विश्वास था तथा भगवान् श्रीरामको भी उनकी कार्यकुशलतापर कितना विश्वास था। वहाँ श्रीरामके सामने ही सुग्रीव हनुमान् से कहते हैं—

न भूमौ नान्तरिक्षे वा नाम्बरे नामरालये।
नाप्सु वा गतिभङ्गं ते पश्यामि हरिपुङ्गव॥
सासुरा: सहगन्धर्वा: सनागनरदेवता:।
विदिता: सर्वलोकास्ते ससागरधराधरा:॥
गतिर्वेगश्च तेजश्च लाघवं च महाकपे।
पितुस्ते सदृशं वीर मारुतस्य महौजस:॥
तेजसा वापि ते भूतं न समं भुवि विद्यते।
तद् यथा लभ्यते सीता तत्त्वमेवानुचिन्तय॥
त्वय्येव हनुमन्नस्ति बलं बुद्धि: पराक्रम:।
देशकालानुवृत्तिश्च नयश्च नयपण्डित॥
(किष्किन्धा० ४४।३—७)

‘कपिश्रेष्ठ! तुम्हारी गतिका अवरोध न पृथ्वीमें, न अन्तरिक्षमें, न आकाशमें और न देवलोकमें अथवा जलमें ही देखा जाता है। देवता, असुर, गन्धर्व, नाग, मनुष्य इनके सहित उन-उनके समस्त लोकोंका समुद्र और पर्वतोंसहित तुम्हें भलीभाँति ज्ञान है। महाकपे! तुम्हारी गति, वेग, तेज और फुर्ती—तुम्हारे महान् बलशाली पिता वायुके समान है। वीर! इस भूमण्डलपर कोई भी प्राणी तेजमें तुम्हारी समानता करनेवाला न कभी हुआ और न है। अत: जिस प्रकार सीता मिल सके, वह उपाय तुम्हीं सोचकर बताओ। हनुमान्! तुम नीति-शास्त्रके पण्डित हो; बल, बुद्धि, पराक्रम, देश-कालका अनुसरण और नीतिपूर्ण बर्ताव—ये सब एक साथ तुममें पाये जाते हैं।’

इस प्रकार सुग्रीवकी बातें सुनकर भगवान् श्रीराम हनुमान् जीकी ओर देखकर अपना कार्य सिद्ध हुआ ही समझने लगे। उन्होंने मन-ही-मन अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने नामके अक्षरोंसे युक्त एक अँगूठी हनुमान् जीके हाथमें देकर कहा—

अनेन त्वां हरिश्रेष्ठ चिह्नेन जनकात्मजा।
मत्सकाशादनुप्राप्तमनुद्विग्नानुपश्यति ॥
व्यवसायश्च ते वीर सत्त्वयुक्तश्च विक्रम:।
सुग्रीवस्य च संदेश: सिद्धिं कथयतीव मे॥
(किष्किन्धा०४४।१३-१४)

‘कपिश्रेष्ठ! इस चिह्नके द्वारा जनकनन्दिनी सीताको यह विश्वास हो जायगा कि तुम मेरे पाससे ही गये हो। तब वह निर्भय होकर तुम्हारी ओर देख सकेगी। वीरवर! तुम्हारा उद्योग, धैर्य और पराक्रम तथा सुग्रीवका संदेश मुझे इस बातकी सूचना दे रहे हैं कि तुम्हारे द्वारा इस कार्यकी सिद्धि अवश्य होगी।’

अध्यात्मरामायणमें भी प्राय: इसी प्रकार श्रीरामने हनुमान् जीके गुणोंकी बड़ाई की है। वहाँ निशानीके रूपमें अपनी मुद्रिका देकर भगवान् श्रीराम हनुमान् जीसे कहते हैं—

अस्मिन् कार्ये प्रमाणं हि त्वमेव कपिसत्तम।
जानामि सत्त्वं ते सर्वं गच्छ पन्था: शुभस्तव॥
(४। ६। २९)

‘कपिश्रेष्ठ! इस कार्यमें केवल तुम्हीं समर्थ हो। मैं तुम्हारा समस्त पराक्रम भलीभाँति जानता हूँ। अच्छा, जाओ; तुम्हारा मार्ग कल्याणकारक हो।’

इसके बाद जब जाम्बवान् और अंगद आदि वानरोंके साथ हनुमान् जी श्रीसीताजीकी खोज करते-करते समुद्रके किनारे पहुँचते हैं और श्रीसीताका अनुसन्धान न मिलनेके कारण शोकाकुल होकर सब वहीं अनशन-व्रत लेकर बैठ जाते हैं, तब गृध्रराज सम्पातीसे बातचीत होनेपर उन्हें यह पता लगता है कि सौ योजन समुद्रके पार लंकापुरीमें राक्षसराज रावण रहता है, वहाँ अपनी अशोकवाटिकामें उसने सीताको छिपा रखा है। तब सब वानर एक जगह बैठकर परस्पर समुद्र लाँघनेका विचार करने लगे। अंगदके पूछनेपर सभीने अपनी-अपनी सामर्थ्यका परिचय दिया; परन्तु श्रीहनुमान् जी चुप साधे बैठे ही रहे। कैसी निरभिमानता है! यह प्रसंग श्रीवाल्मीकीय रामायणमें बड़ा ही रोचक और विस्तृत है। वहाँ जाम्बवान् ने श्रीहनुमान् की बुद्धि, बल, तेज, पराक्रम, विद्या और वीरताका बड़ा ही विचित्र चित्रण किया है। वे कहते हैं—

वीर वानरलोकस्य सर्वशास्त्रविदां वर।
तूष्णीमेकान्तमाश्रित्य हनूमन् किं न जल्पसि॥
.... .... ....
रामलक्ष्मणयोश्चापि तेजसा च बलेन च॥
.... .... ....
गरुत्मानिव विख्यात उत्तम: सर्वपक्षिणाम्॥
पक्षयोर्यद्बलं तस्य भुजवीर्यबलं तव।
विक्रमश्चापि वेगश्च न ते तेनापहीयते॥
बलं बुद्धिश्च तेजश्च सत्त्वं च हरिपुङ्गव।
विशिष्टं सर्वभूतेषु किमात्मानं न सज्जसे॥
(किष्किन्धा० ६६। २—७)

‘सम्पूर्ण शास्त्रवेत्ताओंमें श्रेष्ठ तथा वानर-जगत् के अद्वितीय वीर हनुमान्! तुम कैसे एकान्तमें आकर चुप साधे बैठे हो? कुछ बोलते क्यों नहीं? तुम तो तेज और बलमें श्रीराम और लक्ष्मणके समान हो। गमनशक्तिमें सम्पूर्ण पक्षियोंमें श्रेष्ठ विनतापुत्र महाबली गरुडके समान विख्यात हो। उनकी पाँखोंमें जो बल और तेज तथा पराक्रम है, वही तुम्हारी इन भुजाओंमें भी है। वानरश्रेष्ठ! तुम्हारे अंदर समस्त प्राणियोंसे बढ़कर बल, बुद्धि, तेज और धैर्य है; फिर तुम अपना स्वरूप क्यों नहीं पहचानते?’

इसके बाद जाम्बवान् उनके जन्मकी कथा सुनाते हैं तथा बाल्यावस्थाके पराक्रम और वरदानकी बात कहकर उनके बलकी स्मृति दिलाते हुए अन्तमें कहते हैं—

उत्तिष्ठ हरिशार्दूल लङ्घयस्व महार्णवम्।
परा हि सर्वभूतानां हनुमन् या गतिस्तव॥
विषण्णा हरय: सर्वे हनुमन् किमुपेक्षसे।
विक्रमस्व महावेग विष्णुस्त्रीन्विक्रमानिव॥
(किष्किन्धा० ६६। ३६-३७)

‘वानरश्रेष्ठ हनुमान्! उठो और इस महासागरको लाँघ जाओ। जो तुम्हारी गति है, वह सभी प्राणियोंसे बढ़कर है। सभी वानर चिन्तामें पड़े हैं और तुम इनकी उपेक्षा करते हो, यह क्या बात है? तुम्हारा वेग महान् है। जैसे भगवान् विष्णुने (पृथ्वीको नापनेके लिये) तीन डगें भरी थीं, उसी प्रकार तुम छलाँग मारकर समुद्रके उस पार चले जाओ।’ इतना सुनते ही श्रीहनुमान् जी तुरंत ही समुद्र लाँघनेके लिये अपना शरीर बढ़ाने लगे।

रामचरितमानसमें भी इसी आशयका वर्णन है। वहाँ अंगदको धैर्य देनेके बाद जाम्बवान् हनुमान् जीसे कहते हैं—

कहइ रीछपति सुनु हनुमाना।
का चुप साधि रहेउ बलवाना॥
पवन तनय बल पवन समाना।
बुधि बिबेक बिग्यान निधाना॥
कवन सो काज कठिन जग माहीं।
जो नहिं होइ तात तुम्ह पाहीं॥
राम काज लगि तव अवतारा।
सुनतहिं भयउ पर्बताकारा॥
कनक बरन तन तेज बिराजा।
मानहुँ अपर गिरिन्ह कर राजा॥

अध्यात्मरामायणमें भी प्राय: इसी तरहका वर्णन है। इसके सिवा पर्वताकार रूप धारण करनेके अनन्तर वहाँ श्रीहनुमान् जी कहते हैं—

लङ्घयित्वा जलनिधिं कृत्वा लङ्कां च भस्मसात्॥
रावणं सकुलं हत्वाऽऽनेष्ये जनकनन्दिनीम्।
यद्वा बद्‍ध्वा गले रज्ज्वा रावणं वामपाणिना॥
लङ्कां सपर्वतां धृत्वा रामस्याग्रे क्षिपाम्यहम्।
यद्वा दृष्ट्वैव यास्यामि जानकीं शुभलक्षणाम्॥
(४।९।२२—२४)

‘वानरो! मैं समुद्रको लाँघकर लंकाको भस्म कर डालूँगा और रावणको कुलसहित मारकर श्रीजनकनन्दिनीको ले आऊँगा अथवा कहो तो रावणके गलेमें रस्सी डालकर तथा लंकाको त्रिकूटपर्वतसहित बायें हाथपर उठाकर भगवान् रामके आगे ला रखूँ? या शुभलक्षणा श्रीजानकीजीको देखकर ही चला आऊँ?’

कितना आत्मबल है! इसपर जाम्बवान् नेकहा—‘वीर! तुम्हारा शुभ हो, तुम केवल शुभलक्षणा श्रीजानकीजीको जीती-जागती देखकर ही चले आओ।’

समुद्रको लाँघनेके लिये तैयार होकर आपने वानरोंसे जो वचन कहे हैं, उनसे यह पता चलता है कि आपका श्रीरामनामपर बड़ा ही दृढ़ विश्वास था। आप भगवान् श्रीरामके गुण, प्रभाव और तत्त्वको भलीभाँति जानते थे तथा श्रीराममें आपका अविचल प्रेम था। अध्यात्मरामायणमें यह प्रसंग इस प्रकार है—

.... .... ....
पश्यन्तु वानरा: सर्वे गच्छन्तं मां विहायसा॥
अमोघं रामनिर्मुक्तं महाबाणमिवाखिला:।
पश्याम्यद्यैव रामस्य पत्नीं जनकनन्दिनीम्॥
कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं पुन: पश्यामि राघवम्।
प्राणप्रयाणसमये यस्य नाम सकृत् स्मरन्॥
नरस्तीर्त्वा भवाम्भोधिमपारं याति तत्पदम्।
किं पुनस्तस्य दूतोऽहं तदङ्गाङ्गुलिमुद्रिक:॥
तमेव हृदये ध्यात्वा लङ्घयाम्यल्पवारिधिम्।
(५। १। २—६)

‘समस्त वानरो! तुम सभी लोग भगवान् रामद्वारा छोड़े हुए अमोघ बाणकी भाँति आकाशमार्गसे जाते हुए मुझे देखो। मैं आज ही रामप्रिया जनकनन्दिनी श्रीसीताजीके दर्शन करूँगा। निश्चय ही मैं कृतकृत्य हो चुका, कृतकृत्य हो चुका; अब मैं फिर श्रीरघुनाथजीका दर्शन करूँगा। प्राण निकलनेके समय जिनके नामका एक बार स्मरण करनेसे ही मनुष्य अपार संसार-सागरको पारकर उनके परमधामको चला जाता है, उन्हीं भगवान् श्रीरामका दूत, उनके हाथकी मुद्रिका लिये हुए, हृदयमें उन्हींका ध्यान करता हुआ मैं यदि इस छोटे-से समुद्रको लाँघ जाऊँ तो इसमें आश्चर्य ही क्या है।’

समुद्र लाँघनेके लिये श्रीहनुमान् जीने जो भयानक रूप धारण किया था, उसका वर्णन वाल्मीकीय रामायणमें विस्तारपूर्वक है। यहाँ उसका दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है। वहाँ लिखा है—

.... .... ....
ववृधे रामवृद्‍ध्यर्थं समुद्र इव पर्वसु॥
निष्प्रमाणशरीर: सँल्लिलङ्घयिषुरर्णवम्।
बाहुभ्यां पीडयामास चरणाभ्यां च पर्वतम्॥
स चचालाचलश्चाशु मुहूर्तं कपिपीडित:।
तरूणां पुष्पिताग्राणां सर्वं पुष्पमशातयत्॥
तमूरुवेगोन्मथिता: सालाश्चान्ये नगोत्तमा:।
अनुजग्मुर्हनूमन्तं सैन्या इव महीपतिम्॥
(सुन्दर० १। १०, ११, १२, ४८)

‘जिस प्रकार पूर्णिमाके दिन समुद्र बढ़ता है, उसी प्रकार भगवान् श्रीरामके कार्यकी सिद्धिके लिये हनुमान् बढ़ने लगे। समुद्र लाँघनेकी इच्छासे उन्होंने अपने शरीरको बेहद बढ़ा लिया और अपनी भुजाओं एवं चरणोंसे उस पर्वतको दबाया तो वह हनुमान् जीके द्वारा ताडित हुआ पर्वत तुरंत काँप उठा और मुहूर्तभर काँपता रहा। उसपर उगे हुए वृक्षोंके समस्त फूल झड़ गये।

जब उन्होंने उछाल मारी, तब पर्वतपर उगे हुए साल तथा दूसरे वृक्ष इधर-उधर गिर गये। उनकी जाँघोंके वेगसे टूटे हुए वृक्ष इस प्रकार उनके पीछे चले जैसे राजाके पीछे सेना चलती है।’

इसके सिवा वहाँपर श्रीहनुमान् जीके स्वरूपका मनोहर भाषामें बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया गया है। वहाँ लिखा है कि उस समय श्रीहनुमान् जीकी दस योजन चौड़ी और तीस योजन लंबी परछाईं वेगके कारण समुद्रमें बड़ी सुन्दर जान पड़ती थी। वे परम तेजस्वी, महाकाय कपिवर आकाशमें आलम्बनहीन पंखवाले पर्वतकी भाँति जान पड़ते थे। इससे उनकी लंबाई-चौड़ाईके विस्तारका कुछ पता चलता है।

यह देखकर मैनाक-पर्वत उनसे विश्राम लेनेके लिये अनेक प्रकारसे प्रार्थना करता है, परन्तु भगवान् श्रीरामका कार्य पूरा किये बिना आपको विश्राम कहाँ! आप उसे केवल स्पर्शमात्र करके ही आगे बढ़ जाते हैं।

रामचरितमानसमें श्रीतुलसीदासजी कहते हैं—

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता।
चलेउ सो गा पाताल तुरंता॥
जिमि अमोघ रघुपति कर बाना।
एही भाँति चलेउ हनुमाना॥
जलनिधि रघुपति दूत बिचारी।
तैं मैनाक होहि श्रमहारी॥
हनूमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम।
राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहाँ बिश्राम॥

सुरसाको अपनी बुद्धि-बलका परिचय देकर आगे जाते-जाते जब समुद्रपर आपकी दृष्टि पड़ती है, तब क्या देखते हैं कि एक विशालकाय प्राणी समुद्रके जलपर पड़ा हुआ है। उस विकरालवदना राक्षसीको देखकर वे सोचने लगे—कपिराज सुग्रीवने जिस महापराक्रमी छायाग्राही अद्भुत जीवकी बात कही थी, वह नि:सन्देह यही है। ऐसा निश्चय करके उन्होंने अपने शरीरको बढ़ाया। हनुमान् जीके शरीरको बढ़ता देखकर सिंहिका भी अपना भयानक मुख फैलाकर हनुमान् जीकी ओर दौड़ी। तब हनुमान् जी छोटा रूप बनाकर उसके मुखमें घुस गये और अपने नखोंसे उसके मर्मस्थलोंको फाड़ डाला। इस प्रकार कुशलता और धैर्यपूर्वक उसे मारकर फिर पहलेकी भाँति आगे बढ़ गये। कैसा विचित्र बुद्धि-कौशल, धैर्य और साहस है।

इस प्रकार समुद्रको पार करके आप त्रिकूट-पर्वतपर जा उतरे। बिना विश्राम सौ योजनके समुद्रको लाँघनेपर भी आपके शरीरमें किसी प्रकारकी थकावट नहीं आयी। वहाँसे उन्होंने भलीभाँति लंकाका निरीक्षण किया। फिर लंकाके समीप जाकर उसके भीतर प्रवेश करनेके विषयमें खूब विचार करके अन्तमें यह निश्चय किया कि रात्रिके समय छोटा रूप बनाकर इसमें प्रवेश करना ठीक होगा। इसके बाद सन्ध्याकालमें जब आप छोटा-सा रूप धारण करके लंकापुरीमें प्रवेश करने लगे, तब द्वारपर लंकापुरीकी अधिष्ठात्री लंकिनी राक्षसीने उनको देख लिया। उसने श्रीहनुमान् जीको डाँट-डपटकर जब लात मारी, तब आपने अपने बायें हाथका एक मुक्का उसके शरीरपर मारा। उसके लगते ही वह रुधिर वमन करती हुई पृथ्वीपर गिर पड़ी। फिर उठकर ब्रह्माजीकी बातको स्मरण करके हनुमान् जीकी स्तुति करने लगी और अन्तमें बोली—

धन्याहमप्यद्य चिराय राघव-
स्मृतिर्ममासीद्भवपाशमोचिनी।
तद्भक्तसंगोऽप्यतिदुर्लभो मम
प्रसीदतां दाशरथि: सदा हृदि॥
(अध्यात्म० ५। १। ५७)

‘आज मैं भी धन्य हूँ जो चिरकालके बाद मुझे संसारबन्धनका नाश करनेवाली रघुनाथजीकी स्मृति प्राप्त हुई तथा उनके भक्तका अति दुर्लभ संग भी मिला। वे दशरथपुत्र श्रीराम सदा ही मेरे हृदयमें प्रसन्नतापूर्वक निवास करें।’ रामचरितमानसमें यह प्रसंग इस प्रकार है—

हनुमान् जीके प्रहारसे व्याकुल होकर गिर पड़नेके बाद सावधान होकर लंकिनी कहती है—

तात मोर अति पुन्य बहूता।
देखेउँ नयन राम कर दूता॥
तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥

इसके बाद हनुमान् जी छोटा-सा रूप धारण कर लंकापुरीमें सीताकी खोज करते-करते बहुत-से राक्षसोंके घरमें घूम-फिरकर रावणके महलमें जाते हैं। वहाँ रावणके महलकी विचित्र रचना देखते-देखते पुष्पक-विमानको आश्चर्ययुक्त होकर देखते हैं। इसके बाद जिस समय उन्होंने सीताको पहचाननेके लिये रावणके महलमें रावणकी स्त्रियोंको देखकर अपने मनकी स्थितिका वर्णन किया है, उसे देखनेसे यह पता चलता है कि आपकी ब्रह्मचर्यनिष्ठा कितनी ऊँची थी, परस्त्री-दर्शनको आप कितना बुरा समझते थे, आपका कितना सुन्दर विशुद्ध भाव था। वाल्मीकीय रामायणकी कथा है कि जब हनुमान् जीने रावणके महलका कोना-कोना छान डाला, परन्तु उन्हें जानकी कहीं दिखायी नहीं पड़ी, उस समय सीताको खोजनेके उद्देश्यसे स्त्रियोंको देखते-देखते उनके मनमें धर्म-भयसे शंका हुई। वे सोचने लगे, ‘इस प्रकार अन्त:पुरमें सोयी हुई परायी स्त्रियोंको देखना तो मेरे धर्मको एकदम नष्ट कर देगा; परन्तु इन परस्त्रियोंको मैंने कामबुद्धिसे नहीं देखा है। इस दृश्यसे मेरे मनमें तनिक भी विकार नहीं हुआ। समस्त इन्द्रियोंकी अच्छी-बुरी प्रवृत्तियोंका कारण मन ही है और मेरा मन सर्वथा निर्विकार है। इसके सिवा सीताजीको दूसरे तरीकेसे मैं खोज भी नहीं सकता। स्त्रियोंको ढूँढ़ते समय स्त्रियोंके ही बीचमें ढूँढ़ना पड़ता है’—इत्यादि। ऐसे सुन्दर विचार और ऐसा विशुद्ध भाव आपके ही उपयुक्त है।

साधकोंको इससे विशेष शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये और विकट स्थितिमें भी अपने मनमें किसी प्रकारका भी विकार नहीं आने देना चाहिये। वाल्मीकीय रामायणमें सीताकी खोजका बड़ा ही विचित्र और विस्तृत वर्णन है। यहाँ उसमेंसे बहुत ही थोड़े-से प्रसंगका दिग्दर्शनमात्र कराया गया है।

रामचरितमानसमें लिखा है कि सीताको खोजनेके लिये लंकामें घूमते-घूमते हनुमान् जीकी दृष्टि एक सुन्दर भवनपर पड़ती है, जिसपर भगवान् श्रीरामके आयुध अंकित किये हुए हैं। तुलसीके पौधे उसकी शोभा बढ़ा रहे हैं। यह देखकर आप सोचने लगते हैं कि यहाँ तो राक्षसोंका ही निवास है, यहाँ सज्जन पुरुष क्यों निवास करने लगे। उसी समय विभीषण जाग उठते हैं और बार-बार श्रीराम-नामका स्मरण करते हैं। यह देखकर हनुमान् जीने सोचा कि नि:सन्देह यह कोई भगवान् का भक्त है, इससे जरूर पहचान करनी चाहिये। साधुसे कभी कार्यकी हानि नहीं हो सकती।

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।
सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥
करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।
बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥
की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।
मोरें हृदय प्रीति अति होई॥
की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।
आयहु मोहि करन बड़भागी॥
तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥

भगवान् के भक्तोंमें परस्पर स्वाभाविक प्रेम कैसा होना चाहिये, इसका यहाँ बड़ा ही सुन्दर चित्र खींचा गया है। विभीषण कहते हैं—

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा। करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥
तामस तनु कछु साधन नाहीं।
प्रीति न पद सरोज मन माहीं॥
अब मोहि भा भरोस हनुमंता।
बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥

तब हनुमान् जी कहते हैं—

सुनहु बिभीषन प्रभुकै रीती।
करहिं सदा सेवक पर प्रीती॥
कहहु कवन मैं परम कुलीना।
कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्ही कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥
जानतहूँ अस स्वामि बिसारी।
फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुनव ग्रामा।
पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥

कितना सुन्दर दैन्यभाव, अतुलित विश्वास और अनन्य भगवत्प्रेम है। इसके बाद विभीषणसे सब खबर पाकर हनुमान् जी अशोकवाटिकामें जाकर श्रीसीताजीको देखते हैं और मन-ही-मन उनको प्रणाम करते हैं।

अशोकवाटिकामें जाकर श्रीसीताजीसे मिलनेके लिये हनुमान् जीने कितनी बुद्धिमानी और युक्तियोंसे काम लिया है, इसका वर्णन वाल्मीकीय रामायणमें बहुत विस्तृत है। वहाँ लिखा है कि बहुत तरहकी युक्तियाँ लगाकर सीताजीसे मिलनेका उपाय सोचते-सोचते अन्तमें हनुमान् जी बड़ी सावधानीके साथ एक सघन वृक्षके पत्तोंमें छिपकर बैठ जाते हैं। वहींसे सब ओर दृष्टि घुमाकर देखते हैं। देखते-देखते उनकी दृष्टि सीतापर पड़ती है। उसे देखकर बहुत-से चिह्नोंद्वारा अनुमान लगाकर यह निश्चय करते हैं कि यही जनकनन्दिनी सीता हैं। वहाँ उन्होंने सीताके रहन-सहन और स्वभावका बड़ा ही विचित्र चित्रण किया है। वे सीताके गहनोंको देखकर यह अनुमान लगाते हैं कि भगवान् श्रीरामने सीताजीके अंगोंमें जिन-जिन आभूषणोंकी चर्चा की थी, वे सभी इनके अंगोंमें दिखायी देते हैं। इनमें केवल वे ही नहीं दिखलायी दे रहे हैं, जो इन्होंने ऋष्यमूक पर्वतपर गिरा दिये थे।

इसी प्रकार उनके रूप और गुणोंको देखकर बड़ी बुद्धिमानीसे उन्होंने यह निश्चय कर लिया कि नि:सन्देह यही सीता हैं। यह निश्चय हो जानेपर उनको श्रीसीताजीके दु:खसे बड़ा दु:ख हुआ और वे मन-ही-मन बहुत विलाप करने लगे।

इसके बाद सीतासे किस प्रकार बातचीत करनी चाहिये, किस समय और कैसे मिलना चाहिये, किस प्रकार उन्हें विश्वास दिलाना चाहिये कि मैं श्रीरामचन्द्रजीका दास हूँ—इस विषयपर भी आपने बड़ी विचारकुशलता प्रकट की है। ठीक उसी समय रावण बहुत-सी राक्षसियोंको साथ लेकर वहाँ पहुँच जाता है। वह सीताको अनेक प्रकारसे भय दिखलाकर अपने अधीन करनेकी चेष्टा करता है, पर सीता किसी तरह भी अपने निश्चयसे विचलित नहीं होती। अन्तमें रावण चला जाता है। तब उसके आज्ञानुसार राक्षसियाँ अनेक प्रकारसे सीताको भय दिखलाती हैं। उसी समय त्रिजटा नामकी राक्षसी अपने स्वप्नकी बात कहकर सीताको धैर्य देती है और उसकी बातें सुनकर वे घोर राक्षसियाँ भी शान्त हो जाती हैं। सीता विरहसे व्याकुल होकर विलाप करने लग जाती हैं।

तब हनुमान् जी सीतासे मिलनेका उपयुक्त मौका देखकर अपने पूर्वनिश्चित विचारके अनुसार श्रीरामकी कथाका वर्णन करने लग जाते हैं। श्रीरघुनाथजीका आद्योपान्त समस्त चरित्र सुनकर सीताको बड़ा विस्मय हुआ। अध्यात्मरामायणमें लिखा है कि अन्तमें उन्होंने सोचा कि यह स्वप्न या भ्रम तो नहीं है। ऐसा विचार करके वे कहने लगीं—

येन मे कर्णपीयूषं वचनं समुदीरितम्।
स दृश्यतां महाभाग: प्रियवादी ममाग्रत:॥
(५। ३। १८)

‘जिन्होंने मेरे कानोंको अमृतके समान प्रिय लगनेवाले वचन सुनाये, वे प्रिय-भाषी महाभाग मेरे सामने प्रकट हों।’

ये वचन सुनकर आप माता सीताके सामने बड़ी विनयके साथ खड़े हो जाते हैं और हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करते हैं। अकस्मात् एक वानरको अपने सामने खड़ा देखकर सीताके मनमें यह शंका होती है कि कहीं रावण तो मुझे छलनेके लिये नहीं आ गया है, यह सोचकर वे नीचेकी ओर मुख किये हुए ही बैठी रहती हैं। रामचरितमानसमें उस समय श्रीहनुमान् जीके वचन इस प्रकार हैं—

राम दूत मैं मातु जानकी।
सत्य सपथ करुनानिधान की॥
यह मुद्रिका मातु मैं आनी।
दीन्हि राम तुम्ह कहँ सहिदानी॥

इसके बाद श्रीजानकीजीके पूछनेपर उन्होंने जिस प्रकार वानरराज सुग्रीवके साथ भगवान् श्रीरामकी मित्रता हुई, वह सारी कथा विस्तारपूर्वक सुना दी तथा श्रीराम और लक्ष्मणके शारीरिक चिह्नोंका एवं उनके गुण और स्वभावका भी वर्णन किया। ये सब बातें सुनकर जानकीजीको बड़ी प्रसन्नता हुई। इस प्रसंगका वर्णन श्रीवाल्मीकीय रामायणमें बड़ा विस्तृत और रोचक है।

रामचरितमानसमें श्रीतुलसीदासजीने बहुत ही संक्षेपमें इस प्रकार कहा है—

कपि के बचन सप्रेम सुनि उपजा मन बिस्वास।
जाना मन क्रम बचन यह कृपासिंधु कर दास॥
हरिजन जानि प्रीति अति गाढ़ी।
सजल नयन पुलकावलि बाढ़ी॥

इसके बाद महातेजस्वी पवनकुमार हनुमान् जीने सीताजीको भगवान् श्रीरामकी दी हुई अँगूठी दी, जिसे लेकर वे इतनी प्रसन्न हुईं मानो स्वयं भगवान् श्रीराम ही मिल गये हों।

उस समय वे हनुमान् जीसे कहती हैं—

बूड़त बिरह जलधि हनुमाना।
भयहु तात मो कहुँ जलजाना॥
अब कहु कुसल जाउँ बलिहारी।
अनुज सहित सुख भवन खरारी॥
कोमलचित कृपाल रघुराई।
कपि केहि हेतु धरी निठुराई॥
सहज बानि सेवक सुख दायक।
कबहुँक सुरति करत रघुनायक॥
कबहुँ नयन मम सीतल ताता।
होइहहिं निरखि स्याम मृदु गाता॥
बचनु न आव नयन भरे बारी।
अहह नाथ हौं निपट बिसारी॥

इस प्रकार सीताको विरह-व्याकुल देखकर हनुमान् जी कहते हैं—

मातु कुसल प्रभु अनुज समेता।
तव दुख दुखी सुकृपा निकेता॥
जनि जननी मानहु जियँ ऊना।
तुम्ह ते प्रेमु राम कें दूना॥
रघुपति कर संदेसु अब सुनु जननी धरि धीर।
अस कहि कपि गदगद भयउ भरे बिलोचन नीर॥

इसके बाद बड़ी बुद्धिमानीके साथ श्रीरामके प्रेम और विरह-व्याकुलताकी बात श्रीहनुमान् जीने माता सीताको सुनायी। अन्तमें कहा कि श्रीरामचन्द्रजीने कहा है—

तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा।
जानत प्रिया एकु मनु मोरा॥
सो मनु सदा रहत तोहि पाहीं।
जानु प्रीति रसु एतनेहि माहीं॥

इस प्रकार श्रीरामका प्रेमपूर्ण सन्देश सुनकर सीता प्रेममें मग्न हो गयीं, उन्हें अपने शरीरका भी भान नहीं रहा। तब हनुमान् जी फिर कहते हैं—

उर आनहु रघुपति प्रभुताई।
सुनि मम बचन तजहु कदराई॥
निसिचर निकर पतंग सम रघुपति बान कृसानु।
जननी हृदयँ धीर धरु जरे निसाचर जानु॥

ये सब बातें सुनकर जब जानकीजीने यह कहा कि ‘सब वानर तो तुम्हारे ही जैसे होंगे। राक्षसगण बड़े भयानक और विकराल हैं। इन सबको तुमलोग कैसे जीत सकोगे, मेरे मनमें यह सन्देह हो रहा है।’ यह सुनकर हनुमान् जीने अपना भयानक पर्वताकार रूप सीताको दिखलाकर अपना छिपा हुआ प्रभाव प्रकट कर दिया। उसे देखते ही सीताके मनमें विश्वास हो गया। सीताने प्रसन्न होकर हनुमान् जीको बहुतसे वरदान दिये। साथ ही यह भी कहा कि भगवान् श्रीराम तुमपर कृपा करेंगे। यह बात सुनते ही हनुमान् जी प्रेममें मग्न हो गये और बार-बार चरणोंमें प्रणाम करके हाथ जोड़े हुए बोले—

अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता।
आसिष तव अमोघ बिख्याता॥

इससे यह प्रकट होता है कि हनुमान् जीका श्रीरघुनाथजीके चरणोंमें कितना गूढ़ प्रेम है।

अध्यात्मरामायणमें लिखा है कि बातों-ही-बातोंमें सीताजीने जब यह पूछा कि ‘वानर-सेनाके सहित श्रीराम इस बड़े भारी समुद्रको पार कर यहाँ कैसे आ सकेंगे!’ तब—

हनूमानाह मे स्कन्धावारुह्य पुरुषर्षभौ।
आयास्यत: ससैन्यश्च सुग्रीवो वानरेश्वर:॥
विहायसा क्षणेनैव तीर्त्वा वारिधिमाततम्॥
(अध्यात्म०, सुन्दर० ३।४७-४८)

‘हनुमान् ने कहा—वे दोनों नरश्रेष्ठ मेरे कंधोंपर चढ़कर आ जायँगे और समस्त सेनाके सहित वानरराज सुग्रीव भी आकाशमार्गसे क्षणमात्रमें ही इस महासमुद्रसे पार होकर आ जायँगे।’

इस प्रसंगसे भी श्रीहनुमान् जीके बल, वीर्य और साहसका परिचय मिलता है। इसके बाद माता सीतासे आज्ञा लेकर अशोकवाटिकाके फल खाकर श्रीहनुमान् जीने अपने स्वामी श्रीरामका विशेष कार्य करनेकी इच्छासे अशोकवाटिकाके वृक्षोंको तहस-नहस करके समस्त वाटिकाको विध्वंस कर दिया। यह समाचार पाकर रावणने अपनी बड़ी भारी सेना और अक्षयकुमारको भेजा। उन सबके साथ हनुमान् जीका बड़ा भयंकर संग्राम हुआ। बड़ी वीरता और युद्ध-कौशलसे उन्होंने अनायास ही जाम्बुमाली मन्त्रीके सात पुत्रों, पाँच सेनापतियों और अक्षयकुमारको मार डाला। इस युद्धके प्रसंगसे श्रीहनुमान् जीका अतुलित बल-पौरुष और युद्ध-कौशल स्पष्ट व्यक्त होता है। श्रीवाल्मीकीय रामायणमें इसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। श्रीहनुमान् जीके अतुलित पराक्रमका चित्र खींचते हुए वहाँ लिखा है—

तलेनाभिहनत् कांश्चित् पादै: कांश्चित्परंतप:।
मुष्टिभिश्चाहनत्कांश्चिन्नखै: कांश्चिद्‍व्यदारयत्॥
प्रममाथोरसा कांश्चिदूरुभ्यामपरानपि।
केचित्तस्यैव नादेन तत्रैव पतिता भुवि॥
(सुन्दर० ४५।१२-१३)

‘हनुमान् जीने उन राक्षसोंमेंसे किसीको थप्पड़ मारकर गिरा दिया, कितनोंको पैरोंसे कुचल डाला, कइयोंका मुक्‍कों से काम तमाम कर दिया और बहुतोंको नखोंसे फाड़ डाला। कुछको छातीसे रगड़कर उनका कचूमर निकाल दिया तो किन्हीं-किन्हींको दोनों जाँघोंसे दबोचकर पीस डाला। कितने ही राक्षस तो उनकी भयानक गर्जनासे ही वहाँ पृथ्वीपर गिर पड़े—इत्यादि।

जब बचे-खुचे राक्षसोंसे रावणको यह खबर मिली कि मन्त्रीके सातों पुत्र और प्रधान-प्रधान प्राय: सभी राक्षस मारे गये, पाँचों सेनापति तथा अक्षयकुमार भी मारा गया, तब उसने इन्द्रजित्को उत्साहित करके हनुमान् जीको पकड़ लानेके लिये भेजा। मेघनाद और हनुमान् जीका बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। अन्तमें जब उसने श्रीहनुमान् जीको बाँधनेके लिये ब्रह्मास्त्र छोड़ा, तब ब्रह्माजीका सम्मान रखनेके लिये वे उससे बँध गये। उन्होंने सोचा कि राक्षसोंद्वारा पकड़े जानेमें भी मेरा लाभ ही है; क्योंकि इससे मुझे राक्षसराज रावणके साथ बातचीत करनेका अवसर मिलेगा। यह सोचकर वे निश्चेष्ट हो गये। तब राक्षसलोगोंने नाना प्रकारके रस्सोंसे हनुमान् जीको अच्छी प्रकार बाँध लिया। ऐसा करनेसे ब्रह्मास्त्रका प्रभाव नहीं रहा। इस प्रकार ब्रह्मास्त्रसे मुक्त हो जानेपर भी परम चतुर हनुमान् जीने ऐसा बर्ताव किया मानो इस बातको वे जानते ही न हों।

अध्यात्मरामायणमें लिखा है कि इसके बाद हनुमान् जी रावणकी सभामें लाये गये, वहाँ पहुँचकर उन्होंने समस्त सभाके बीचमें बड़ी सज-धजके साथ राजसिंहासनपर बैठे हुए रावणको देखा। हनुमान् जीको देखकर रावणको मन-ही-मन बड़ी चिन्ता हुई। वह सोचने लगा कि यह भयंकर वानर कौन है, क्या साक्षात् शिवजीके गण भगवान् नन्दीश्वर ही तो वानरका रूप धारण कर नहीं आ गये हैं। इस प्रकार बहुत-सा तर्क करनेके बाद रावणने प्रहस्तसे कहा—

प्रहस्त पृच्छैनमसौ किमागत:
किमत्र कार्यं कुत एव वानर:।
वनं किमर्थं सकलं विनाशितं
हता: किमर्थं मम राक्षसा बलात्॥
(५। ४। ५)

‘प्रहस्त! इस वानरसे पूछो, यह यहाँ क्यों आया है? यहाँ इसका क्या काम है? यह आया कहाँसे है? तथा इसने मेरा समस्त बगीचा क्यों नष्ट कर डाला? और मेरे राक्षस वीरोंको बलात् क्यों मार डाला?

प्रहस्तने श्रीहनुमान् जीसे सारी बातें सत्य-सत्य कहनेके लिये अनुरोध किया, तब आपने बड़ी राजनीतिके साथ उत्तर दिया। मनमें भगवान् का स्मरण करके वे कहने लगे—

शृणु स्फुटं देवगणाद्यमित्र हे
रामस्यदूतोऽहमशेषहृत्स्थिते: ।
यस्याखिलेशस्य हृताधुना त्वया
भार्या स्वनाशाय शुनेव सद्धवि:॥
(५। ४। ८)

‘देवादिकोंके शत्रु रावण! तुम साफ-साफ सुनो—कुत्ता जिस प्रकार विशुद्ध हविको चुरा ले जाता है, उसी प्रकार तुमने अपना नाश करानेके लिये जिन अखिलेश्वरकी साध्वी भार्याको हर लिया है, मैं उन्हीं सर्वान्तर्यामी भगवान् रामका दूत हूँ, वाल्मीकीय रामायणमें इस प्रसंगका विस्तृत वर्णन है। वहाँ हनुमान् जी कहते हैं—

अब्रवीन्नास्मिशक्रस्य यमस्य वरुणस्य च।
धनदेन न मे सख्यं .... .... ॥
जातिरेव मम त्वेषा वानरोऽहमिहागत:।
दर्शने राक्षसेन्द्रस्य तदिदं दुर्लभं मया॥
वनं राक्षसराजस्य दर्शनार्थे विनाशितम्।
ततस्ते राक्षसा: प्राप्ता बलिनो युद्धकांक्षिण:॥
रक्षणार्थं च देहस्य प्रतियुद्धा मया रणे।
अस्त्रपाशैर्न शक्योऽहं बद्धुं देवासुरैरपि॥
.... .... ....
राजानं द्रष्टुकामेन मयास्त्रमनुवर्तितम्॥
(सुन्दर० ५०।१३—१७)

‘मैं इन्द्र, यम, वरुण आदि अन्य किसी देवताका भेजा हुआ नहीं हूँ, न मेरी कुबेरके साथ मित्रता है। मेरी तो यह जाति ही है अर्थात् मैं जन्मसे ही वानर हूँ, राक्षसराज रावणको देखनेके लिये ही मैं यहाँ आया हूँ तथा रावणसे मिलनेके उद्देश्यसे ही मैंने ऐसा यह दुर्लभ बगीचा उजाड़ा है। तुम्हारे बली राक्षस मुझसे लड़नेके लिये गये; तब अपने शरीरकी रक्षाके लिये मैंने उनका मुकाबला किया। देवता या असुर—कोई भी किसी प्रकार मुझे अस्त्रोंके द्वारा बाँध नहीं सकता। राक्षसराजको देखनेके लिये ही मैंने यह बन्धन स्वीकार किया है।’

इसके बाद संक्षेपमें श्रीरामकी समस्त कथाका वर्णन करते हुए, उनकी सुग्रीवके साथ मित्रता होने और बालीके मारे जानेकी सब बातें कहकर यह बतलाया कि ‘मैं सीताकी खबर लेनेके लिये आया हूँ।’ इसके बाद आपने बड़ी युक्तियोंसे रावणको भगवान् श्रीरामके बल, पराक्रम, प्रभाव और ऐश्वर्यकी बातें सुनाकर बहुत कुछ समझानेकी चेष्टा की। रामचरितमानसमें श्रीहनुमान् जी कहते हैं—

बिनती करउँ जोरि कर रावन।
सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥
जाकें डर अति काल डेराई।
जो सुर असुर चराचर खाई॥
तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै।
मोरे कहें जानकी दीजै॥
प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि।
गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥
राम चरन पंकज उर धरहू।
लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥
सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी।
बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥
मोहमूल बहु सूल प्रद त्यागहु तम अभिमान।
भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥

भगवान् श्रीरामका प्रभाव दिखलाकर बहुत कुछ समझानेके बाद अध्यात्मरामायणमें भी यही कहा है—

विसृज्य मौर्ख्यं हृदि शत्रुभावनां
भजस्व रामं शरणागतप्रियम्।
सीतां पुरस्कृत्य सपुत्रबान्धवो
रामं नमस्कृत्य विमुच्यसे भयात्॥
(५।४।२३)

‘रावण! तुम हृदयमें स्थित शत्रुभावनारूप मूर्खताका त्याग करके शरणागतप्रिय श्रीरामका भजन करो। श्रीसीताजीको आगे करके अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसहित (भगवान् श्रीरामकी शरणमें जा पड़ो) उन्हें नमस्कार करो। ऐसा करके तुम भयसे मुक्त हो जाओगे।’

इस प्रकार श्रीहनुमान् जीने रावणको उसके हितकी बहुत-सी बातें कहीं, परन्तु उसे वे बहुत ही बुरी लगीं। वह हनुमान् जीपर क्रोध करके कहने लगा—‘अरे बंदर! तुम निर्भयकी भाँति कैसे मेरे सामने बक रहे हो! तुम बंदरोंमें नीच हो। मैं अभी तुम्हें मार डालूँगा।’ इस प्रकार उसने श्रीहनुमान् जीको बहुत-सी खोटी-खरी बातें कहकर राक्षसोंको आदेश दिया कि ‘इसे मार डालो।’ यह सुनते ही बहुत-से राक्षस श्रीहनुमान् जीको मारनेके लिये उद्यत हुए। उस समय विभीषणने रावणको समझाया। रामचरितमानसमें इसका यों वर्णन आता है—

नाइ सीस करि बिनय बहूता।
नीति बिरोध न मारिअ दूता॥
आन दंड कछु करिअ गोसाँई।
सबहीं कहा मंत्र भल भाई॥

यह सुनकर रावणने कहा—

कपि कें ममता पूँछ पर सबहि कहउँ समुझाइ।
तेल बोरि पट बाँधि पुनि पावक देहु लगाइ॥
पूँछहीन बानर तहँ जाइहि।
तब सठ निज नाथहि लइ आइहि॥
जिन्ह कै कीन्हिसि बहुत बड़ाई।
देखउँ मैं तिन्ह कै प्रभुताई॥

अध्यात्मरामायणमें लिखा है—

यह सुनकर श्रीहनुमान् जीने मन-ही-मन सोचा कि अब काम बन गया। उधर राक्षसोंने रावणकी आज्ञा पाकर तुरंत ही हनुमान् जीकी पूँछपर बहुत-से वस्त्र घी और तेलमें भिगो-भिगोकर बाँध दिये, पूँछके अग्रभागमें थोड़ी आग लगा दी और शहरमें फिराकर एवं डोंडी पिटवाकर लोगोंको सुनाने लगे कि ‘यह चोर है, इसलिये इसे यह दण्ड दिया गया है।’ कुछ दूर जानेपर हनुमान् जीने अपने शरीरको संकुचित कर तुरंत ही समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर पर्वताकार रूप धारण कर लिया और समस्त लंका जला डाली।

उत्प्लुत्योत्प्लुत्य सन्दीप्तपुच्छेन महता कपि:।
ददाह लङ्कामखिलां साट्टप्रासादतोरणाम्॥
हा तात पुत्र नाथेति क्रन्दमाना: समन्तत:।
व्याप्ता: प्रासादशिखरेऽप्यारूढा दैत्ययोषित:॥
(५। ४। ४२-४३)

‘एक घरसे दूसरे घरपर छलाँग मारते हुए श्रीहनुमान् जीने अपनी जलती हुई बड़ी पूँछसे अटारी, महल और तोरणोंके सहित समस्त लंकाको जला दिया। उस समय ‘हा तात! हा पुत्र! हा नाथ!’ इस प्रकार चिल्लाती हुई दैत्योंकी स्त्रियाँ चारों ओर फैल गयीं और महलोंके शिखरोंपर भी चढ़ गयीं।

रामचरितमानसमें लिखा है—

निबुकि चढ़ेउ कपि कनक अटारीं।
भईं सभीत निसाचर नारीं॥
जारा नगरु निमिष एकव माहीं।
एक बिभीषन कर गृह नाहीं॥
उलटि पलटि लंका सब जारी।
कूदि परा पुनि सिंधु मझारी॥
पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥

इस प्रकार श्रीजानकीजीके पास पहुँचकर श्रीहनुमान् जीने उन्हें प्रणाम किया और लौटकर श्रीरामके पास जानेके लिये आज्ञा माँगी। तब माता सीताने कहा कि ‘हनुमान् तुम्हें देखकर मैं अपने दु:खको कुछ भूल गयी थी; अब तुम भी जा रहे हो तो बताओ, अब मैं भगवान् श्रीरामकी कथा सुने बिना कैसे रह सकूँगी?’ अध्यात्मरामायणमें उस समय श्रीहनुमान् जीके वचन इस प्रकार हैं—

यद्येवं देवि मे स्कन्धमारोह क्षणमात्रत:।
रामेण योजयिष्यामि मन्यसे यदि जानकि॥
(५। ५। ६)

‘देवि जानकी! यदि ऐसी बात है और आप स्वीकार करें तो मेरे कंधेपर चढ़ जाइये; मैं एक क्षणमें ही आपको श्रीरामसे मिला दूँगा।’

वाल्मीकीय रामायणमें और भी विस्तृत वर्णन है। वहाँ हनुमान् जीके इस प्रस्तावपर श्रीजनकनन्दिनी कहती हैं—‘हनुमान्! मैं स्वेच्छासे किसी पुरुषको कैसे स्पर्श कर सकती हूँ। श्रीरामजी वानरोंके साथ यहाँ आकर रावणको युद्धमें मारकर मुझे ले जायँ इसीमें उनकी शोभा है। इसलिये तुम जाओ, मैं किसी तरह कुछ दिन प्राण धारण करूँगी।’

इसके बाद रामचरितमानसमें हनुमान् जीके वचन इस प्रकार हैं—

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।
जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा॥

तब सीताने अपनी चूडामणि हनुमान् को दी, उसे पाकर हनुमान् जी बड़े प्रसन्न हुए। उसके बाद सीताने वह सब प्रसंग भी हनुमान् जीको सुनाया, जिस प्रकार जयन्तने कौवेका रूप धारण करके चोंच मारी थी और भगवान् श्रीरामने उसपर क्रोध किया था।

इस प्रकार श्रीहनुमान् जी सीताका सन्देश लेकर, उनको प्रणाम करके वहाँसे लौटे। उनके मनमें श्रीरामचन्द्रजीके दर्शनोंकी बड़ी उतावली हो रही थी। इसलिये वे बड़े वेगसे पहाड़पर चढ़ रहे थे। उस समय उनके पैरोंकी धमकसे पर्वतकी शिलाएँ चूर-चूर होती जा रही थीं। सबसे ऊँचे शिखरपर चढ़कर श्रीहनुमान् जीने अपना शरीर बढ़ाया और समुद्रसे पार होकर उत्तरी किनारेपर जानेका विचार किया। पर्वतसे उछलकर वे वायुकी भाँति आकाशमें जा पहुँचे। वह पर्वत हनुमान् जीके पैरोंसे दबाये जानेके कारण बड़ी आवाज करता हुआ अपने ऊपर रहनेवाले वृक्षों और प्राणियोंके सहित जमीनमें धँस गया।

श्रीहनुमान् जी आकाशमार्गसे आगे बढ़ते हुए उत्तर तटके पास पहुँचकर बड़े जोरसे गर्जे, जिससे समस्त दिशाएँ गूँज उठीं। उसे सुनकर हनुमान् जीसे मिलनेके लिये समस्त वानर उत्साहित हो उठे। जाम्बवान्के हृदयमें बड़ी प्रसन्नता हुई, वे सबसे कहने लगे—‘हनुमान् जी सब प्रकारसे अपना कार्य सिद्ध करके आ रहे हैं अन्यथा इनकी ऐसी गर्जना नहीं हो सकती थी।’

इतनेमें ही अत्यन्त वेगशाली पर्वताकार श्रीहनुमान् जी महेन्द्र पर्वतके शिखरपर कूद पड़े। उस समय सभी वानर बड़े प्रसन्न हुए और महात्मा हनुमान् जीको चारों ओरसे घेरकर खड़े हो गये। हनुमान् जीने जाम्बवान् आदि बड़ोंको प्रणाम किया तथा अन्य वानरोंसे प्रेमपूर्वक मिले। संक्षेपमें ही सीताजीसे मिलने और लंका जला डालनेका सारा प्रसंग उन लोगोंसे कह सुनाया। वाल्मीकीय रामायणमें इस प्रसंगका भी बड़े विस्तारसे वर्णन हुआ है।

समस्त वानरोंके सहित श्रीहनुमान् जी वहाँसे चलकर किष्किन्धा पहुँचे। वहाँ सुग्रीवके मधुवनमें आनन्दपूर्वक सब वानरोंने अंगदकी आज्ञा लेकर मधुपान किया। रक्षकोंने आकर वानरराज सुग्रीवके पास इसकी शिकायत की, उस समय लक्ष्मणके पूछनेपर सुग्रीवने कहा—‘भाई लक्ष्मण! इन सब बातोंसे मुझे तनिक भी सन्देह नहीं रहा कि हनुमान् ने ही भगवती सीताका दर्शन किया है। वानरश्रेष्ठ हनुमान् में कार्य सिद्ध करनेकी शक्ति, बुद्धि, उद्योग, पराक्रम और शास्त्रीय ज्ञान—सभी कुछ हैं।’ इसके अतिरिक्त उन्होंने और भी बहुत-सी ऐसी बातें कहीं, जिनसे श्रीहनुमान् जीका प्रभाव स्पष्ट व्यक्त होता है।

फिर सुग्रीवने तुरंत ही सब वानरोंके साथ हनुमान् जीको अपने पास बुला लिया और वे उनका कुशल-समाचार जानकर बड़े प्रसन्न हुए। सब मिलकर श्रीरामजीके पास आये। उस समय श्रीरामचरितमानसमें हनुमान् जीके महत्त्वका वर्णन करते हुए जाम्बवान् नेकहा है—

नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी।
सहसहुँ मुख न जाइ सो बरनी॥

इसके बाद श्रीहनुमान् जीने भगवान् के चरणोंमें प्रणाम किया और श्रीरामने हनुमान् को हृदयसे लगाया। तब हनुमान् जीने कहा—‘देवी सीता पातिव्रत्यके कठोर नियमोंका पालन करती हुई शरीरसे कुशल हैं, मैं उनके दर्शन कर आया हूँ।’ हनुमान् जीके ये अमृतके समान वचन सुनकर श्रीराम और लक्ष्मणको बड़ा हर्ष हुआ। भगवान् के मनका भाव जानकर हनुमान् जीने उन्हें जिस प्रकार श्रीजानकीजीके दर्शन हुए थे, वह समस्त प्रसंग सुनाकर उनकी दी हुई चूडामणि भगवान् को अर्पण कर दी। उस मणिको लेकर भगवान् श्रीरामने हृदयसे लगा लिया और उसे देख-देखकर विरहमें व्याकुल होने लगे।

रामचरितमानसमें सीताका सन्देश देते हुए हनुमान् जीने श्रीसीताजीके प्रेमकी बात इस प्रकार कही है—

नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट।
लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट॥

अन्तमें यहाँतक कह दिया—

सीता कै अति बिपति बिसाला।
बिनहिं कहें भलि दीनदयाला॥

अध्यात्मरामायणमें इसका वर्णन इस प्रकार है। सीताके समाचार सुनाते हुए हनुमान् जी कहते हैं—

अभिज्ञां देहि मे देवि यथा मां विश्वसेद्विभु:॥
इत्युक्ता सा शिरोरत्नं चूडापाशे स्थितं प्रियम्।
दत्त्वा काकेन यद्‍वृत्तं चित्रकूटगिरौ पुरा॥
तदप्याहाश्रुपूर्णाक्षी कुशलं ब्रूहि राघवम्।
लक्ष्मणं ब्रूहि मे किंचिद् दुरुक्तं भाषितं पुरा॥
तत्क्षमस्वाज्ञभावेन भाषितं कुलनन्दन।
तारयेन्मां यथा रामस्तथा कुरु कृपान्वित:॥
तत: प्रस्थापितो राम त्वत्समीपमिहागत:।
तदागमनवेलायामशोकवनिकां प्रियाम्॥
उत्पाट्य राक्षसांस्तत्र बहून् हत्वा क्षणादहम्।
रावणस्य सुतं हत्वा रावणेनाभिभाष्य च॥
लङ्कामशेषतो दग्ध्वा पुनरप्यागमं क्षणात्।
(५। ५। ५२—५९)

‘आते समय मैंने सीतासे कहा कि ‘देवि! मुझे कोई ऐसी निशानी दीजिये, जिससे श्रीरघुनाथजी मेरा विश्वास कर लें।’ मेरे इस प्रकार कहनेपर उन्होंने अपने केशपाशमें स्थित अपनी प्रिय चूडामणि मुझे दी। पहले चित्रकूटपर काकके साथ जो घटना हुई थी, वह सब सुनायी तथा नेत्रोंमें जल भरकर कहा कि श्रीरघुनाथजीसे मेरी कुशल कहना और लक्ष्मणसे कहना—‘कुलनन्दन! मैंने पहले तुमसे जो कुछ कठोर वचन कहे थे, उन अज्ञानवश कहे हुए वचनोंके लिये मुझे क्षमा करना तथा जिस प्रकार श्रीरघुनाथजी कृपा करके मेरा उद्धार करें, वैसी चेष्टा करना।’ उनका यह संदेसा लेकर उनका भेजा हुआ मैं आपके पास चला आया। आते समय मैंने रावणकी प्यारी अशोकवाटिका उजाड़ दी तथा एक क्षणमें ही बहुत-से राक्षस मार डाले। रावणके पुत्र अक्षयकुमारको भी मारा और रावणसे वार्तालाप कर लंकाको सब ओरसे जलाकर फिर तुरंत ही यहाँ चला आया।’

श्रीहनुमान् जीसे सीताके सब समाचार सुनकर श्रीराम बड़े प्रसन्न हुए और कहने लगे—

हनुमंस्ते कृतं कार्यं देवैरपि सुदुष्करम्।
उपकारं न पश्यामि तव प्रत्युपकारिण:॥
इदानीं ते प्रयच्छामि सर्वस्वं मम मारुते।
इत्यालिङ्‍‍ग्य समाकृष्य गाढं वानरपुङ्गवम्॥
सार्द्रनेत्रो रघुश्रेष्ठ: परां प्रीतिमवाप स:।
(५। ५। ६०—६२)

‘वायुनन्दन हनुमान्! तुमने जो कार्य किया है, वह देवताओंसे भी होना कठिन है। मैं इसके बदलेमें तुम्हारा क्या उपकार करूँ, यह नहीं जानता। मैं अभी तुम्हें अपना सर्वस्व देता हूँ, यह कहकर रघुश्रेष्ठ श्रीरामने वानरश्रेष्ठ हनुमान् को खींचकर गाढ़ आलिंगन किया। उनके नेत्रोंमें प्रेमाश्रु भर आये और वे प्रेममें मग्न हो गये।’

श्रीहनुमान् जीके बल, पराक्रम, कार्यकौशल, साहस और पवित्र प्रेमका इस प्रकरणमें सभी रामायणोंमें बड़ा ही सुन्दर वर्णन मिलता है। वाल्मीकीय रामायणके युद्धकाण्डमें भी श्रीहनुमान् जीके प्रभावका बड़ा सुन्दर वर्णन है; यहाँ उसका दिग्दर्शनमात्र कराया जाता है।

एक दिन भयानक युद्धमें रावणके प्रधान-प्रधान सेनापति मारे गये, राक्षसलोग हताश हो गये। पुत्र और भाइयोंके मारे जानेका समाचार सुनकर रावणको बड़ी चिन्ता हुई। यह देखकर मेघनादको बड़ा क्रोध आया, वह पिताके सामने अपने बल-पौरुषका वर्णन करके उसे धैर्य देकर भयानक युद्ध करनेके लिये युद्धक्षेत्रमें आया। वहाँ पहुँचकर उसने बड़ा ही घमासान युद्ध किया तथा बहुत-से वानरोंको प्राणहीन कर दिया। उसके ब्रह्मास्त्रके प्रभावसे श्रीराम और लक्ष्मण भी मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़े। बचे हुए प्रधान-प्रधान रीछ और वानर चिन्तामग्न हो गये। तब विभीषणने सबको धैर्य दिया और वे हनुमान् को साथ लेकर जहाँ जाम्बवान् पड़ा था, वहाँ गये। वहाँ जाकर विभीषणने जाम्बवान्का हाल पूछा, तब जाम्बवान् अपनी पीड़ाका वर्णन करते हुए कहने लगे कि ‘मैं तुम्हें केवल आवाजसे ही पहचान सका हूँ, देखनेकी शक्ति मुझमें नहीं है। तुम सबसे पहले मुझे यह बताओ कि वानरश्रेष्ठ हनुमान् के प्राण बचे हैं या नहीं।’ इसपर विभीषणने कहा—‘ऋक्षराज! आपने श्रीराम और लक्ष्मणको छोड़कर पहले केवल हनुमान् जीकी कुशल कैसे पूछी? राजा सुग्रीव, अंगद तथा श्रीराम और लक्ष्मणपर भी आपने उतना स्नेह प्रकट नहीं किया जितना गाढ़ प्रेम आपका पवनकुमारके प्रति लक्षित हो रहा है। इसका क्या कारण है!’

तब जाम्बवान् बोले—

शृणु नैर्ऋतशार्दूल यस्मात्पृच्छामि मारुतिम्॥
अस्मिञ्जीवति वीरे तु हतमप्यहतं बलम्।
हनूमत्युज्झितप्राणे जीवन्तोऽपि मृता वयम्॥
(युद्ध० ७४।२१-२२)

‘राक्षसराज! सुनो, मैं हनुमान् के लिये इसलिये पूछ रहा हूँ कि यदि इस समय वीरवर हनुमान् जीवित हों तो यह मरी हुई सेना भी जी सकती है और यदि उनके प्राण निकल गये हों तो हम जीते हुए भी मृतकतुल्य ही हैं।’

इसके बाद श्रीहनुमान् जीने उनको प्रणाम किया। हनुमान् की आवाज सुनकर जाम्बवान्में नया जीवन आ गया। उन्होंने हनुमान् को संजीवनी ओषधिके लक्षण बताकर हिमालयपर भेजा। उनके आज्ञानुसार हनुमान् जीने वहाँ जाकर ओषधिकी खोज की, पर ओषधि लुप्त हो जानेके कारण मिली नहीं। तब आप उस पर्वतको ही उखाड़कर ले आये और समस्त वानर-सेनाको पुन: प्राण-दान दिया तथा श्रीराम और लक्ष्मण भी स्वस्थ हो गये। इत्यादि।

जब रावणद्वारा छोड़ी हुई अमोघ शक्ति श्रीलक्ष्मणजीने विभीषणजीकी रक्षाके लिये अपने ऊपर ले ली और मानुषी लीला करनेके लिये आप मूर्च्छित हो गये, तब रावण श्रीलक्ष्मणके पास जाकर उन्हें उठाने लगा; परन्तु समस्त जगत् के आधारभूत श्रीलक्ष्मणको वह कैसे उठा सकताथा।

अध्यात्मरामायणमें लिखा है—

ग्रहीतुकामं सौमित्रिं रावणं वीक्ष्य मारुति:॥
आजघानोरसि क्रुद्धो वज्रकल्पेन मुष्टिना।
तेन मुष्टिप्रहारेण जानुभ्यामपतद्भुवि॥
(६।६।१२-१३)

‘उस समय हनुमान् जीने देखा कि रावण लक्ष्मणजीको उठाकर ले जाना चाहता है तो वे कुपित हो गये और अपनी वज्रतुल्य मुट्ठीसे उसकी छातीपर प्रहार किया। उस मुष्टिप्रहारसे रावण घुटनोंके बल पृथ्वीपर गिर पड़ा।’ इधर हनुमान् जी लक्ष्मणको उठाकर भगवान् श्रीरामके पास ले गये।

इस समय भी श्रीहनुमान् जी द्रोण-पर्वतपर ओषधि लानेके लिये गये और उसी तरह पर्वतको उखाड़ लाये थे। इस प्रसंगका वर्णन करते हुए सभी रामायणोंमें श्रीहनुमान् जीका अद्भुत बल, पौरुष, बुद्धिकौशल और प्रभाव दिखाया गया है।

रामचरितमानसमें मेघनादकी शक्तिसे श्रीलक्ष्मणजीके मूर्च्छित होनेकी बात आती है। वहाँ हनुमान् जी ही जाम्बवान्के कहनेसे पहले घरसहित सुषेणको उठाकर लाये हैं, फिर सुषेणके कहनेसे संजीवनी लाने गये हैं और पर्वतको उखाड़ लाये हैं। श्रीहनुमान् जीका सेवाभाव बड़ा ही विचित्र था। इनकी सेवाके कारण भगवान् श्रीरामने अपनेको ऋणी माना। माता सीताने भी वही बात कही। लक्ष्मण और समस्त वानरोंके प्राण बचे। इसी प्रकार विरह-व्याकुल भरतको श्रीरामचन्द्रजीके आनेकी सूचना देकर उनके प्राण बचानेका काम भी हनुमान् जीने ही किया।

रामचरितमानसका वर्णन है—

राम बिरह सागर महँ भरत मगन मन होत।
बिप्र रूप धरि पवनसुत आइ गयउ जनु पोत॥

वहाँ श्रीहनुमान् जी भरतकी प्रेम-दशा देखकर कहते हैं—

जासु बिरहँ सोचहु दिन राती।
रटहु निरंतर गुन गन पाँती॥
रघुकुल तिलक सुजन सुख दाता।
आयहु कुसल देव मुनि त्राता॥

इस प्रकार श्रीरामके आनेका कुशल-समाचार सुनते ही श्रीभरतजीमें जीवनका संचार हो आया। उनके पूछनेपर अपना परिचय देते हुए हनुमान् जी कहते हैं—

मारुत सुत मैं कपि हनुमाना।
नामु मोर सुनु कृपानिधाना॥
दीनबंधु रघुपति कर किंकर।
................................ ॥

कितना विनयभाव है! यह बात सुनते ही भरतजी उठकर बड़े हर्ष और आदरके साथ उनसे मिले। अपने आनन्दका वर्णन करते हुए अन्तमें यहाँतक कह दिया—

नाहिन तात उरिन मैं तोही।
अब प्रभु चरित सुनावहु मोही॥

इस प्रकार श्रीहनुमान् जीने सबकी सेवा की, जिसके कारण सभीने अपनेको उनका ऋणी माना। भगवान् श्रीरामके राज्यसिंहासनपर आरूढ़ हो जानेके बाद भी आप सदा उनकी सेवामें ही रहे। अन्य सब वानर और राक्षस अपने-अपने घर लौट गये, पर श्रीहनुमान् जी नहीं गये। भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने जब अश्वमेध यज्ञ किया था, उस समय श्रीहनुमान् जी भी घोड़ेकी रक्षाके लिये शत्रुघ्नके साथ गये थे।

पद्मपुराणके पातालखण्डमें रामाश्वमेधयज्ञकी कथाका विस्तृत वर्णन है। वहाँ भी श्रीहनुमान् जीके महत्त्वका बड़ा सुन्दर वर्णन आता है। जब श्रीरामाश्वमेधका घोड़ा अनेक देशोंमें भ्रमण करता हुआ राजा सुबाहुकी राजधानी चक्रांका नगरीके पास पहुँचा, तब राजाके पुत्र दमनने उस घोड़ेको पकड़ लिया। उस राजाके और भी कई पुत्र और भाई बड़े शूरवीर थे तथा वह स्वयं भी बड़ा ही वीर योद्धा था। वहाँ दोनों ओरसे बड़ा भयानक युद्ध हुआ। अन्तमें राजा सुबाहुके साथ श्रीहनुमान् जीका भयानक युद्ध हुआ। उसमें कपिवर हनुमान् जीने बार-बार राजाको व्यथित किया, उसके रथको घोड़ोंसहित चूर्ण कर डाला और बड़े जोरसे राजाकी छातीमें एक लात मारी। उसके लगते ही राजा सुबाहु मूर्च्छित होकर पृथ्वीपर गिर पड़ा। श्रीहनुमान् जीके पदाघातसे उसका मोह नष्ट हो गया। उनके मनमें श्रीरामकी भक्ति प्रकट हो गयी। वह स्वप्नमें देखता है—

रामचन्द्रस्त्वयोध्यायां सरयूतीरमण्डपे।
ब्राह्मणैर्याज्ञिकश्रेष्ठैर्बहुभि: परिवारित:॥
तत्र ब्रह्मादयो देवास्तत्र ब्रह्माण्डकोटय:।
कृतप्राञ्जलयस्तं वै स्तुवन्ति स्तुतिभिर्मुहु:॥
(२८।४९-५०)

‘अयोध्यापुरीमें सरयू नदीके तीरपर श्रीरामचन्द्रजी यज्ञमण्डपके भीतर विराजमान हैं। यज्ञ करानेवालोंमें श्रेष्ठ अनेकों ब्राह्मण उन्हें घेरकर बैठे हुए हैं। करोड़ों ब्रह्माण्डोंके ब्रह्मादि देवता हाथ जोड़े खड़े हैं और बारंबार श्रीरामकी स्तुति कर रहे हैं’—इत्यादि।

इस प्रकारका अद्भुत स्वप्न देखते ही राजाको श्रीराम-तत्त्वका ज्ञान हो गया। वह तुरंत ही मूर्च्छासे उठा और शत्रुघ्नके चरणोंकी ओर पैदल ही चल पड़ा। युद्ध बंद करनेकी घोषणा करते हुए उसने अपने पुत्र और बन्धु-बान्धवोंसे कहा—

एष राम: परं ब्रह्म कार्यकारणत: परम्।
चराचरजगत्स्वामी न मानुषवपुर्धर:॥
एतद्धि ब्रह्मविज्ञानमधुना ज्ञातवानहम्।
(२८।५९-६०)

‘ये श्रीरामचन्द्रजी कार्य और कारणसे परे साक्षात् परब्रह्म हैं। ये चराचर जगत् के स्वामी हैं। मानव-शरीर धारण करनेपर भी ये वास्तवमें मनुष्य नहीं हैं। इनको इस रूपमें जान लेना ही ब्रह्मज्ञान है। इस तत्त्वको मैं अब समझ पाया हूँ।’ इतना कहकर उसने अपने पुत्रोंसे असितांग मुनिके द्वारा अपनेको शाप प्राप्त होनेकी सब कथा कह सुनायी और घोड़ेको लेकर अपने बन्धु-बान्धवोंके सहित शत्रुघ्नजीकी शरणमें जा पड़ा। वहाँ उसने कृतज्ञता प्रकट करते हुए श्रीहनुमान् जीके विषयमें कहा है—

क्वासौ हनूमान् रामस्य चरणाम्भोजषट्पद:।
यत्प्रसादादहं प्राप्स्ये राजराजस्य दर्शनम्॥
साधूनां संगमे किं किं प्राप्यते न महीतले।
यत्प्रसादादहं मूढो ब्रह्मशापमतीतरम्॥
(२९।३२-३३)

‘श्रीरामके चरण-कमलोंके मधुकर वे हनुमान् कहाँ हैं, उन्हींकी कृपासे मैं राजाधिराज श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करूँगा। साधुसंग मिल जानेपर इस पृथ्वीपर मनुष्यको क्या-क्या नहीं मिल जाता। मैं महामूढ़ था, किन्तु सत्संगके प्रभावसे आज घोर ब्रह्मशापसे मेरा उद्धार हो गया।’

उसके बाद अनेक देशोंको विजय करते-करते जब यज्ञका घोड़ा राजा सत्यवान्के नगरसे आगे जा रहा था, उस समय विद्युन्माली नामके राक्षसने रास्तेमें उस घोड़ेको चुरा लिया और अपने सैनिक राक्षसोंके सहित विमानमें बैठकर आकाशमें जाकर प्रकट हुआ। वहाँ उस राक्षसके साथ शत्रुघ्नकी सेनाका बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। उस समय श्रीहनुमान् जीने उस राक्षसके साथ युद्धमें अपना पराक्रम दिखलानेकी जो प्रतिज्ञा की है, उससे इस बातका पता लगता है कि श्रीहनुमान् जी भगवान् रामपर कितना भरोसा रखते थे। वे भगवान् श्रीरामकी कृपाके भरोसेपर अपनी अद्भुत शक्ति मानते थे। उन्होंने पहले जैसी प्रतिज्ञाकी, उसी प्रकार युद्धमें भी अपना अद्भुत पराक्रम दिखाया। वे आकाशमें जाकर विमानपर शत्रुपक्षके महान् दैत्योंको नखोंसे विदीर्ण करके मौतके घाट उतारने लगे। किन्हींको पूँछसे मार डाला, किन्हींको पैरोंसे कुचल डाला और किन्हींको हाथोंसे चीर डाला। जब क्रोधमें भरकर राक्षसराज विद्युन्मालीने अत्यन्त तेजस्वी भयानक त्रिशूलका प्रहार किया, तब उसे हनुमान् जीने अपने मुँहमें पकड़ लिया और दाँतोंसे चबाकर चूर-चूर कर डाला तथा उस दैत्यराजको थप्पड़ोंकी मारसे व्याकुल कर दिया। इसके बाद श्रीशत्रुघ्नजीने विद्युन्माली और वज्रदंष्ट्रको मार गिराया। बचे-खुचे राक्षस उनकी शरणमें आ गये।

वहाँसे जाकर वे आरण्यक मुनिसे मिले। इसके बाद वह घोड़ा देवपुरके पास पहुँचा, वहाँ राजा वीरमणि और उसके पुत्रोंसे शत्रुघ्नकी सेनाका बड़ा भयंकर युद्ध हुआ। राजा वीरमणि भगवान् शंकरका परम भक्त था। अत: वहाँ उसकी सहायताके लिये स्वयं भगवान् शंकर भी अपने गणोंके सहित रणक्षेत्रमें युद्ध करनेके लिये पधारे थे। उस भयानक युद्धमें जब राजकुमार पुष्कल मारे गये और शत्रुघ्न भी मूर्च्छित हो गये, उस समय श्रीहनुमान् जीने अद्भुत पराक्रम दिखाया। साक्षात् भगवान् शंकरके साथ उन्होंने घोर युद्ध किया तथा सारथि और घोड़ोंके सहित शिवजीके रथको चूर-चूर कर डाला। जब भगवान् शिवजी नन्दीपर सवार होकर युद्ध करने लगे, तब श्रीहनुमान् जीने शालवृक्षका प्रहार करके शिवजीको व्याकुल कर दिया। अब भगवान् शंकरने उनपर अपना त्रिशूल चलाया। हनुमान् जीने उसे पकड़ लिया और क्षणभरमें तोड़कर तिल-तिल कर डाला। नाना प्रकारके प्रहारोंसे शिवजीको व्यथित करके अन्तमें भूतनाथ भगवान् शिवको अपनी पूँछमें लपेट लिया। यह देखकर नन्दी भयभीत हो गये। इस प्रकार जब हनुमान् जीने शिवजीको अत्यन्त व्याकुल कर दिया, तब हनुमान् जीके युद्धसे प्रसन्न होकर शंकर कहने लगे—‘श्रीरघुनाथजीके सेवक हनुमान्! तुम धन्य हो। आज तुमने महान् पराक्रम कर दिखाया। इससे मुझे बड़ा संतोष हुआ। अत: तुम मुझसे वर माँगो।’

इसपर हनुमान् जीने हँसकर निर्भय वाणीसे कहा—‘महेश्वर! रघुनाथजीकी कृपासे मुझे सब कुछ प्राप्त है; तथापि आपकी प्रसन्नताके लिये मैं यही वर माँगता हूँ कि जबतक मैं द्रोण-पर्वतपर जाकर औषध ले आऊँ, तबतक आप अपने गणोंसहित हमारे पक्षके मरे हुए वीरोंके शरीरोंकी रक्षा करते रहें। उन्हें कोई खण्ड-खण्ड न करने पाये।’ शिवजीने उनकी माँग स्वीकार कर ली। उसके बाद हनुमान् जी जिस प्रकार लंकापुरीमें संजीवनी बूटी लाये थे,उसी प्रकार तुरंत ही संजीवनी बूटी ले आये। पहले राजकुमार पुष्कलको जिलाया, उसके बाद शत्रुघ्नकी मूर्च्छा दूर की और समस्त वीरोंको जीवन-दान दिया। इस प्रकार उस भयानक युद्धमें श्रीहनुमान् जीके ही पराक्रमसे सबके प्राण बचे। अन्तमें वहाँ भगवान् श्रीराम स्वयं पधारे। भगवान् शिवजीने राजा वीरमणिको समझाकर श्रीरामका भक्त बना दिया।

इसके बाद वह घोड़ा अनेक देश-देशान्तरोंमें घूमता हुआ राजा सुरथसे रक्षित कुण्डलनगरके पास पहुँचा। राजा सुरथ भगवान् रामका परम भक्त था। उसने भगवान् श्रीरामके दर्शनार्थ उनके घोड़ेको पकड़ लिया। वहाँपर राजा सुरथके साथ शत्रुघ्नका बड़ा ही भयंकर युद्ध हुआ। उस युद्धमें जब राजा सुरथका पुत्र चम्पक राजकुमार पुष्कलको बाँधकर नगरमें ले जाने लगा, उस समय शत्रुघ्नकी प्रेरणासे श्रीहनुमान् जी वहाँ गये। जाते ही उन्होंने रथसे चम्पकको उठा लिया और वे उसे लेकर आकाशमें चले गये। वह आकाशमें ही हनुमान् जीसे बाहुयुद्ध करने लगा। राजकुमार चम्पकका अद्भुत पराक्रम देखकर हँसते-हँसते हनुमान् जीने उसका पैर पकड़ लिया और उसे सौ बार घुमाकर हाथीके हौदेपर दे मारा, राजकुमार गिरते ही मूर्च्छित हो गया।

अपने पुत्रको मूर्च्छित हुआ देख राजा सुरथ स्वयं हनुमान् जीसे युद्ध करनेके लिये आये। उन्होंने श्रीहनुमान् जीके बल और पराक्रमकी तथा रामभक्तिकी सच्चे हृदयसे प्रशंसा की और साथ ही यह प्रतिज्ञा भी की कि ‘मैं तुम्हें बाँधकर अपने नगरमें ले जाऊँगा।’ उसकी बातका उत्तर देते हुए श्रीहनुमान् जीने कहा कि ‘राजन्! आप श्रीरघुनाथजीके चरणोंका चिन्तन करनेवाले हैं और मैं भी उन्हींका सेवक हूँ। यदि आप मुझे बाँध लेंगे तो मेरे स्वामी मुझे बलपूर्वक छुड़ा लेंगे। वीर! तुम अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो। जो श्रीरामचन्द्रजीका स्मरण करते हैं, उन्हें कभी दु:ख नहीं होता।’

इस प्रकार बातचीत होनेके बाद राजा सुरथके साथ हनुमान् जीका भयंकर युद्ध हुआ। हनुमान् जीने उस युद्धमें राजा सुरथके एक-एक करके उनचास रथ तोड़ डाले। राजाकी समस्त सेना व्याकुल हो गयी और स्वयं राजाको भी बड़ा आश्चर्य हुआ। राजाने श्रीहनुमान् जीके बलकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। राजाने पाशुपतास्त्रसे हनुमान् जीको बाँधनेकी चेष्टा की। एक बार लोगोंने समझा कि हनुमान् बँध गये। परन्तु श्रीहनुमान् जीने अपने मनमें भगवान् श्रीरामका स्मरण करके क्षणमात्रमें उस अस्त्रके बन्धनको तोड़ डाला। राजाने ब्रह्मास्त्र चलाया तो उसे भी श्रीहनुमान् जी निगल गये। अन्तमें भगवान् रामका स्मरण करके श्रीरामास्त्रको अपने धनुषपर चढ़ाया और उसका प्रयोग करके हनुमान् जीसे कहा कि ‘कपिश्रेष्ठ! अब तुम बँध गये।’ हनुमान् जीने कहा ‘राजन्! तुमने मेरे स्वामी श्रीरामके ही शस्त्रसे बाँधा है, दूसरे किसी प्राकृत शस्त्रसे नहीं। इसलिये मैं उसका आदर करता हूँ। अब तुम मुझे अपने नगरमें ले जा सकते हो।’

राजा सुरथके साथ जो हनुमान् जीकी बातें हुईं, उनमें अद्भुत प्रेम भरा है। श्रीहनुमान् जीको भला कौन बाँध सकता है। वे तो स्वयं अपनी इच्छासे ही भगवान् के परम भक्त सुरथकी प्रतिज्ञा सत्य करनेके लिये और अपने स्वामीके अस्त्रका सम्मान रखनेके लिये बँध गये।

इसके बाद वहाँ श्रीहनुमान् जीके बुलानेपर स्वयं भगवान् श्रीरामचन्द्रजी पधारे और उन्होंने राजा सुरथको दर्शन देकर उसे कृतार्थ किया। इस प्रकार पद्मपुराणके पातालखण्डमें श्रीहनुमान् जीके महत्त्वका बड़ा ही सुन्दर वर्णन है। यहाँ वह बहुत ही संक्षेपमें लिखा गया है।

परम धाम पधारते समय भगवान् श्रीरामचन्द्रजी कपिवर श्रीहनुमान् जीको जगत् का कल्याण करनेके लिये यहीं रहनेकी आज्ञा दे गये। वाल्मीकीय रामायणमें श्रीराम परम धाम पधारते समय हनुमान् जीसे कहते हैं—

मत्कथा: प्रचरिष्यन्ति यावल्लोके हरीश्वर।
तावद् रमस्व सुप्रीतो मद्वाक्यमनुपालयन्॥
(उत्तर० १०८।३३)

‘वानरश्रेष्ठ! संसारमें जबतक मेरी कथाओंका प्रचार रहे, तबतक तुम भी मेरी आज्ञाका पालन करते हुए प्रसन्नतापूर्वक विचरते रहो।’ महात्मा रामचन्द्रजीके कहनेपर हनुमान् जीको बड़ा हर्ष हुआ और उन्होंने कहा—

यावत्तव कथा लोके विचरिष्यति पावनी।
तावत्स्थास्यामि मेदिन्यां तवाज्ञामनुपालयन्॥
(उत्तर० १०८।३५)

‘प्रभो! संसारमें जबतक आपकी पावन कथाका प्रचार रहेगा, तबतक आपके आदेशका पालन करता हुआ मैं इस पृथ्वीपर ही रहूँगा।’

द्वापरयुगमें श्रीहनुमान् जीने भीमसेन और अर्जुनको भी दर्शन दिये थे। कलियुगमें भी आपके प्रकट होनेकी कई कथाएँ मिलती हैं। आपके गुण, प्रभाव और माहात्म्यका बड़ा विस्तार है। यहाँ बहुत ही संक्षेपमें उसका दिग्दर्शनमात्र कराया गया है। इस लेखसे श्रीहनुमान् जीके अतुलित गुणोंका चिन्तन करके लाभ उठाना चाहिये। उन्हें आदर्श बनाकर अखण्ड ब्रह्मचर्य, अटल भगवद्भक्ति, वीरता, धीरता, बल—पौरुष, विद्या, साहस और बुद्धिमानी आदि गुण धारण करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur