आत्मोद्धारविषयक प्रश्नोत्तर
सत्संगके समय बहुत-से भाई प्रश्न किया करते हैं, उनके उत्तर सर्वसाधारणके कामके होनेसे यहाँ लेखरूपमें दिये जा रहे हैं।
प्रश्न १—गीताके छठे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें कहा है कि ‘अपने आत्माका अपने द्वारा उत्थान करना चाहिये, पतन नहीं’—इसका क्या भाव है?
उत्तर—इसका भाव यह है कि अपने-आपको ऊपर उठाने और नीचे गिरानेमें मनुष्य स्वतन्त्र है। शास्त्रके अनुकूल निष्कामभावसे उत्तम गुण और उत्तम आचरणोंका सेवन करना, ईश्वरकी भक्ति या ज्ञानका साधन करना—यह अपने द्वारा अपने-आपको ऊपर उठाना है तथा शास्त्रके विरुद्ध आचरण करना, दुर्गुण और दुराचारोंको न छोड़ना, ईश्वरको न मानना और अज्ञानमूलक प्रमाद, आलस्य या भोगोंके परायण होकर जीवन बिताना—यह अपने द्वारा अपने-आपका पतन करना है।
प्रश्न २—एक पुरुष शास्त्र और ईश्वरको नहीं मानता,पर सद्गुणोंका सम्मान करता है। उसके लिये क्या पहचान है कि उसका उत्थान हो रहा है या पतन?
उत्तर—असत्य, व्यभिचार, हिंसा, चोरी, जूआ, राग-द्वेष आदि जिन बातोंको वह अपने सिद्धान्तसे बुरा समझता है, उन्हें तो कभी करता नहीं और सत्य, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, अस्तेय, समभाव आदि जिन बातोंको उत्तम समझता है, उनका तत्परताके साथ पालन करता है, वह तो अपने द्वारा अपना उत्थान करता है; परंतु जो अपने सिद्धान्तसे जिन बातोंको बुरा समझता है, उनसे निवृत्त नहीं होता और जिनको उत्तम समझता है, उनका पालन नहीं करता—वह अपने द्वारा अपना पतन करता है।
प्रश्न ३—मनुष्य जितने समय शयन करता है, उतने समय परतन्त्र रहता है, उस समयमें भी आत्मसुधारके लिये क्या कोई प्रयत्न काम दे सकता है?
उत्तर—अवश्य दे सकता है, शयनके समय मनके संकल्पोंका जो प्रवाह चलता रहता है, प्राय: वही आगे जाकर स्वप्नके संसारका रूप धारण करता है, इसलिये बिछौनेपर लेटनेके बाद निद्रा आनेसे पहले-पहले मनके संकल्पोंके प्रवाहको भगवद्भावोंके रूपमें बदल देना चाहिये अर्थात् भगवान् के नाम, रूप, गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य, लीला आदि भगवद्विषयक संकल्पोंका प्रवाह बहाते-बहाते शयन करना चाहिये। अथवा लोकहितके विचारोंका चिन्तन करते-करते शयन करना चाहिये। इस प्रकार करनेसे उत्तम स्वप्न आवेंगे और यदि गाढ़ निद्रा आ जायगी तो निद्रा टूटनेपर मनमें वही प्रवाह आ जायगा, जो निद्रासे पहले आरम्भ किया गया था। यह शीघ्र आत्मसुधारका बड़ा ही सरल तरीका है। इसमें न तो कोई समय ही लगता है, न पैसे खर्च होते हैं तथा न इसमें कोई परिश्रम ही है और लाभ बहुत अधिक है। इसलिये शयनकालमें हमारा जो समय निरर्थक जा रहा है, उसे सफल बनानेके लिये उपर्युक्त रीतिसे विशेष प्रयत्न करना चाहिये।
प्रश्न ४—शरीर और इन्द्रियोंद्वारा आहार-विहार, व्यापार आदि लौकिक काम करते समय अपना उद्धार चाहनेवाले मनुष्यको क्या उपाय करना चाहिये जिससे कि जो समय व्यर्थ जा रहा है, उसका सुधार हो जाय?
उत्तर—ईश्वरविषयक स्मृति और प्रत्येक क्रियामें निष्कामभाव (स्वार्थ-त्यागका भाव) रखनेसे हमारा जो समय निम्न-से-निम्न कोटिका बीत रहा है, वह भी सुधरकर उच्च-से-उच्च कोटिका बन सकता है।
प्रश्न ५—हम जो दान देते हैं, परोपकार करते हैं उसके द्वारा शीघ्र-से-शीघ्र भगवत्प्राप्ति कैसे हो सकती है?
उत्तर—परोपकार करनेवाले दाताके अन्त:करणमें जो यह भाव आता है कि यह दान लेनेवाला निम्न श्रेणीका है और मैं उच्च श्रेणीका हूँ अर्थात् मैं उसका उपकार करनेवाला और दान देनेवाला दाता हूँ—यह भाव जो उसके हृदयमें स्वाभाविक रहता है, इसीसे उसके दानका फल अल्प होता है। उसे दानके फलस्वरूप इस लोकमें धन, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदि भौतिक पदार्थ यथायोग्य मिलते हैं तथा मरनेपर स्वर्गादिकी प्राप्ति हो सकती है किंतु ये सब हेय हैं। अत: परोपकार करनेवाले या दान देनेवाले व्यक्तिको अपने मनमें यह भाव रखना चाहिये कि जिन पदार्थोंसे लोगोंकी सेवा हो रही है, वे सब भी भगवान् के ही हैं और मैं भगवान् की प्रेरणासे ही दे रहा हूँ। मैं न तो उपकार करनेवाला हूँ और न दान देनेवाला ही। भगवान् की वस्तु भगवान् के ही कामके लिये भगवान् की प्रेरणासे मेरे द्वारा दी जाती है, मैं तो केवल निमित्तमात्र हूँ। यह भगवान् की कृपा है जो मुझको वे काममें निमित्त बना रहे हैं। इस प्रकार जो भगवान् को याद रखते हुए निरभिमान होकर निष्कामभावसे देता है, उसका वह दान उच्च-से-उच्च कोटिका समझा जाता है और उससे शीघ्र-से-शीघ्र भगवत्प्राप्ति हो सकती है।
प्रश्न ६—आजकल व्यापारमें अधिकांश लोग इनकम-टैक्स,सेल-टैक्स आदि कम देनेके लिये छिपाव करते हैं, झूठे बहीखाते बनाते हैं, चोरबाजारी करते हैं, अधिकारियोंको घूस देते हैं; और भी नाना प्रकारके छल-कपट, चोरी-बेईमानी आदि करते हैं, क्या उन लोगोंका भी सुधार होकर उद्धार हो सकता है?
उत्तर—हो क्यों नहीं सकता। प्रयत्न करनेपर सभी कुछ हो सकता है। समझकर प्रयत्न करना चाहिये। इन सब दोषोंका मूल कारण है—धनका अज्ञानमूलक लोभ। जिनका ईश्वर, परलोक और अपने कर्मके दुष्परिणामपर विश्वास नहीं है, वे ही लोग ऐसा कर रहे हैं। वे इस बातको नहीं समझ रहे हैं कि इस धनके साथ हमारा कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहेगा और उनके इस कर्मका कठोर दण्ड उन्हें ही भोगना पड़ेगा तथा धनकी क्या दशा होगी, पता नहीं। इसीलिये वे धनको ही सर्वस्व समझकर उसके परायण हो रहे हैं। परंतु उन्हें गम्भीरतापूर्वक विचारना चाहिये कि वे जिस धनके लिये नाना प्रकारके अन्याय कर रहे हैं, उसके साथ उनका संयोग बहुत ही अल्प है, क्योंकि न तो वे ही बहुत कालतक रहनेवाले हैं और न धन ही। जब फिर इस धनसे इस लोकमें भी सुख नहीं है, तब परलोकमें तो है ही कहाँ! बल्कि धनके संग्रहमें, उसके रक्षणमें, व्यय करनेमें और वियोगमें उत्तरोत्तर क्रमश: अधिकाधिक इतना दु:ख-ही-दु:ख भरा है, जिसकी कोई सीमा नहीं। अतएव मनुष्यको धनकी दासता छोड़कर भगवान् के शरण होकर उनपर निर्भर होना चाहिये और अपने वैध व्यापारद्वारा भगवान् का पूजन करना चाहिये (गीता १८। ४६)* तथा इस प्रकार समझकर व्यापार करना चाहिये कि हम जो व्यापार करते हैं, वह धनके लिये नहीं, भगवान् के लिये करते हैं।
* यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धं विन्दति मानव:॥
‘जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।’
इस तरह सत्य और न्याययुक्त धन कमाकर जगज्जनार्दनकी सेवा करना अपना कर्तव्य मानकर लाभ और हानिको समान समझते हुए तथा भगवान् को निरन्तर याद रखते हुए भगवान् की आज्ञाके अनुसार भगवान् के ही लिये निष्कामभावसे व्यापार करनेपर बहुत ही शीघ्र सुधार होकर उद्धार हो सकता है।
ऐसा न होनेमें सरकारी कानून भी एक प्रधान कारण है। इनकम-टैक्स और सेल-टैक्सकी अत्यधिक मात्रा होनेके कारण लोग सरकारसे छिपाव करते हैं, और कड़ाई करनेपर भी सरकारको पूरा टैक्स नहीं मिल पाता। किंतु जैसे कोई मनुष्य अधिक नफा लेता है तो उसका माल कम बिकता है और कम नफा लेता है तो अधिक बिकता है एवं इससे उसकी आय कम न होकर बिक्री अधिक होनेसे अधिक ही होती है; इसी प्रकार सरकारके द्वारा टैक्स कम कर दिये जानेपर, सम्भव है, लोग छिपाव कम करें, जिससे इस समय टैक्ससे जो आय होती है, उससे सम्भवत: सरकारको विशेष नुकसान भी न उठाना पड़े और लोग भी पापसे बच जायँ। इसी तरह जो नाना प्रकारके कंट्रोल और लाइसेंसकी नीति बरती जाती है इसके कारण भी लोग चोरबाजारी और घूसखोरी करते हैं तथा जनताको बाध्य होकर अधिक कीमतपर चीजें खरीदनी पड़ती हैं। सरकारसे हमारी प्रार्थना है कि सरकार इस ओर ध्यान दे और युद्धके बाद जो अन्न-वस्त्रादिपर नियन्त्रण किया गया है, वह एकदम उठा दिया जाय, यातायातपर जो प्रतिबन्ध लगा है, उसे खोल दिया जाय तथा लाइसेंसकी नीति बंद कर दी जाय। महात्मा गाँधीजीने भी इसका विरोध किया था। क्योंकि इससे व्यापारी झूठ-कपटमें तथा रेलवेके और सरकारके बहुत-से अधिकारी घूसखोरीमें पड़कर पापमें लिप्त हो रहे हैं एवं श्रमिकवर्ग परिश्रम कम करते हैं, इससे उपज कम होती है और कृषक अनाजको छिपाते हैं, जिससे महँगी और बढ़ती जाती है। इस तरह सारी दुनिया पतनकी ओर जा रही है और सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक—सभी प्रकारका ह्रास होता जा रहा है।
प्रभावशाली विचारशील लोगोंको इस विषयमें केन्द्रीय सरकारके उच्चाधिकारियोंको समझानेकी कोशिश करनी चाहिये तथा सरकारको भी चाहिये कि वह इन सब बातोंपर ध्यान देकर इनका सुधार करे, जिससे लोग दु:ख, महँगी और पापसे बचें।
प्रश्न ७—विवाहके निमित्त अत्यधिक तिलक (टीका), दहेज आदिके कारण लोग अत्यन्त दु:खी हो रहे हैं, अत: इस प्रथाके रुकनेका क्या उपाय है?
उत्तर—तिलक (टीका) तथा दहेजकी इस प्रथाकी बुराइयोंको देखनेसे तथा अज्ञानमूलक घृणित लोभके त्यागसे यह रुक सकती है। अपने सम्बन्धीसे तिलक-दहेज आदि लेना भी एक प्रकारसे दान ही है। जिस प्रकार अनुचित दान त्याज्य है इसी प्रकार अनुचित तिलक आदि भी त्याज्य है। इच्छा न होनेपर भी देनेवाला दु:खित हृदयसे देता है, इसलिये भी वह त्याग करने योग्य है। मुफ्तका धन लेनेसे अकर्मण्यता आ जाती है और पर-धनपर जो एक ग्लानि है, वह भी मिट जाती है। तिलक आदि अधिक दिये बिना कन्याका विवाह नहीं होता, अत: विवाहके लिये धनसंग्रहार्थ कन्याके अभिभावकोंको अनेक प्रकारके पाप करने पड़ते हैं। अधिक धन लेकर लड़केका सम्बन्ध करना प्रकारान्तरसे लड़केकी बिक्री करना है। इस कुप्रथाके कारण इसके लिये तरह-तरहके पाप करने पड़ते हैं, बहुत-से मनुष्य तो थोड़ा देकर बहुत दिखलाते हैं, उन्हें दम्भ करना पड़ता है। एकके अधिक तिलक-दहेज आदिको देखकर दूसरे भी अधिक देना चाहते हैं। लेते-देते समय जो दिखावा किया जाता है, इससे भी इस प्रथाको प्रोत्साहन मिलता है, यह भी बड़ा भारी गुप्त दोष है। इससे पाप और दु:खकी वृद्धि होती है। अधिक दिये बिना विवाहादि न होनेसे वंशका नाश होता है। कई लड़कियाँ तो माता-पिताके इस क्लेशको देखकर आत्मघात कर लेती हैं और माता-पिताको भी लड़कियाँ भारस्वरूप प्रतीत होती हैं तथा बहुत-से दहेज आदि देकर अन्तमें भिखारी हो जाते हैं। यह बहुत बुरी प्रथा है। भारतमें प्राय: सभी देशों तथा सभी जातियोंमें यह व्यापक हो गयी है; किंतु यह धन, जन, प्रतिष्ठा और धर्मका विनाश करनेवाली है। अतएव तिलक-दहेज आदिकी इस कुप्रथाका सर्वथा बंद हो जाना अथवा नाममात्रके रूपमें रहना ही सबके लिये कल्याणकारी है।
प्रश्न ८—विवाहादिमें लोग अनेक प्रकारके आडम्बर करके जो व्यर्थका अतिशय धन व्यय करते हैं—जैसे बहुत अधिक रोशनी करना, अत्यधिक लोगोंको भोजन कराना, आतिशबाजी, खेल-तमाशे, नाटक-सिनेमा आदि कामोंमें व्यर्थ खर्च करना। सुधरे माने जानेवाले लोगोंमें भी इस खर्चकी उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है, इस फिजूलखर्चीके मिटानेके लिये क्या करना चाहिये?
उत्तर—यह धन-व्यय वस्तुत: देश और समाजके लिये हानिकर है, इससे धन, धर्म और समयका व्यर्थ क्षय होता है और दु:ख तथा पापोंकी वृद्धि होती है। यह सब प्रकारसे जनताके लिये महान् हानिकर है। इस प्रकार गम्भीरतापूर्वक विवेकबुद्धिसे समझकर देश, जाति और समाजकी रक्षाके लिये इसको हठपूर्वक भी सर्वथा बंद कर देना चाहिये।
प्रश्न ९—जन्म, मृत्यु, विवाह और पर्व आदिमें देशजातिकी हानिकारक कुरीतियाँ उत्तरोत्तर बढ़ रही हैं, ये सर्वथा बंद कैसे हों?
उत्तर—ईश्वरके शरण होकर पाप-पुण्य, बुरे-भले तथा हानि-लाभका भलीभाँति विचार करके दृढ़ प्रयत्न करनेसे।
(क) लड़का पैदा होनेके समय लोग अपने घरोंमें बहुत-से लोगोंको बुलाकर चौपड़-ताश खेलते हैं, गाँजा-भाँग, बीड़ी-सिगरेट, शराब-कवाब आदि हेय वस्तुओंका सेवन करते हैं तथा हँसी-मजाक और खेल-तमाशा करते हैं। इससे बालककी माता और बच्चेके अन्त:करणपर बुरे संस्कार जमते हैं। अतएव इसको महान् हानिप्रद समझकर इसका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। इसके बदलेमें जैसे पुराने समयमें ‘जातकर्म’ और ‘नामकरण’ आदि संस्कार होते थे, उस प्रकारसे शास्त्रविधिपूर्वक उत्सव मनाना चाहिये। माताके और बालकके हृदयमें अच्छे संस्कार उत्पन्न करनेके लिये कथा-कीर्तन, सत्संग और शास्त्रोंका स्वाध्याय करना चाहिये तथा ज्ञान, वैराग्य, भक्ति और सदाचारकी वृद्धिके लिये भक्तोंकी जीवनियाँ एवं वीर पुरुषोंके इतिहास पढ़कर सुनाने चाहिये, जिससे उनमें धर्म, समाज, अध्यात्म और लोकोन्नति आदिके संस्कार जमकर उनके स्वभावमें सुधार हो एवं इस लोक और परलोकमें उन्नति करनेवाले ज्ञानकी वृद्धि हो।
(ख) मृत्युके समय लोग रोते, बिलपते और सिर-छाती पीटते हैं, देश-विदेशसे बहुत लोग इकट्ठे हो जाते हैं और भारी आन्दोलन करके शोकका रूप बढ़ा लेते हैं। साथ ही उसके श्राद्धादिमें बड़ा भारी बाहरी आडम्बर करते हैं। यह ठीक नहीं है। इससे धन और समयका अपव्यय होता है, लोगोंको व्यर्थका कष्ट और परिश्रम होता है तथा मरनेवाले प्राणीको कुछ भी लाभ नहीं होता। इसलिये इसका सुधार करना चाहिये। ऐसा न करके इसके बदलेमें मृतककी आत्माको शान्ति मिलनेके लिये घरवालोंको शास्त्रविधिके अनुसार दाह-संस्कार, दशगात्र, नारायण-बलि, सपिण्डी श्राद्ध, ब्राह्मणभोजन आदि कराने चाहिये और ईश्वरसे प्रार्थना करनी चाहिये। शोककी निवृत्तिके लिये भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार-सम्बन्धी बातें और इतिहास-पुराणकी कथाएँ सुननी चाहिये। परिवारके लोग तथा सगे-सम्बन्धी, जो दूर रहते हैं और जिनको मन न होनेपर भी ऐसे अवसरोंपर बाध्य होकर आना पड़ता है, उनको इस ढंगसे सभ्यता तथा विनयपूर्वक समाचार लिखना चाहिये जिसमें वे न आवें तथा व्यर्थके खर्च, कष्ट और समयकी बर्बादीसे बच जायँ। श्राद्धादिके बाहरी आडम्बरमें अधिक रुपये न लगाकर अपनी शक्तिके अनुसार विधवा, अनाथ-बालक तथा आपद्ग्रस्त स्त प्राणियोंकी सेवामें लगाने चाहिये।
आश्वासन देनेके लिये आनेवाले लोगोंका कर्तव्य है कि वे पूर्वमें होनेवाले अच्छे पुरुषोंके उदाहरण देकर शोकग्रस्त परिवारको धैर्य दिलावें; शरीर, संसार और भोगोंकी विनाशशीलता बतलाकर उनके हृदयमें ज्ञान, वैराग्य हो—ऐसी उत्तम पुरुषोंकी जीवनियाँ सुनावें। मृत्युका भय और परलोकका प्रलोभन देकर सदाचारमें लगावें। जिससे उनके चिन्ता-शोक दूर होकर उन्हें सन्तोष अौर शान्ति मिले—ऐसी विवेक, वैराग्य और भक्तिकी बातें सुनावें।
(ग) विवाह आदिके समय चौपड़-ताश आदि खेलना, नाना प्रकारके गंदे गाली-गलौज, गंदे हँसी-मजाक करना, खेल-तमाशा आदि करना, बुरे गीत गाना, जुआ खेलना, आतिशबाजी करना, जीवहिंसा, बलिदान, मांसभक्षण, बीड़ी-सिगरेट, गाँजा-भाँग आदि मादक वस्तुओंका सेवन, सिनेमा-क्लब आदिमें जाना, होटलोंके मारफत खान-पानका इंतजाम करना आदि बहुत-सी बुरी बातें चल पड़ी हैं। ये सभी देश, जाति, धर्म, समाज और इस लोक, परलोकको नष्ट-भ्रष्ट करनेवाली हैं। इसलिये इनका सर्वथा बंद होना आवश्यक है। साथ ही विवाह आदि सभी संस्कार शास्त्रीय पद्धतिके अनुसार होम और देवपूजनपूर्वक श्रेष्ठ ब्राह्मणोंके द्वारा विधिपूर्वक होने चाहिये। कन्या और वरका जिसमें परम हित हो, ऐसी शिक्षा देनी चाहिये और उन्हें ज्ञान, वैराग्य, भक्ति, सदाचारसम्बन्धी पुस्तकें देनी चाहिये। श्रेष्ठ सदाचारी विद्वानोंके द्वारा उपदेश, व्याख्यान, पदगान आदिका आयोजन करना चाहिये, जिससे सामाजिक, व्यावहारिक, धार्मिक और आध्यात्मिक ज्ञानकी वृद्धि हो।
(घ) होलीके समय आतिशबाजी करना, धूल, राख, कीचड़ आदि डालना, गंदे गीत गाना, खेल-तमाशा करना तथा देवीपूजा, कालीपूजा, दीपमालिका और सरस्वतीपूजाके समय जीवहिंसा, बलिदान, मांसभक्षण, आतिशबाजी, बहुत अधिक रोशनी करना और जुआ खेलना आदि बहुत-सी कुरीतियाँ चल पड़ी हैं। इनसे न तो इस लोकमें लाभ है और न परलोकमें ही। ये नैतिक और धार्मिक पतन करनेवाली हैं, इसलिये इनको सर्वथा बंद कर देना चाहिये। इनके बदलेमें भगवान् के नाम-गुणोंका कीर्तन, स्तुति-प्रार्थना, जप-तप, स्वाध्याय, देवपूजा, अतिथिसेवा, होम, दान, सत्संग आदि करने चाहिये। ऐसा आयोजन करना चाहिये जो इस लोक और परलोकमें परम हितकर हो।
ये सब कुरीतियाँ देश, जाति और अपने-आपके लिये महान् घातक हैं। इनसे नैतिक, धार्मिक, व्यावहारिक और सामाजिक पतन होता है। इनसे न तो स्वार्थकी सिद्धि है और न परमार्थकी ही; बल्कि ये इस लोक और परलोकको नष्ट करनेवाली और कलंक लगानेवाली हैं। इस बातको भलीभाँति समझ लेनेसे ये कुरीतियाँ बंद हो सकती हैं। बुद्धिमान् मनुष्यका कर्तव्य है कि वह गम्भीरतापूर्वक इनके दोषोंको समझकर स्वयं त्याग करे और दूसरोंसे करवावे।
प्रश्न १०—आजकल बाल-विधवाओंकी संख्या अधिक होनेके कारण भ्रूणहत्या भी अत्यधिक होती है, इसलिये विधवाविवाह धर्म माना जा सकता है या नहीं?
उत्तर—कभी नहीं; क्योंकि मनु आदि शास्त्रकारोंने इसका घोर विरोध किया है। विधवाविवाहका धर्मशास्त्रोंमें कहीं विधान नहीं है। श्रीमनुजी कहते हैं—
न द्वितीयश्च साध्वीनां क्वचिद्भर्तोपदिश्यते।
(५। १६२)
सकृदंशो निपतति सकृत्कन्या प्रदीयते।
सकृदाह ददानीति त्रीण्येतानि सतां सकृत्॥
(९। ४७)
‘साध्वी स्त्रियोंके लिये कहीं भी दूसरे पतिको अपनानेका उपदेश नहीं दिया गया है। धन आदिका बँटवारा एक ही बार होता है, कन्या किसीको एक ही बार दी जाती है तथा ‘मैं दूँगा’ यह प्रतिज्ञा भी एक ही बार की जाती है; सत्पुरुषोंके लिये ये तीन बातें एक-एक बार ही होती हैं।’
धर्म साधारण मनुष्योंकी मान्यतापर निर्भर नहीं करता। त्यागी महात्मा सत्पुरुषोंके द्वारा जो धारण किया जाता है, उसका नाम धर्म है। मनुजी कहते हैं—
विद्वद्भि: सेवित: सद्भिर्नित्यमद्वेषरागिभि:।
हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत॥
(२। १)
‘राग-द्वेष-शून्य विद्वान् सत्पुरुषोंने जिसको सदा सेवन किया और हृदयसे मुख्य जाना, उस धर्मको सुनो।’
इसलिये दस हजार मूर्ख मिलकर भी किसीको धर्म बतला दें तो वह धर्म नहीं है, बल्कि एक भी श्रोत्रिय ब्रह्मवेत्ता जिसको धर्म बतलावे, वही धर्म है—
एकोऽपि वेदविद्धर्मं यं व्यवस्येद् द्विजोत्तम:।
स विज्ञेय: परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतै:॥
(मनु० १२। ११३)
धर्म और ईश्वरकी सिद्धि वोटोंपर नहीं होती, यह तो श्रुति-स्मृतिपर ही निर्भर है।
धर्म उसको कहते हैं जो इस लोक और परलोकमें कल्याण कारक हो। विधवाविवाह तो इस लोकमें भी कल्याणकारक नहीं है, फिर परलोकमें तो हो ही कैसे सकता है। कल्याण तो परमात्माके तत्त्वज्ञानसे या ईश्वरकी भक्तिसे या निष्कामभावपूर्वक धर्मपालनसे होता है। शास्त्रोंमें बतलाया है कि विधवा स्त्री केवल ब्रह्मचर्यके पालनसे ही उत्तम गतिको पा लेती है। मनुजीने कहा है—
मृते भर्तरि साध्वी स्त्री ब्रह्मचर्ये व्यवस्थिता।
स्वर्गं गच्छत्यपुत्रापि यथा ते ब्रह्मचारिण:॥
(५। १६०)
‘पतिकी मृत्युके पश्चात् ब्रह्मचर्यव्रतमें दृढ़तापूर्वक स्थिर रहनेवाली साध्वी स्त्री पुत्रहीना होनेपर भी सर्वोत्तम लोकमें जाती है, जैसे कि नैष्ठिक ब्रह्मचारी (पुत्रके बिना भी) सर्वोत्तम लोकमें जाते हैं।’
शास्त्रोंमें कहीं भी विधवाके लिये दूसरा विवाह या नियोग (नाता) करना नहीं बतलाया है। पूर्वमें वेन नामके एक राजा हुए थे, उन्होंने विधवाओंके लिये नियोगकी प्रथा जारी की थी; किंतु उसे ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य—इन तीनों वर्णोंने घृणित समझकर स्वीकार नहीं किया था। मनुस्मृतिमें बतलाया है—
नोद्वाहिकेषु मन्त्रेषु नियोग: कीर्त्यते क्वचित्।
न विवाहविधावुक्तं विधवावेदनं पुन:॥
अयं द्विजैर्हि विद्वद्भि: पशुधर्मो विगर्हित:।
मनुष्याणामपि प्रोक्तो वेने राज्यं प्रशासति॥
(९। ६५-६६)
‘विवाहके मन्त्रोंमें कहीं भी नियोगकी चर्चा नहीं है; विवाहकी विधिमें विधवाका पुनर्दान भी नहीं कहा गया है। वेन राजाने अपने शासनकालमें तो मनुष्योंमें भी इस प्रथाको जारी कर दिया था; किंतु यह पशुधर्म ही है, विद्वान् द्विजोंने इसकी सदा ही निन्दा की है।’
इससे मुक्ति तो हो ही नहीं सकती। सबको सांसारिक सुख भी नहीं मिलता। इसके विपरीत, उस स्त्रीको जगह-जगह तिरस्कार और क्लेशका सामना करना पड़ता है, इसलिये उसका वर्तमान जीवन भी दु:खमय बन जाता है।
आजकल कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि ‘जब स्त्रीके मरनेपर पुरुष दूसरा विवाह कर सकता है तब फिर स्त्रीको भी पतिके मरनेपर पुनर्विवाह करनेमें क्या आपत्ति है?’ इसका उत्तर यह है कि स्त्रीके मरनेके बाद पुरुषके पुनर्विवाह कर लेनेपर भी उसकी पहलेकी सन्तान उसी कुल-गोत्रमें ही रहकर अपने पिताके द्वारा रक्षित और पालित हो सकती है और उसका उस घरमें दायभाग रहता है, उसके अपने हिस्सेके अनुसार अधिकार कायम रहता है; किंतु पतिकी मृत्यु हो जानेपर स्त्री यदि बच्चोंको वहीं छोड़कर दूसरे पुरुषसे विवाह करके वहाँ चली जाती है तो वे बच्चे बिलकुल अनाथ हो जाते हैं, उनका पालन-पोषण ही असम्भव-सा हो जाता है। और यदि सन्तानको साथ ले जाय तो उनका इस गोत्र और कुलसे सम्बन्धविच्छेद हो जानेके कारण वे अपने पैतृक धनसे वंचित रह जाते हैं। जहाँ दूसरे घरमें वह जाती है, वहाँ उसका पति न तो उन बच्चोंसे प्यार करता है, और न उन्हें दायभागका हिस्सा ही देता है। इस प्रकार वे पहलेवाले घरसे भी हाथ धो बैठते हैं और दूसरे घरसे भी उन्हें कुछ नहीं मिलता। उनके शादी-विवाह भी कठिन हो जाते हैं। इस प्रकार वे महान् कष्टमें पड़ जाते हैं। और यदि उस स्त्रीकी दूसरे पतिसे नहीं पटती तो फिर उसे तीसरा घर देखना पड़ता है, इस प्रकार घर-घरका भटकना भी साधारण क्लेश नहीं है। लोग उसे घृणा और तिरस्कारकी दृष्टिसे देखते हैं, यह भी उसके लिये महान् क्लेशका कारण है। इसलिये भी शास्त्रकारोंने पुनर्विवाहका बहुत निषेध किया है।
यदि कहो कि भ्रूणहत्याकी अपेक्षा तो विधवा-विवाह कहीं अच्छा ही होगा तो इसका उत्तर यह है कि भ्रूणहत्या भी पाप है और विधवा-विवाह भी पाप है। धर्म तो किसीको भी नहीं कहा जा सकता। धर्म तो वही है जो श्रेष्ठ पुरुषोंके द्वारा धारण करनेयोग्य तथा इस लोक और परलोकमें कल्याण करनेवाला है। यदि कहो कि बहुत आदमी इसे आजकल धर्म मानते हैं तो इससे क्या हुआ, धर्म बहुत आदमियोंकी मान्यतापर निर्भर नहीं करता। बहुत आदमियोंके मान लेनेसे किसी बातको धर्म नहीं माना जा सकता। यदि कहो कि आजकल तो कई विधवा स्त्रियाँ पुनर्विवाह कर लेती हैं सो यदि कोई अपनी कामवासनाकी पूर्तिके लिये ऐसा करती हैं तो उनका वह आचरण धर्म कैसे कहा जा सकता है। कामवासनाकी तृप्तिके लिये भोगविलासके क्षणिक सुखको कोई सुख भी माने तो वह तो अत्यन्त घृणित ही है और घृणित होनेसे वह त्याज्य ही है।
अतएव विधवा स्त्रियोंको शास्त्रमें बतलाये हुए कर्तव्यका पालन करना चाहिये। पतिके मरनेपर विधवा स्त्रीको वैराग्यपूर्वक ब्रह्मचर्यका पालन करते हुए सदाचार और ईश्वरकी भक्तिमय जीवन बिताना, इन्द्रियोंका संयम और शास्त्रोंका स्वाध्याय करना तथा पुत्रोंके अधीन रहकर पतिके बतलाये हुए मार्गके अनुसार ही आजीवन चलना चाहिये। श्रीमनुजी कहते हैं—
कामं तु क्षपयेद्देहं पुष्पमूलफलै: शुभै:।
न तु नामापि गृह्णीयात्पत्यौ प्रेते परस्य तु॥
आसीतामरणात्क्षान्ता नियता ब्रह्मचारिणी।
यो धर्म एकपत्नीनां काङ्क्षन्ती तमनुत्तमम्॥
(५। १५७-१५८)
‘विधवा स्त्री फल-फूल, कन्द-मूल आदि सात्त्विक पदार्थोंसे ही जीवन-निर्वाह करती हुई इच्छापूर्वक अपने शरीरको सुखा डाले, परंतु पतिकी मृत्युके बाद (कामवासनासे) किसी पराये पुरुषका नाम भी न ले। पतिव्रता स्त्रियोंका जो धर्म है, उस सर्वोत्तम धर्मको पानेकी इच्छा रखनेवाली विधवा मृत्युपर्यन्त क्षमाशील, मन-इन्द्रियोंको संयममें रखनेवाली तथा ब्रह्मचारिणी रहे।’
प्रश्न ११—हमलोग प्रात:काल और सायंकाल सन्ध्या-गायत्री, भजन-ध्यान, पूजा-पाठ करने बैठते हैं, उस समय या तो आलस्य आ जाता है या मन चारों ओर दौड़ लगाता रहता है। बहुत कालतक साधन करते रहनेपर भी लाभ नहीं देखनेमें आता, इसके लिये हमें क्या करना चाहिये?
उत्तर—प्रात:काल और सायंकालके नित्यकर्मको—सन्ध्या-गायत्री, भजन-ध्यान, पूजा-पाठको हमें जितना आदर देना चाहिये, उतना नहीं देते; बल्कि उपेक्षाबुद्धिसे करते हैं। हमें चाहिये कि हम भगवान् को और उनके लिये किये जानेवाले साधनको जीवनका महान् आदरणीय कार्य समझकर बड़े ही सत्कारके साथ उसका आचरण करें।
आलस्य आनेमें कई हेतु हैं—रात्रिमें नींदकी कमी, भारी और अधिक भोजन करना, तामसी पदार्थोंका सेवन, आसन ठीक तरहसे न लगाना, ईश्वरमें श्रद्धा-प्रेमकी कमी और अत्यधिक शारीरिक परिश्रम। इन कारणोंको दूर करनेके लिये हमें भोजन सात्त्विक (गीता १७। ८), हलका और भूखसे कुछ कम मात्रामें—उचित रूपमें करना चाहिये (गीता ६। १७)। रात्रिमें पूरे छ: घंटे शयन कर लेना चाहिये और सबेरे उठकर शौच-स्नानसे निवृत्त होकर जहाँ हल्ला-गुल्ला और विघ्न-बाधाएँ न हों, ऐसे निर्जन और पवित्र स्थानमें अच्छी प्रकार आसन लगाकर बैठना चाहिये। कमर और ग्रीवा सीधी रहनी चाहिये (गीता ६। १३), जिससे आलस्य न आवे। नाशवान् क्षणभंगुर सांसारिक पदार्थोंको आदर न देकर भगवान् की प्राप्तिके साधनों तथा भगवान् को ही अपना सर्वस्व धन, प्राण और जीवन मानकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक बड़े आदरके साथ भगवान् में मन लगानेका प्रयत्न करना चाहिये, इस प्रकार करनेसे आलस्य कम हो सकता है।
अज्ञानके कारण सांसारिक पदार्थोंमें जो हमलोगोंकी सुख और शोभनबुद्धि हो रही है और मनका संसारमें जो एक विचरण करनेका अभ्यास हो गया है—इन सब कारणोंसे संसारका चिन्तन मनको प्रिय लगता है और वह उनमें विचरता रहता है। इसीसे विक्षेप-दोष बढ़ता है। इसके सुधारके लिये हमलोगोंको विवेक और वैराग्यसे काम लेना चाहिये। मनको समझाना चाहिये कि संसारके पदार्थोंमें जो सुख प्रतीत होता है, वह अज्ञानसे होता है, वास्तवमें उनमें सुख है ही नहीं। संसारके सारे पदार्थ नाशवान्, क्षणभंगुर और दु:खके ही हेतु हैं (गीता५।२२); इसलिये ये आत्माका पतन करनेवाले तथा संसारमें ही भटकानेवाले हैं। ऐसा सोचकर चित्त-वृत्तियोंमें वैराग्य करना चाहिये, वैराग्य करनेसे ही वृत्तियाँ संसारके चिन्तनसे हट सकती हैं। मनको यह भी समझाना चाहिये कि संसारका व्यर्थ चिन्तन करनेसे जब स्वार्थकी ही सिद्धि नहीं होती तब फिर परमार्थकी सिद्धि तो हो ही कैसे सकती है। इन पदार्थोंमें हमारी जो प्रीति है, वह उनमें सुख और शोभनबुद्धिके कारण है और वह सुख और शोभनबुद्धि केवल भ्रान्तिमात्र है, वास्तवमें नहीं है; यदि वास्तवमें हो तो वह स्थायी होना चाहिये। क्योंकि जो चीज सत्य होती है, उसका विनाश नहीं होता और जो मिथ्या होती है, वह टिक नहीं सकती। भगवान् कहते हैं—
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभि:॥
(२। १६)
‘असत् वस्तुकी तो सत्ता नहीं है, और सत् का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनोंका ही तत्त्व तत्त्वज्ञानी पुरुषोंद्वारा देखा गया है।’
अत: संसारमें जो सुख और शोभनबुद्धि है, देश, काल और वस्तुका विचार करनेपर वह अल्प और एकदेशीय सिद्ध होती है। जिस इन्द्रियको सुख प्रतीत होता है, उसी कालमें उससे भिन्न दूसरी इन्द्रियको नहीं होता। जैसे नेत्रोंको दर्शनका सुख होता है तो कानोंको नहीं और कानोंको श्रवणका सुख होता है तो नासिकाको नहीं। इसी प्रकार सभी इन्द्रियोंके विषयमें समझना चाहिये। अत: वह सुख अल्प और क्षणिक है। तथा क्षणिक होनेसे अनित्य है और अनित्य होनेसे असत् है। क्योंकि इन्द्रिय और विषयोंके संगसे जो सुख प्रतीत होता है, वह संयोगके दूसरे क्षणमें नहीं रहता। जिन पदार्थोंके साथ संयोग है, वह संयोग भी क्षणिक है और पदार्थ भी क्षणिक हैं; क्योंकि पदार्थोंका क्षण-क्षणमें परिवर्तन होता रहता है तथा संयोगके साथ वियोग भी अवश्यम्भावी है।
इस प्रकारसे विचार करनेपर यही निर्णय होता है कि सांसारिक सुख वास्तवमें सुख ही नहीं है। ऐसा विचारकर मनको बार-बार इन पदार्थोंसे हटाकर परमात्मामें लगाना चाहिये। इस प्रकार विवेक और वैराग्यपूर्वक तीव्र अभ्यास करनेसे संसारकी स्फुरणा कम हो सकती है।
सन्ध्या-गायत्री और गीता, विष्णुसहस्रनाम, रामायण, भागवत, स्तोत्र आदिका पाठ करते समय उनके अर्थकी ओर लक्ष्य रखते हुए और यदि अर्थका ज्ञान न हो तो टीकामें लिखे हुए अर्थका मनन करते हुए उनके तत्त्व-रहस्यको समझ-समझकर उनका आस्वादन करना चाहिये।
भगवान् के नामका जप करनेके समय भगवान् के निर्गुण-सगुण,निराकार-साकार, जिस रूपमें अपनी श्रद्धा और रुचि हो, उसी रूपका एवं भगवान् के गुण-प्रभावका मनन करते हुए प्रेमपूर्वक चिन्तन करे और उनकी रूप-माधुरीका आस्वादन करे।
भगवान् के समान संसारमें हमारा कोई नहीं है। वे ही हमारे माता-पिता, भाई-बन्धु, धन-प्राण, सर्वस्व हैं। इसलिये क्षणभंगुर नाशवान् संसारसे सर्वथा सम्बन्ध तोड़कर केवल सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, परम सुहृद् और प्रेम तथा माधुर्यके एकमात्र निधान भगवान् से ही श्रद्धा और आदरपूर्वक सर्वभावयुक्त सम्बन्ध स्थापित करना चाहिये तथा भगवान् के दर्शन, भाषण, वार्तालाप, स्पर्श, चिन्तन—सभी प्रेमपूर्ण और रसमय—अमृतमय हैं एवं उन निर्गुण-निराकार सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका श्रद्धापूर्वक चिन्तन भी आनन्दमय और अमृतमय है, इस तरह श्रद्धा, भक्ति और आदरसे नित्य-निरन्तर उसका ध्यान करते हुए उसमें तन्मय हो जाना चाहिये।
उपर्युक्त प्रकारसे प्रयत्न करनेपर, जो आपको बहुत काल साधन करनेपर भी लाभ नहीं हुआ, वह लाभ बहुत थोड़े समयमें ही मिलनेकी सम्भावना है। इसलिये ऊपर बतलाये हुए साधनोंके अनुसार कटिबद्ध होकर प्रयत्न करना चाहिये।