आचरण करने योग्य पचीस बातें
१-सन्ध्या अत्यन्त प्रेमपूर्वक करनी चाहिये; अर्थपर ध्यान रखते हुए गायत्रीमन्त्रका जप करना चाहिये तथा ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥’ इस मन्त्रका भी श्रद्धा-भक्तिपूर्वक जप-कीर्तन करना चाहिये।
२-सब भाइयोंको गीताका अर्थ समझनेके लिये विशेष प्रयत्न करना चाहिये। गीताका खूब अभ्यास करे; जिस समय पाठ करे उस समय अर्थपर खूब ध्यान रखे। पहले अर्थ पढ़ ले, पीछे श्लोक पढ़े।
३-अपने घरपर रहते हुए भी हर एक भाईको एकान्तसेवन करते रहना चाहिये। एकान्तमें भगवान् का ध्यान करे। पहले विचार करे कि आत्माका कल्याण कैसे होगा। यदि कोई विचार न सूझे तो भगवान् से प्रार्थना करे—
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव:
पृच्छामि त्वां धर्मसंमूढचेता:।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे
शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्॥
(गीता २। ७)
‘कायरतारूप दोषसे उपहत हुए स्वभाववाला और धर्मके विषयमें मोहितचित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चय ही कल्याणकारक हो, वह मेरे लिये कहिये; क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिये आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिये।’
इस श्लोकके अनुसार शरण होकर रुदन करे। फिर ध्यान करे। ध्यानके लिये अलग कमरा रखे, उसके लिये आसन भी अलग ही होना चाहिये।
४-सेवाका अभ्यास डालना चाहिये। हमलोगोंमें सेवाका अभ्यास बहुत कम है। अपने घरपर आये हुए अतिथिका खूब सत्कार करना चाहिये। यदि कोई सत्संगी मिले तो उससे भगवद्विषयक प्रश्न करे। भगवत्सम्बन्धी बातोंकी खोजमें खूब तत्परतासे रहे। यदि कोई सत्संग करके आया हो अथवा कोई सत्संग-सम्बन्धी पत्र मिला हो तो आपसमें मिलकर चर्चा करनी चाहिये। गीताके श्लोकोंमें कोई नयी बात जान पड़े तो उसे कण्ठस्थ कर ले।
५-जो साधन बतलाया गया हो उसे कठिन न समझे। सदा ऐसा साहस रखे कि दुर्गुण-दुराचार आ ही कैसे सकता है? यदि हम सावधान रहेंगे तो चोर हमारे घरमें कैसे घुस सकता है।
६-डॉक्टरी दवा नहीं लेनी चाहिये। डॉक्टरी दवासे बहुत अधिक हानि होती है। बाजारकी मिठाई, पूड़ी, दूध-दही, चाय आदि नहीं खाने चाहिये। भाँग आदि मादक द्रव्योंको भी त्याग देना चाहिये।
७-वास्तविक बात यह है कि सत्संगमें जितनी बातें बतलायी जाती हैं यदि उनकी धारणा कर ले, उनका नियम-सा कर ले तो अवश्य सुधार हो जायगा।
८-रसोई पवित्रतासे बनानी चाहिये। बालक आदि रसोईघरमें न जाने चाहिये। रसोई बनाते समय धुले हुए वस्त्र धारण करे! आहार शुद्ध होनेसे मन भी शुद्ध होता है। ‘जैसा खावे अन्न तैसा बने मन।’ मुख्यतासे अन्न तीन प्रकारसे पवित्र होता है—सात्त्विक कमाईसे, पवित्रतापूर्वक तैयार करनेसे तथा सात्त्विक भोजन होनेसे।
९-वाणीके संयमपर खूब ध्यान रखना चाहिये। सदा विचारकर बोले। वाणीके तपका बहुत बड़ा महत्त्व है। नेत्रोंके संयमकी भी बड़ी आवश्यकता है। संसारी पदार्थोंकी ओर नेत्रोंको न जाने दे, ऐसा न हो तो स्त्रियोंकी ओर तो उनकी प्रवृत्ति होने ही न दे। यदि चले जायँ तो उपवास करे। ऐसा करनेसे अच्छा सुधार हो सकता है। हाथोंका भी संयम करे, उनसे कोई कामोद्दीपक कुचेष्टा न करे, कामवृत्तिको जड़से उखाड़ डाले। क्रोधको तो ऐसा जीते कि सामनेवाला मनुष्य कितना ही उत्तेजित हो जाय, स्वयं शान्त ही रहे।
१०-दूसरोंका उपकार करनेकी आदत डालनी चाहिये। यह बड़े महत्त्वकी बात है कि अपनेसे किसीका उपकार बन जाय। किन्तु वह उपकार होना चाहिये उदारता और दयाबुद्धिसे।
११-प्रत्येक मनुष्यके साथ जो व्यवहार किया जाय उसमें स्वार्थदृष्टिको त्याग देना चाहिये। व्यवहार स्वार्थसे ही बिगड़ता है। एक स्वार्थके त्याग देनेसे ही व्यवहार सुधर जाता है।
१२-लोगोंसे छोटे-छोटे जीवोंकी बहुत हिंसा होती है। हमें चलने, हाथ धोने, कुल्ला करने तथा मल-मूत्र त्याग करनेमें इस बातका ध्यान रखना चाहिये। हम इन जीवोंके जीवनका कुछ मूल्य नहीं समझते। किंतु स्मरण रखना चाहिये कि इस उपेक्षाके कारण बदलेमें हमें भी ऐसी ही निर्दयताका शिकार होना पड़ेगा। जो मनुष्य जीवोंकेहंसाका कानून बनाता है उसे तरह-तरहके कष्ट उठाने पड़ेंगे। यदि कोई पुरुष कुत्तेको रोटी देना बंद करेगा तो उसे भी कुत्ता बनकर भूखों मरना पड़ेगा। यदि किसीने म्युनिसिपलिटीमें कुत्तोंको मारनेका कानून बनाया तो उसे भी कुत्ता बनकर निर्दयतापूर्वक मृत्युका सामना करना पड़ेगा। कसाइयोंकी तो बड़ी ही दुर्दशा होगी। धन्य है, उन राजाओंको जिनके राज्यमें हिंसा नहीं थी।
१३-सूर्योदयसे पूर्व प्रात:सन्ध्या और सूर्यास्तसे पूर्व सायंसन्ध्या नियमानुसार आदर और प्रेमपूर्वक करनी चाहिये। सन्ध्यासे लाभ नहीं मालूम होता इसमें हमारी श्रद्धा और प्रेमकी न्यूनता ही कारण है।
१४-व्यापारमें नियम कर ले कि मुझे झूठ या कपटका व्यवहार नहीं करना है। खानेको न मिले तो भी कोई परवा मत करो। मेरा तो विश्वास है कि सचाईका व्यवहार जैसा चलता है वैसा झूठ-कपटका कभी नहीं चल सकता। पहले मिथ्या भाषण किया है, इसलिये आरम्भमें लोग विश्वास नहीं करते; सो कोई चिन्ता नहीं, पहले कियेका प्रायश्चित्त भी तो करना ही चाहिये। यदि यह सूत्र याद रखा जाय कि ‘लोभ ही पापका मूल है’ तो व्यवहारमें पाप नहीं हो सकता!
१५-हमारे साथ पथप्रदर्शकरूपसे गीतादि शास्त्रोंके रहते हुए भी यदि हमारी दुर्गति हो तो बड़ी लज्जाकी बात है। श्रीमद्भगवद्गीताकी ध्वजा फहरा रही हैं; फिर हमारी अवनति क्यों होनी चाहिये? हमें भजन करनेकी स्वतन्त्रता है; फिर संसारमें भगवान् का नाम रहते हुए भी हमारी दुर्गति क्यों हो।
१६-कुसंग कभी न करना चाहिये। जो पुरुष विषयी, पामर, दुराचारी, पापी या नास्तिक हैं उनका संग कभी न करे और न उन्हें अपने पड़ोसमें ही बसावे। उनसे सर्वदा दूर रहे। वे प्लेगकी बीमारीके समान हैं, इसलिये उनके आचरण और दुर्गुणोंसे घृणा करे, किन्तु उनसे घृणा न करे।
१७-किसी भी प्रकारका न्याय करना हो तो समदृष्टि रखे; यदि विषमता करनी हो तो अपने पक्षमें पौने सोलह आने रखे और विपक्षके लिये सवा सोलह आने।
१८-यदि कोई कठिन कार्य आकर प्राप्त हो तो उसे स्वयं करनेको तैयार हो जाय।
१९-हानि-लाभ, जय-पराजय एवं सुख-दु:खादिमें समानरूपसे ईश्वरकी दयाका दर्शन करे।
२०-ईश्वरकी प्राप्तिमें खूब विश्वास रखे। ऐसा विचार करे कि मेरे और कोई आधार नहीं है, केवल भगवान् की दयालुता देखकर मुझे पूरा भरोसा है कि वे अवश्य मेरी सुधि लेंगे।
२१-सब प्रकारके विषयोंको विषके समान त्याग देना चाहिये। विष मिला हुआ मधुर पदार्थ भी सेवन करनेयोग्य नहीं होता, इसी प्रकार विषय सुखरूप जान पड़ें तो भी त्याज्य ही हैं।
२२-ज्ञान या प्रेम किसी भी मार्गका अवलम्बन करके उत्तरोत्तर उन्नति करता चला जाय। कलकी अपेक्षा आज कुछ-न-कुछ साधन बढ़ा ही देना चाहिये। इस प्रकार निरन्तर उन्नति करे। चलते-फिरते, उठते-बैठते किसी भी समय एक मिनटके लिये भी भगवान् को न भूले। भगवान् कहते हैं—
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
(गीता ८। ७)
अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
(गीता ८। १४)
२३-भगवान् की दया और प्रेमका स्मरणकर हर समय भगवत्प्रेममें मुग्ध और निर्भय रहे। भगवच्चिन्तनमें खूब प्रेम और श्रद्धाकी वृद्धि करे। यह बड़ी ही मूल्यवान् चीज है।
२४-कुतर्क करनेवालोंसे विशेष बातें नहीं करनी चाहिये। अपने हृदयकी गूढ़ और मार्मिक बातें हर किसीसे नहीं कहनी चाहिये।
२५-अपने गुणोंको छिपावे तथा किसीकी निन्दा-स्तुति न करे। करनी ही हो तो स्तुति भले ही करे। निन्दा अपनी की जा सकती है, स्तुति करनेके योग्य तो केवल एक परमात्मा ही है।